मैं बिहार के भोजपुर जिले के कोइलवर की रहनेवाली हूँ. मेरे पिता एक होमियोपैथ डॉक्टर हैं. हमलोग चार बहने हैं, भाई नहीं है. मैं सबसे बड़ी हूँ. मेरी दूसरी बहन सी.आई.एस.एफ. में सब इंस्पेक्टर है, तीसरी बहन सी.आर.पी.एफ. में सब इंस्पेक्टर है. और चौथी बहन अभी कम्पटीशन की तैयारी में लगी हुई है. मेरी स्कूलिंग कोइलवर में हुई. उसके बाद मैंने मॉस कम्युनिकेशन में पटना से ऑनर्स किया. मुझे शुरू से ही लिखने-पढ़ने में काफी रुझान था. मैं चाहती थी कि मैं लिखूं. मैं कॉलेज में पढ़ने के दरम्यान पहले पोस्ट से लिखकर हिंदुस्तान अख़बार में लेटर तू एडिटर के लिए भेजती थी. मेरी लेखन शैली को सराहा गया और फिर एक दिन फीचर एडिटर ने मुझे बुलाया. मेरा इंटरव्यू हुआ और फिर मेरा सेलेक्शन हो गया. समाज में बहुत सी चीजें सुनने में आती थीं तो लगता था कि पत्रकारिता में भी मुकाम हासिल किया जा सकता है. इस वजह से ही मैंने पत्रकारिता में पी.जी. भी किया. 2007 से मैंने 2009 तक पत्रकारिता की. मैं प्रतिदिन कोई सेलेब्रिटी या कोई बड़े प्रशासनिक पदाधिकारी का इंटरव्यू लेती थी कि वे अपनी आम जिंदगी में कैसे हैं. बाहर से जो दिखते हैं वो पर्सनल लाइफ में कैसे हैं. तब शुरूआती स्ट्रगल के दिनों में मुझे लगता था कि कहीं से भी जॉब लग जाये. ऐसी नौकरी करनी थी जिसमे मुझे पहचान मिले. पत्रकारिता के क्षेत्र में बहुत पहचान मिली. लोग मेरे नाम को जानने लगे थें.
लेकिन मुझे शुरू से पुलिस बनना था. मैं सिपाही भी रहती तो मुझे एक खाकी वर्दी वाली ड्यूटी भी पसंद आती. यही वजह है कि मैं पुलिस लाइन में भी आयी तो नाम की वजह से ही आयी. 2004 में दरोगा बहाली का विज्ञापन निकला था. इस बीच मैंने कई कम्पटीटिव इक्जाम के लिए फॉर्म भरे थें. लेकिन मुझे सफलता मिली बिहार पुलिस में बतौर सब इंस्पेक्टर के रूप में. मेरी पहली पोस्टिंग हुई दानापुर थाने में. वहां मैंने महिलाओं से सबंधित बहुत सारे केस देखें. 498 सेक्शन के तहत महिलाओं के लगभग मामले मैं ही देखती थी. एक एंटी ईव टीजिंग सेल बनी थी. तब सादे लिबाश में रहकर मुझे छेड़खानी करनेवाले लड़कों को पकड़ना था. उसके लिए सीनियर एस.एस.पी. साहब ने मुझे सम्मानित किया था. फिर बिहार स्कूल एक्जामिनेशन का जो स्कैंडल हुआ था उसमे मैं एस.आई.टी. में थी. फिर ट्वॉयलेट स्कैंडल के एस.आई.टी. में भी रही. बिहार में शराबबंदी कानून के बीच शराब माफियाओं ने बिहार बेवरेज कॉर्पोरेशन की साइट हैक कर ली थी. जब मामला कोतवाली थाने में दर्ज हुआ तब मैंने यूपी के स्माइलगंज में छापेमारी कर अपराधियों को गिरफ्तार किया. हाल ही में पटना, जी.पी.ओ. गोलंबर के पास देर रात एक नाबालिग के साथ हुए गैंग रेप की वारदात की जाँच और आरोपितों की गिरफ्तारी के लिए गठित एस.आई.टी. की टीम में भी मैं शामिल थीं. मुझे हमेशा अच्छे और चुनौतीपूर्ण कामों के लिए वरीय पदाधिकारियों ने याद किया है.
