खूब रोने के बाद हमने घर पर कॉल किया और सबको झूठ बोला कि हम बिल्कुल ठीक हैं : सुमन

खूब रोने के बाद हमने घर पर कॉल किया और सबको झूठ बोला कि हम बिल्कुल ठीक हैं : सुमन

“घर से दूर नया ठिकाना 
अब यही खुशियों का आशियाना,
वो दोस्तों के संग हुल्लड़पन 
वो नटखट सा मेरा बचपन,
हाँ अपनी यादें समेटकर 
गलियों की खुशबू बटोरकर 
दुनिया को दिखाने अपना हुनर
मैं आ गयी एक पराये शहर.” 

अक्सर युवा लड़कियां घर से दूर बड़े शहर में कुछ मकसद लेकर आती हैं, अपना सपना साकार करना चाहती हैं. चाहे कॉलेज की पढाई हो या प्रतियोगिता परीक्षा, उसके लिए एक अजनबी शहर में लड़कियों का आशियाना गर्ल्स हॉस्टल से बेहतर क्या हो सकता है. पर दूसरे माहौल में, नए सांचे में ढ़लने में थोड़ा समय लगता है. आईये जानते हैं ऐसी ही हॉस्टल की लड़कियों से कि उनका हॉस्टल का शुरूआती दिन कैसे गुजरा…….

पटना के एक हॉस्टल में रहकर एम.सी.ए. कम्प्लीट कर बैंकिंग की तैयारी में जुटीं देवघर (झाड़खंड) की सुमन कहती हैं — मैं 2011 में हॉस्टल आयी थी. मेरी मम्मी हॉस्टल में रह चुकी थीं पर मेरा डिसाइड नहीं था कि हॉस्टल में ही रहना है. मेरे रिलेटिव का घर पटना में ही है. मैं और मेरा भाई पहले सिमेज के स्टूडेंट थें. तब भाई ही सारा फॉर्म वगैरह लेकर भरा था. तब सवाल था कि मुझे रहना कहाँ है? अगर मामी जी के पास रहती तो वहां से सिमेज कॉलेज आने में एक घंटा लग जाता, उतना टाइम वेस्ट हो जाता. तो आखिर में डिसाइड हुआ कि हॉस्टल में रहना है. फिर नजदीक का हॉस्टल ढूंढा जाने लगा तभी सिमेज से पता चला कि उनके कॉन्टेक्ट का नजदीक में एक हॉस्टल है, तब मैं ढूंढते हुए भाई और मम्मी के साथ वहां पहुंची. इसके पहले हॉस्टल का मुझे कोई आइडिया नहीं था कि कैसा होता है… क्या करना होता है. मेरे साथ-साथ मम्मी हॉस्टल को पूरी तरह से देखी फिर हमलोग संतुष्ट होकर वापस घर लौट गए. अगस्त में रिटर्न आये तो मेरे को नानी, मामी और छोटी बहन छोड़ने आयी. जब सामान लेकर हम हॉस्टल में रुके तो मन मायूस सा हो गया कि क्यों हम यहाँ रहने आएं, कोई और जगह नहीं है मेरे लिए..? जब सामान लेकर आएं थें तब नार्मल थें लेकिन जब घरवाले जाने लगें तो मेरे को बहुत रोने का मन हुआ कि वो मुझे अकेला छोड़कर जा रहे हैं. फिर हम अपने रूम में गए और जितना रोना था रो लिए. उस टाइम रूम में मेरी रूममेट्स नहीं थीं, क्लास करने गयी थीं. जब रोने के बाद जी कुछ हल्का हुआ तब हमने घर पर कॉल किया और सबको झूठ बोला कि हम बिल्कुल ठीक हैं. फर्स्ट दिन का एक्सपीरियंस क्या बताऊँ…कहाँ खाना मिलेगा, कहाँ क्या करना है, कुछ पता नहीं था. मेरे बगल वाले रूम में ए.एन.कॉलेज की एक दीदी रहती थीं तो उनसे जाकर पूछा कि “बताइये, यहाँ खाने का क्या प्रोसेस है ?” उन्होंने बताया- “वहां सामने खाना मिलता है, प्लेट लेकर चले जाना फिर खाना लाकर यहाँ खा लेना.” एक-दो दिन तो किसी तरह से गुजरा. तब कॉलेज के लिए निकलना था तो पता नहीं था कि कैसे जाना है. न रोड पता, न रूट पता था. वैसे भाई बताये हुए था कि जिस रस्ते से हमलोग पहले दिन आये थें उसी रस्ते से जाना है. तो फिर मैं उसी को फॉलो करते हुए कॉलेज को निकली और 15 मिनट में पहुँच गयी. हॉस्टल से कॉलेज का रूट तो याद हो गया बाकि मुझे और कहीं का पता नहीं था. धीरे-धीरे हॉस्टल में रहने, फ्रेंड्स बनाने के बाद मुझे सब पता चल गया. उसके बाद तो मैं भी कॉलेज-हॉस्टल सब एडजस्ट करते-करते अपनी लाइफ में बीजी हो गयी.

About The Author

'Bolo Zindagi' s Founder & Editor Rakesh Singh 'Sonu' is Reporter, Researcher, Poet, Lyricist & Story writer. He is author of three books namely Sixer Lalu Yadav Ke (Comedy Collection), Tumhen Soche Bina Nind Aaye Toh Kaise? (Song, Poem, Shayari Collection) & Ek Juda Sa Ladka (Novel). He worked with Dainik Hindustan, Dainik Jagran, Rashtriya Sahara (Patna), Delhi Press Bhawan Magazines, Bhojpuri City as a freelance reporter & writer. He worked as a Assistant Producer at E24 (Mumbai-Delhi).

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