मेरा गृह जिला मुजफ्फरपुर है लेकिन जन्म पटना में हुआ. मैं अपने चार भाई बहनों में सबसे बड़ा हूँ. मेरे पिता जी श्री परमेशवर प्रसाद बिहार सरकार में नौकरी करते थे. मेरे जन्म के समय मेरी माता जी प्रोफ़ेसर कृष्णा बाला स्टूडेंट थीं, बाद में उन्होंने अपनी पढ़ाई पूरी की और वो पटना यूनिवर्सिटी के मगध महिला कॉलेज में समाजशास्त्र की लेक्चरर हुई फिर प्रोफ़ेसर बनीं. मेरी प्रारम्भिक शिक्षा पटना में हुई. क्लास 2 तक संत जोसफ कॉन्वेंट हाई स्कूल में, फिर क्लास 8 तक संत माइकल्स हाई स्कूल में और फिर मैट्रिक तक की पढ़ाई सर गणेश दत्त पाटलिपुत्रा हाई स्कूल में हुई. 1980 में मैंने मैट्रिक की परीक्षा फर्स्ट डिवीजन से पास की तो पिता जी ने खुश होकर एच.एम.टी. जनता घड़ी दिया. साइंस कॉलेज में मेरा एडमिशन हो गया तो फिर एक साइकल भी मुझे मिली. कंकड़बाग से साइंस कॉलेज साइकल से जाना और आना, ये मैंने लगातार छह साल तक किया. कभी कभी कॉलेज बस से भी चला जाता था लेकिन ज्यादातर साइकल से ही जाता था और एक तरह से वो मेरे स्वास्थ के लिए भी अच्छा रहा. मैंने साइंस कॉलेज से जूलॉजी में एम.एस.सी. तक की पढ़ाई की. तब एम.एस.सी. में गोल्ड मेडलिस्ट भी रहा. मैं कॉलेज में बहुत अच्छा डिवेटर था, मेरा जेनरल नॉलेज बहुत अच्छा था इसलिए क्विज में भी मैं हिस्सा लिया करता था. कॉलेज के दौरान कई बार डिवेट के लिए पुरस्कृत भी हुआ. 1987 में मैं सिविल सर्विस के लिए यू.पी.एस.सी. इम्तेहान में बैठा. पहली बार में ही चयन हो गया रेलवे में और उसके बाद 1988 में दुबारा परीक्षा दी तो आई.पी.एस. में आ गया. मेरी जिंदगी में एक मोड़ 1976 में आया जब उन दिनों हम महेन्द्रू मोहल्ले में किराये के मकान में रहा करते थें. हमारे पिता तब बिहार सरकार में सांख्यिकी विभाग में काम करते थें और माँ तब मगध महिला में लेक्चरर हो गयी थीं. अचानक मेरे पिता जी के बड़े भाई यानि मेरे चाचा जी का देहांत हो गया. फिर मेरे चचेरे भाई-बहन चाची के साथ हमारे बीच पटना उसी घर में रहने आ गए. बचपन से एक चीज मैंने सीखी थी परिवार के बीच किस प्रकार से आप अपने संसाधनों को शेयर करते हैं. मुझे याद है कि दो कमरे का घर था और उस ज़माने में जब एक साथ मेरे चार भाई-बहन बढ़ गए तो पलंग हटाकर हमलोग ज़मीन पर ही सोते थें. वो मकान जर्जर हो चुका था और बरसात के दिनों में जब बारिश होती तो हमलोग जगह-जगह बाल्टी और तसला आदि बर्तन लगाते थें क्यूंकि पानी चूता था. उसके बाद पिताजी ने कंकड़बाग में अपना घर बनाया और हमलोग उस नए घर में 26 जनवरी, 1980 में रहने चले आये. उस समय पिताजी के पास थोड़ा पैसों का आभाव था तो मुझे याद है तब हमलोगों के घर में फ्लोर नहीं बना था, खाली ढलैया करके छोड़ दिया गया था. बहुत बाद में मोजैक वगैरह कराया गया. उन दिनों हमलोगों के यहाँ एक नौकर हुआ करता था जो खाना भी बनाता था. लेकिन वो लड़ाई करता कि इतने आदमी का खाना बनाना पड़ता है, फिर बर्तन भी धोना पड़ता है. तब पिता जी ने कहा कि अब से बर्तन हर आदमी अपना अपना धोएगा. फिर हमलोग खाना खाने के बाद अपना बर्तन स्वयं धोते थें. उसके बाद कभी अपना काम करने में लाज नहीं लगा और ये एक आदत सी बन गयी. बाजार से सब्जी लाना, घर का काम करना दिनचर्या में शामिल हो गया. उस दरम्यान सबकी ड्यूटी बन गयी घर की सफाई करने की. हफ्ते में एक आदमी की दो दिन ड्यूटी होती थी. हमारा कमरा बंटा हुआ था. भाइयों का कमरा अलग और बहनों का कमरा अलग था. तो सबको अपना अपना कमरा