बचपन में हमारा संयुक्त परिवार था लेकिन हमलोग एकल परिवार ही रहते थें. जब त्योहार होते तो सबलोग एक जगह इकट्ठे होते थें. चार बेटियां होने के बाद माँ-पिता को बहुत सारी बातें सुननी पड़ीं कि “चार लड़कियां हो गयीं, कैसे चलेगा घर का खर्च, कैसे शादी ब्याह होगा…” गांव के लैंग्वेज में ताने सुनने को मिलते पापा को कि “रविया के किस्मत फुट गईल बा….” लेकिन मेरी माँ का बहुत ज्यादा मोटिवेशन रहा. मेरी माँ ने ठाना था कि बेटी हुई तो क्या हुआ इसको मैं बेटा बनाकर रहूंगी. इसलिए बचपन हमलोगों ने कभी लड़कियों जैसा नहीं बिताया. हमेशा गुल्ली-डंडा, क्रिकेट, दौड़ा-भागी आदि खेल खेलते थें. पढ़ाई के दौरान जब हमलोग उच्च शिक्षा के लिए आगे आएं तो मेरी छोटी बहन इंजीनियरिंग की तैयारी करना चाह रही थी तो उसपर हमारे घर में सवाल उठा था कि “अभी तक कोई हमारे यहाँ इंजीनियर नहीं बना है. और ये लड़की होकर इंजीनियर बनने का सपना देख रही है.” मैंने तो सिम्प्ल ग्रेजुशन किया था. तब मैं यही सोच रही थी कि जब छोटी बहन को ऐसा बोल रहे हैं तो मुझे भी बोलेंगे इसलिए उच्च शिक्षा के लिए मैंने भी कोई खास दिलचस्पी नहीं दिखाई. मुझे लगा ग्रेजुएट होने के बाद नौकरी मिल जाती है. लेकिन अपनी बहनों को मैंने मोटिवेट किया. मेरी दोनों बहनों ने बाद में मैथ से पी.जी. किया और वीर कुंवर सिंह यूनिवर्सिटी से टॉपर भी रहीं. मेरे पिता ने हमारी शादी के लिए कोई पैसा नहीं जमा किया था. कल को शादी होगी तो पैसे खर्च करने होंगे ऐसा कभी नहीं सोचा उन्होंने और ना ही हमारे ऊपर दबाव बनाया कि पढ़ाई में पैसा खर्च हो जायेगा तो शादी कहाँ से करेंगे…! तो ये एक आत्मबल था हमारे अंदर कि हमारे पिता हमारे ऊपर सौ फीसदी विश्वास करते हैं कि हमलोग आगे कुछ करेंगे. उनके इसी आत्मविश्वास को बनाये रखना था हमें.
चूँकि घर की आर्थिक स्थिति उतनी अच्छी नहीं थी तो हमलोग पैदल भी खूब चलते थें. हमारे घर से रेलवे स्टेशन करीब दो किलोमीटर पर है और रेत यानि बालू पर चल-चलकर हमलोग रेलवे स्टेशन जाते थें क्यूंकि हमारा घर सोन नदी के किनारे था. ट्रेन पकड़ने के लिए उस दोपहरी में कभी-कभी ऐसा भी होता था कि चप्पलें टूट जाया करती थीं और नंगे पैर हमलोग चप्पल हाथ में टांगकर के उस तपती हुई रेत पर चलकर पढ़ने के लिए पटना आना-जाना करते थें. तब उस वक़्त मैं देखती कि धूप में बालू निकालनेवाले , मछली पकड़ने वाले ऐसे ही नंगे बदन, नंगे पैर अपना काम कर रहे हैं. ठंढ में देखती कि जब सारी दुनिया अपने घरों में रजाई में डुबकी हुई है और वे लोग बर्फ जैसे ठंढे पानी में घुस-घुसकर बालू निकाल रहे होते थें. तो उनलोगों को देखकर ये लगता था कि जब ये लोग कर सकते हैं तो हम क्यों नहीं मेहनत कर सकतें. मेरा सबसे बड़ा आत्मबल बढ़ाने के पीछे यही लोग थें. समाज के ऐसे ही मेहनती लोगों को देखकर मैं आगे बढ़ी. पुलिस ट्रेनिंग के दौरान मेरा वेट कम था तो फिजिकल फिटनेस बढ़ाने के लिए दौड़ना और एक्सरसाइज वैगेरह जरुरी था. इसीलिए मेरे पापा घर से हम दोनों बहनों को दौड़ाने के लिए निकलते थें. जब दौड़ने के लिए कोइलवर के मैदान में जाते थें तो पूरा फिल्ड खाली हो जाता था सिर्फ हमलोगों को देखने के लिए कि “अरे लड़कियां दौड़ रही हैं….” लड़के बहुत टोंट मारते थें लेकिन हम कुछ सुनते ही नहीं थें क्यूंकि पापा बोलते थें कि – “कुछ मत सुनो, सिर्फ अपने लक्ष्य पर ध्यान दो.” लोग बाद में पापा को कहते थें कि “बेटी को दौड़ा रहा है, जाने कहाँ ले जायेगा….!”
पत्रकारिता का फिल्ड भी मेरे लिए नया था लेकिन जज्बा था कि मुझे कुछ करना है. इस फिल्ड में मेरे एक मित्र ने काफी सपोर्ट किया जिससे बाद में मेरी लव मैरेज शादी हुई. कई जगहों पर रिपोर्टिंग के लिए जाने से पहले वो लाइनअप कर देते थें. तब मैं पटना की आबोहवा से उतनी वाकिफ नहीं थी, उतनी फ्रैंक नहीं थी. लेकिन फिर भी आत्मविश्वास बहुत था इसलिए जहाँ भी गयी मुझे सफलता मिली. शुरुआत में पत्रकारों की भीड़ में से अपने आप को स्थापित करना थोड़ा मुश्किल लगा था. फिर धीरे-धीरे कॉन्फिडेंस बढ़ा. संघर्ष के शुरूआती दौर में पत्रकारिता के भी पहले जब कॉलेज में थी मेरे हसबेंड तब जो मेरे अच्छे फ्रेंड थें पहले मुझे पढ़ाते थें और मैं घर जाकर दोनों बहनों को पढ़ाती थी. क्यूंकि मेरे पास कोचिंग-ट्यूशन के लिए उतना पैसा नहीं होता था.