
यह कला तलवार, ढाल और भाले के साथ खेली जाती है। यह कला आत्मरक्षा, एवं युद्ध कला के साथ-साथ पारम्परिक लोक नृत्य के रूप में जानी जाती है।
यह कला शस्त्रों से परिपूर्ण एक युद्धकला है। इसमें ‘थांग’ शब्द का अर्थ है ‘तलवार’, और ‘ता’ का अर्थ है ‘भाला’ इस कला में तलवार, ढाल और भाले का प्रयोग किया जाता है। यह भी अन्य शस्त्र कलाओं की ही तरह शारीरिक बल एवं बुद्धि का उचित प्रयोग कर, कठिन परिश्रम करके सीखी और खेली जाती है।
अधिकांश यह कला राजा और सैनिकों को सिखाई जाती थी, ताकि वे अपनी एवं जनता की रक्षा कर सकें। लेकिन साथ ही इस कला को ‘पारम्परिक लोक नृत्य’ के साथ भी जोड़ा गया। यह कला ‘शक्ति प्रदर्शन’ के साथ-साथ संस्कृति को भी जीवित रखने में सफल रही। सत्रहवीं सदी में जब मणिपुरी राजाओं ने इस कला का प्रयोग ‘ब्रिटिश’ लोगों के खिलाफ किया तो अंग्रेजों ने इस कला पर प्रतिबन्ध लगा दिया, ताकि कोई भी विद्रोह ना कर सके। तब भी मणिपुरी लोगों ने इस कला को सीखना नहीं छोड़ा, और संघर्ष कर इस कला को मणिपुर प्रदेश में जीवंत रखा।
इस कला को एक अन्य युद्धकला जिसका नाम ‘हुएंन-लेलोंग’ (huyen lallong) से भी जोड़कर देखा जाता है। हालांकि इस कला में ‘कुल्हाड़ी’ एवं ‘ढाल’ का प्रयोग किया जाता है, लेकिन युद्धकला की शैली लगभग एक जैसी ही है। वैसे तो युद्धकला के इतिहासकारों के अनुसार यह युद्धकला ‘मीतेई-रेस’ प्रजाति में ