दूसरों पर आश्रित ना होना पड़े इसलिए दिव्यांग होते हुए भी मैंने घर की दहलीज लाँघी : ऋतु चौबे, फाइनांस एक्जक्यूटिव, कलाहनु ग्रुप ऑफ़ कम्पनीज,पटना

दूसरों पर आश्रित ना होना पड़े इसलिए दिव्यांग होते हुए भी मैंने घर की दहलीज लाँघी : ऋतु चौबे, फाइनांस एक्जक्यूटिव, कलाहनु ग्रुप ऑफ़ कम्पनीज,पटना

मेरे मायके में भी लड़कियों को बोझ समझे जाने की मानसिकता चरम पर थी. इतनी कि जब तीसरी बेटी के रूप में मेरा जन्म हुआ मेरे डॉक्टर पिता डिप्रेशन में आकर रो पड़े थें और दादा ने गुस्से में मेरे पिता से 6-7 महीना बात नहीं किया था. फिर किसी तरह मुझे एक्सेप्ट कर लिया गया लेकिन जन्म के 10 महीने बाद ही मुझे पोलियो हो गया. शुरुआत में मैं हाथों के बल पर चला करती थीं लेकिन फिर लगातार कई जगहों पर ट्रीटमेंट चलता रहा तब जाकर थोड़ा बहुत चलने में सक्षम हुईं. लेकिन पोलियो एक ऐसी बीमारी है जो आजतक लाइलाज है. धीरे- धीरे समय बीतता गया फिर पढ़ाई शुरू हुई. स्कूल के दौरान भी हज़ारों मुश्किलों का सामना करना पड़ा. 10 वीं के एग्जामिनेशन में फर्स्ट डिवीजन से पास हुई. मगर उसी समय पिता ने तय किया कि शादी कर देनी चाहिए क्यूंकि उनके यहाँ सभी बेटियों की शादी कम उम्र में ही करने की प्रथा थी. मैट्रिक के रिजल्ट के पहले ही शादी कर दी गई. एक दिव्यांग बेटी की शादी करने में किन-किन परेशानियों का सामना करना पड़ता है ये एक माता-पिता ही जानते हैं. ये भी सच है कि कोई भी अपने घर एक अपाहिज लड़की को बहू बनाकर लाना नहीं चाहते. अंततः एक दिव्यांग लड़के से उसकी दिमागी हालत के बारे में मुझसे छुपाकर, झूठ बोलकर शादी करा दी गई. ऐसे लड़के से जिसे अपनी ज़िम्मेदारियों से दूर- दूर तक कोई लेना- देना नहीं था. मैं इस सवाल का जवाब आज तक नहीं ढूंढ पायी हूँ कि अगर किसी लड़की के शरीर पर कुछ दाग है या कुछ कमी है तो उसकी शादी डिजेबल व्यक्ति से ही क्यों की जाती है, आखिर समाज में ऐसी परिपाटी क्यों है..?

अपने बच्चों के साथ मस्ती के पल संजोती ऋतु चौबे

शादी के बाद हमारे यहाँ गौने का रिवाज था. उसी दौरान 11 वीं की पढ़ाई करने की ज़िद की और 11 वीं भी फर्स्ट डिवीजन से पास हुई. फिर एक साल के बाद गौना कराया गया, मैं एक ऐसे माहौल में डाल दी गई जिसकी मैंने कभी कल्पना भी नहीं की थी. गाँव का माहौल, घूंघट, लाज- शर्म, पर्दा  और गाँव में मिटटी का चूल्हा देखकर बहुत रोना आया पर हिम्मत नहीं हारी. हर जंग को लड़ने की हिम्मत शायद ऊपरवाले ने दी, मगर उन्ही दिनों अपने पति की दिमागी हालत को देखकर एक साल तक डिप्रेस्शन में चली गई. पापा ने हर वो कोशिश कि ताकि बेटी ठीक हो जाए. जब ठीक हुई तो कम्प्यूटर का कोर्स किया और उसमे भी अच्छे नंबरों से पास हुई. फिर वही ससुराल, वही लोग. शादी के 5 साल तक संतान ना होने पर हर तरफ से ताने मिलने लगें कि बाँझ है, कभी माँ नहीं बन सकती, इसे तो पोलियो है. फिर 5 साल के बाद भगवान की कृपा हुई और एक बेटे ने जन्म लिया. काफी मुश्किलों का सामना करने के बाद जब बेटा बड़ा होने लगा तभी 3 साल के बाद एक बेटी ने जन्म लिया. पति की दिमागी हालत बहुत अच्छी ना होने और दो बच्चों की ज़िम्मेदारी निभाते हुए किसी तरह इंटरमीडिएट की पढ़ाई पूरी कर ली.

सामाजिक कार्यों से लोगों को जागरूक करती हुईं ऋतु

ससुर के सरकारी जॉब से रिटायर्ड हो जाने और पति को कोई काम नहीं करते देख मैंने घर की दहलीज लांघी. क्यूंकि तब एक-एक पैसे के लिए दूसरों पर आश्रित होना पड़ता था, दूसरों के आगे हाथ फैलाना पड़ता था. मैंने हिम्मत की घर से बाहर निकलने की. कई साल घर पे रहने के बाद ज़िन्दगी की नई शुरुआत करने का समय शायद अब आ गया था. कई जगह रिज्यूम भेजा पर कोई खबर नहीं , सरकारी से लेकर प्राइवेट जॉब की तलाश शुरू की. घर के किसी मेंबर की इच्छा नहीं थी कि मैं नौकरी करुँ और आगे बढूं पर खुद में अब एक ज़िद थी कि नहीं मुझे आगे बढ़ना है. कुछ करना है, खुद के लिए और अपने बच्चों के उज्जवल भविष्य के लिए. तभी 2004 में एयरटेल कम्पनी में मुझे रिसेप्सनिस्ट की जॉब मिली जो 900 की थी. तब कई बार मर्दों के सामने हालात इतने बुरे होते कि कुछ समझ में नहीं आता क्या करुँ. तब परिवार भी बड़ा था, घर के सारे काम और बच्चों को देखने के साथ 8 घंटे की नौकरी करनी पड़ती थी. उस पर भी अड़ोस-पड़ोस के लोग घरवालों को उकसाते कि “हमने देखा तुम्हारी बहू को बाहर काम करते हुए, मर्दों की घूरती आँखों के बीच रिस्पेशन पर बैठे हुए…बहुत बुरा लगा हमें.” उसके बाद घर में रोक-टोक भी हुए लेकिन मैंने जॉब नहीं छोड़ी. धीरे- धीरे लगा छोटे शहर में इससे ज्यादा कुछ हैं नहीं और बच्चे भी बड़े होने लगे थें. तब पटना आने की सोचने लगी. लेकिन परिवार-समाज में ऐसी मानसिकता थी कि कोई बहू को बाहर जॉब करते नहीं देखना चाहता था. लेकिन फिर भी मैंने वह बेड़ियां तोड़ी और कुछ अरसे बाद ससुरालवालों का विरोध झेलते हुए पति और बच्चों को लेकर पटना शिफ्ट हो गई.

