बीसीए कर चुकी झाड़खंड,धनबाद की अंकिता कहती हैं – मेरा हॉस्टल में आना 2014 में हुआ. पर उससे पहले मैं अकेली एक मकान में रेंटर थी. वहां पापा-मम्मी अक्सर आते-जाते थे. इसी बीच पापा का देहांत हो गया. तब मैंने अपनी पढ़ाई छोड़ दी. किसी से बात नहीं करती थी. हर वक़्त रोती रहती थी. जब अकेलापन बोझिल हो गया तो मेरी मकान मालकिन ने मुझे समझाया कि मैं हॉस्टल चली जाऊँ. वहां कई दोस्त मिलेंगे जिससे अकेलापन दूर होगा, आगे बढ़ने की प्रेरणा मिलेगी.उन्होंने ही एक हॉस्टल का पता बताया. जब माँ से इस बारे में बात की तो उन्होंने भी कहा कि तुम्हारी मकानमालकिन सही कह रही हैं. तब मैंने हॉस्टल में जाने का मन बनाया. वहां शिफ्ट भी मुझे अकेले ही करना था. फैमली की बहुत याद आ रही थी. जब किराये के रूम में फर्स्ट टाइम शिफ्ट किया था तब पापा साथ थे. इसलिए उनकी बहुत याद सता रही थी. मैं डरी हुई थी सोचकर कि हॉस्टल लाइफ कैसा होगा, मेरी रूममेट का नेचर कैसा होगा. तब सामान शिफ्ट करते करते काफी थक गयी थी. बैठकर एक कोने में यही सोच रही थी कि अगर पापा होते तो मुझे हॉस्टल नहीं आना पड़ता. उस दिन, उस समय कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा था. इसलिए पूरा दिन किसी गैजेट का भी इस्तेमाल नहीं किया. रूममेट के साथ बातचीत हुई तो मन थोड़ा हल्का हुआ. उसी दिन मैं समझ गयी कि अब मुझे लाइफ खुद से जीना है.
सूचना:
अगर आप भी अपने हॉस्टल के पहले दिन का अनुभव शेयर करना चाहती हैं तो हमें मेल करें
bolozindagi@gmail.com