साफ़ करना था. दो दिन मैं तो दो दिन मेरा हमउम्र चचेरा भाई अपने कमरे की सफाई करते थें. दो भाई छोटे थें इसलिए उनको सफाई से मुक्ति मिली हुई थी. हमलोगों ने तब इन कामों के लिए विरोध नहीं किया क्यूंकि नौकर पहले ही बोल चुका था कि मैं नहीं करूँगा और माँ को डर था कि वो कहीं भाग ना जाये. तब नौकर मुश्किल से मिलता था और ज्यादा दिन टिकता नहीं था. तो जॉइंट फैमली में कैसे रहा जाता है, कैसे सुख-दुःख शेयर किया जाता है वो मैंने सीखा और आजतक वो संस्कार मैंने अपने बच्चों को भी दिया है. उस समय अचानक जो चार-पांच लोगों की फैमली बढ़ गयी तो पिताजी की आर्थिक स्थिति थोड़ी गड़बड़ा गयी. उनकी बड़ी इच्छा थी उस समय स्कूटर खरीदने की लेकिन पैसा नहीं था तो महेन्द्रू से मेरे पिता जी साइकल से सचिवालय आते-जाते थें. पिता जी ने बाद में विजय डीलक्स स्कूटर लिया और फिर उसे बेचकर बाद में बजाज का स्कूटर लिया जो आज भी निशानी के तौर पर मेरे घर में मौजूद है. उस समय दोस्तों को देखकर लगता था कि भाई वो हमसे ज्यादा अच्छे कपड़े पहनते हैं, वो चार चक्केवाली गाड़ियों में घूमते हैं और हमलोग बहुत ही साधारण ढंग से रहते हैं. मुझे याद है तब दुर्गापूजा के टाइम में हमलोगों के लिए कपड़े का थान आता था. यानि हम पांच भाइयों के कपड़े एक ही थान से सिलाते थें. पांचों का पैंट एक ही कलर का, शर्ट एक ही तरह का बरात के बैंड पार्टी की तरह का होता था. और लड़कियों का भी उसी तरह से एक जैसा सलवार कुर्ता सिलाता था. लेकिन 1980 के बाद जब गवर्मेंट की पॉलिसी चेंज हुई तो माँ-पिता जी का पेय स्ट्रक्चर बढ़ गया. हमलोगों के बचपन में जो आर्थिक आभाव था वो जवानी में कदम रखते हुए काफी हद तक खत्म हो गया. मेरी माता जी चूँकि शिक्षाविद थीं तो उन्होंने घर में पढ़ाई का बहुत ही अच्छा माहौल बनाया. माँ पिता जी ने जो भी कमाया वो हम सबकी पढ़ाई पर ज्यादा खर्च किया, बेस्ट एजुकेशन जो हो सकता था उन्होंने सबको दिलाया. माँ-बाप ने एजुकेशन के प्रति जो समर्पण दिखाया आज हमलोग उसी की रोटी खा रहे हैं. हम सभी भाई-बहन आज वेल सेटल्ड हैं और सभी जिंदगी में अच्छा कर रहे हैं.
अब सर्विस की बात करूँ तो पुलिस की नौकरी अपने आप में एक स्ट्रगल है. मैंने जब कम्प्लीट किया तो मेरा रैंक बहुत अच्छा था इसलिए मुझे बिहार कैडर मिल गया और फिर मेरी ट्रेनिंग भी पटना में शुरू हो गयी. तो जिस शहर में एक आम स्टूडेंट बनकर मैं साइकल से घूमता था उसी शहर में पुलिस जिप्सी में बैठकर ट्रेनिंग में घूमने लगा. ट्रेनिंग खत्म करके 1990 में पटना आया तो मेरी पहली पोस्टिंग हुई ए.एस.पी. पटना सिटी. यहाँ से जॉब का स्ट्रगल शुरू हुआ जिसे मैं स्ट्रगल नहीं बल्कि चैलेंज मानता हूँ. पटना सिटी में बहुत क्राइम था. मुझे याद है जब मैंने ज्वाइन किया तो उस समय रामशिला पूजन हो रहा था और उसको लेकर वहां हमेशा साम्प्रदायिक तनाव होता था. 1992 में बाबरी मस्जिद प्रकरण हो जाने की वजह से पटना सिटी का माहौल बहुत बिगड़ गया. हमलोगों ने बहुत मेहनत किया और हमारे प्रयास के कारण वहां कोई दंगा नहीं भड़का. मुझे याद है उस दरम्यान 15 दिनों तक लगातार कर्फ्यू था और हमलोग रात-रात भर पेट्रोलिंग करते थें, सर्चेस करते थें. लोगों के बीच जाकर उनमे कॉन्फिडेंस भरते थें. मुझे वहां पहली बार मौका मिला क्रिमनलों के साथ मुठभेड़ करने का. आमने-सामने मुठभेड़ हुआ, अपराधियों ने गोली चलायी. मैंने भी गोली चलायी और उसी दौरान मेरे बॉडीगार्ड को घुटने में गोली लग गयी. उस मुठभेड़ में चार कुख्यात अपराधी मारे गए. जिसके लिए महामहिम राष्ट्रपति द्वारा मुझे 1994 में पुलिस वीरता पदक से अलंकृत किया गया. उसी दरम्यान मेरी जिंदगी में एक दर्दनाक हादसा हुआ. तब मेरे पास सरकारी गाड़ी थी लेकिन घर में पर्सनल कोई चार पहिये की गाड़ी नहीं थी. उन्ही दिनों मेरे पिता जी माँ को स्कूटर पर बैठाकर पी.