‘ग्लोबल बिहार’ ब्यूटी कॉन्टेस्ट में सम्मानित होती हुईं ऋतु चौबे

छोटे-मोटे जॉब करते हुए उसी बीच मैंने अपने जॉब के पैसे से ग्रेजुएशन की पढ़ाई भी पूरी की. उसके बाद मेरा सेलेक्शन हुआ एक बड़ी निजी कम्पनी में जहाँ पिछले 2010 से आज तक उसी कंपनी में कार्यरत हूँ. तभी मुझे लगा मैं तो अब एक अच्छी नौकरी में हूँ, मुझे दूसरों के लिए भी कुछ करना चाहिए. जॉब की वजह से बाहर कहीं जाने का मौका नहीं मिलता था सो मैंने सोशल साइट्स का सहारा लिया. 2012 में कुछ संस्थाओं से जुड़ने के बाद खुद से सोशल मीडिया (फेसबुक-व्हाट्सएप) पर एक ग्रुप बनाकर खासकर डिसेबिलिटी को लेकर लोगों को मोटिवेट करना शुरू किया. कुछ लड़कियों की काउंसलिंग भी की.  2016 में पटना में हुए ब्यूटी कॉन्टेस्ट ‘ग्लोबल बिहार’ में हिस्सा लिया जिसमे एकमात्र दिव्यांग प्रतिभागी मैं थी. तब कुछ मेम्बर्स ने हतोत्साहित किया कि “आप हट जाइये, आप रैंप वॉक कैसे करेंगी?” लेकिन फिर भी मैं फाइनल राउंड में 12 वें नम्बर पर आयी और मुझे ‘मोस्ट कॉन्फिडेंट अवार्ड’ से सम्मानित किया गया. मैंने भाग लिया सिर्फ इसलिए ताकि मैं खुद को साबित कर सकूँ और दुनिया की नज़र में एक मिशाल बन सकूँ कि कोई भी महिला किसी से कम नहीं हैं.

कैंसर पीड़िता रिंकी की मदद करती हुईं ऋतु

वहां से मनोबल बहुत बढ़ा फिर जॉब के साथ-ही-साथ 2017 में एक ट्रस्ट ‘समदृष्टि चैरिटेबल फाउंडेशन’ की स्थापना कर दी जो खासकर दिव्यांग और ट्रांसजेंडरों पर ज्यादा फोकस करता है. एक महीने पहले एक कैंसर पीड़ित महिला की जानकारी मिली जिसके घरवालों ने बीमारी के कारण उसे घर से निकाल दिया था. मैं रात में उससे मिली और उसके लिए हर वो कोशिश की मैंने, सोशल साइट्स पे उसके प्रॉब्लम को वायरल किया. न्यूज़ चैनल्स पे गई, अखबारों के ज़रिये लोगो से मदद मांगी और मिली मदद से आज मैं उस कैंसर पीड़ित लड़की जिसका नाम रिंकी है उसके लिए पैसे से लेकर दवा का जुगाड़ भी करा रही हूँ. अभी हमारा सोशल साइट्स पे अभियान चल रहा है लोगों को जागरूक करने का, समय-समय पे हम पब्लिक प्लेस में जाकर लोगों को समझाते हैं कि क्या ज़िम्मेदारी है उनकी समाज के प्रति. हाल ही में हमारे व्हाट्सएप ग्रुप ने पटना डाकबंगला चौराहा पर कैंप लगाकर चेन्नई बाढ़ पीड़ितों के लिए पैसे इकट्ठे किये और मुख्यमंत्री राहत कोष में जमा किया.

 

 

‘बोलो ज़िन्दगी’ के साथ अपने संस्मरण बयां करती हुईं ऋतु चौबे

 

 

दो बच्चों एक बेटा, एक बेटी और पति के साथ पिछले 8 साल से पटना में हूँ और हंसी-खुशी अपनी गृहस्ती की गाड़ी चला रही हूँ. आज पति भी एक छोटी सी प्राइवेट जॉब में हैं. वे लोग जो कभी मेरे दिव्यांग होने से नफ़रत करते थें अब उनलोगों का भी साथ मिलता है. मैं ये सपना संजोए हूँ कि बेटा और बेटी किसी ऐसे मुकाम पे पहुंचे कि वो सर उठाकर कह सकें कि मैं एक दिव्यांग दंपत्ति की संतान हूँ जिसपे मुझे गर्व है.

About The Author

'Bolo Zindagi' s Founder & Editor Rakesh Singh 'Sonu' is Reporter, Researcher, Poet, Lyricist & Story writer. He is author of three books namely Sixer Lalu Yadav Ke (Comedy Collection), Tumhen Soche Bina Nind Aaye Toh Kaise? (Song, Poem, Shayari Collection) & Ek Juda Sa Ladka (Novel). He worked with Dainik Hindustan, Dainik Jagran, Rashtriya Sahara (Patna), Delhi Press Bhawan Magazines, Bhojpuri City as a freelance reporter & writer. He worked as a Assistant Producer at E24 (Mumbai-Delhi).

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