एम.सी.एच. किसी को देखने गए थें. और रास्ते में लौटते वक़्त चिड़इयाँ टांड पुल पर उनका एक्सीडेंट हो गया जिसमे माँ की मृत्यु हो गयी. बहुत कम उम्र में माँ का इस तरह से चले जाना मेरे और पूरे परिवार के लिए बहुत दर्दनाक क्षण रहा. हमलोग अंदर से बहुत टूट गए. खैर हमें ईश्वर ने शक्ति दी और फिर से जिंदगी ढर्रे पर आयी. तब मेरी छोटी बहन की शादी तय हो गयी थी चूँकि लड़की थी इसलिए हमने उस गमगीन माहौल में उसकी शादी कर दी. कन्यादान पिता जी ने किया मगर शादी के जितने रस्मो-रिवाज होते हैं अभिभावक के रूप में वो मैंने और मेरी पत्नी ने किया. उसके बाद दोनों छोटे भाइयों की पढ़ाई-लिखाई फिर शादी सब हमलोगों ने किया.
फिर मेरी पोस्टिंग हो गयी सिटी एस.पी. रांची के पद पर और रांची उस समय बिहार के अपराध की राजधानी मानी जाती थी. तब बिहार का बंटवारा नहीं हुआ था. जब मैं रांची जा रहा था तब मुझे डी.जी.पी. ने आगाह करते हुए कहा कि ‘वहां जा रहे हो तो देखना बहुत चैलेन्ज है.’ मैं रांची करीब एक साल रहा. उस समय वहां क्रिमनल्स का बहुत बोलबाला था. शाम में 7 बजे के बाद लोग घर से नहीं निकलते थें. मुझे ख़ुशी है कि वहां भी मैंने बहुत काम किया और समाज में व्याप्त भय का माहौल दूर किया. करियर चलता रहा, फिर रेल एस.पी. पटना बना. उसके बाद गुमला फिर पश्चिम सिंहभूम में एस.पी. रहा. पश्चिम सिंहभूम पूरी तरह से जंगली इलाका था और वहां के कल्चर में एक नई चीज जो मैंने देखी तो आश्चर्य हुआ कि स्त्रियों को डायन बताकर प्रताड़ित किया जा रहा है. इतनी प्रताड़ना कि उसे उसी समाज के लोग, उसी के परिवार के लोग डायन बनाकर उसकी पिटाई करते हुए, उसके साथ अमानवीय हरकत करते हुए मार डालते थें. उस समय मैंने इस प्रथा के खिलाफ एक मुहीम चलाई और वहां की स्वयं सेवी संस्थाओं के साथ हमने पैदल मार्च किया, जागरूकता के लिए. उस समय न मोबाईल फोन था न ही सोशल मीडिया, तो जागरूकता के लिए हमें मार्च, भाषण और पोस्टर की जरुरत पड़ती थी. ये बात 1996 से 1998 की है. वहां के गांव , जंगली इलाकों में अन्धविश्वास फैला था, लोग ओझा की बात सुनते थें. वहां एक लड़ाई चली इस अन्धविश्वास और ओझाओं के अगेंस्ट. एक संस्था के साथ मिलकर हमने पीड़ित महिलाओं को सामने लाकर उनका इंटरव्यू कराया और एक सामाजिक चेतना फैलाई. उसके बाद मेरी पोस्टिंग बोकारो हो गयी, फिर वहां से देवघर आ गया. उसके बाद हजारीबाग आया. तब तक हजारीबाग नक्सल प्रभावित इलाका बन चुका था और नक्सलियों से लड़ाई बहुत बड़ी चुनौती थी. उस समय नक्सल दस्ते पुलिस फ़ोर्स पर अटैक करके हथियार लूट लेते थें, निर्दोष ग्रामीणों की हत्या कर देते थें. उनका सामना करना लाइफ का बड़ा चैलेंजिंग फेज था. वहां से सीतामढ़ी एस.पी. बना फिर मैं 3 साल तक पटना में कमांडेंट रहा. फिर 2003 में मेरी पोस्टिंग एस.पी. बेगूसराय के पद पर हो गयी और तब तक बिहार का बंटवारा हो गया था. उसके बाद मैं सी.आर.पी.एफ. में चला गया. उन सात सालों के दरम्यान मुझे बिहार में एंटी नक्सल ऑपरेशन को नेतृत्व करने का मौका मिला फिर बाद में झाड़खंड और फिर पश्चिम बंगाल में.
मेरे करियर का बहुत ही दिलचस्प फेज आया जब मैं सी.आर.पी.एफ में बंगाल में था. उस समय बंगाल के नंदीग्राम में आम जनता पर काफी अत्याचार हो रहा था हत्या, बलात्कार और लूटपाट के रूप में. और यह अत्याचार एक राजनीतिक दल के समर्थकों और उसके नाम पर असामाजिक गुंडों द्वारा किया जा रहा था. अपने ही गांव में लोगों को रिफ्यूजी होना पड़ा. डर से लोग घर छोड़कर रिफ्यूजी कैम्प में रहने लगें. उस समय पश्चिम बंगाल के तत्कालीन राज्यपाल के अनुरोध पर 2007 में सी.आर.पी.एफ. को नंदीग्राम भेजा गया और उस फ़ोर्स को लीड करने का मौका मुझे मिला. मैं वहां डी.आई.जी. सी.आर.पी.एफ था. मैंने पहुंचकर देखा कि रिफ्यूजी कैम्प में लगभग 3500 लोग थें. मुझे संतोष है कि मैंने वहां शांति व सुरक्षा का माहौल बनाया. वहां के काम ने मुझे लोकप्रियता भी दिलाई और एक प्रमुख मैगजीन ने यह लिखा कि मुस्लिम औरतें मेरी सलामती के लिए वहां नमाज पढ़ती हैं और लोग मेरी तस्वीर अपने घरों में लगाते हैं. सीआरपीएफ में प्रतिनियुक्ति के दौरान मुझे गोल्डन डिस्क से सम्मानित किया गया. फिर 2008 में मुझे राष्ट्रपति द्वारा सराहनीय सेवा के लिए पुरस्कृत किया गया. वहां से वापस बिहार लौटा 2011 में आई.जी. होमगार्ड के पद पर.
पटना में होमगार्ड डिपार्टमेंट में काम कम था इसलिए समय का सदुपयोग करने के लिए मैंने अपने स्कूल कॉलेज के दिनों के शौक को मौका दिया और गुरु अशोक कुमार प्रसाद के सानिध्य में हिंदुस्तानी क्लासिकल म्यूजिक की ट्रेनिंग शुरू कर दी. फिर 5 साल अपने जॉब के साथ साथ मेरी गायिकी भी चलती रही. फिर जब रांची सी.आर.पी.एफ में गया तो वहां उनका अपना ऑर्केस्ट्रा था और वहां गाना गाने का कल्चर भी था. उसी ऑर्केस्ट्रा में मैंने गाना शुरू किया जिससे थोड़ा शौक को बल मिला. करियर में भी प्रगति होती रही, मैं आई.जी. होमगार्ड बना और फिर 2014 में बिहार में ए.डी.जी., लॉ एन्ड ऑर्डर बना.
2016 में विशिष्ट सेवा के लिए पुनः राष्ट्रपति पदक से तीसरी बार मैं सम्मानित हुआ. वर्क लोड काफी है और मैं ‘बोलो जिंदगी’ के माध्यम से युवाओं को यह सन्देश देना चाहूंगा कि वे टाइम मैनेजमेंट सीखें, अपनी ऊर्जा को सकारात्मक कार्य में लगाएं और अपनी मंजिल को प्राप्त करने के लिए मेहनत करें. तो मैंने भी टाइम मैनेज किया और इसी दरम्यान क्लासिकल म्यूजिक सीखते-सीखते अपना पहला म्यूजिक एल्बम साईं बाबा के भजनों पर आधारित ‘साईं अर्चना’ टी-सीरीज के बैनर तले पिछले साल रिलीज किया. मेरा अगला एलबम ‘नीरज के गीत’ हिंदी के विख्यात कवि डॉ. गोपाल दास ‘नीरज’ जी की कविताओं पर आधारित है. मैं पुलिस ऑफिसर हूँ तो मेरी दिली ख्वाहिस है कि देशभक्ति गीतों का भी एक एलबम निकालूं.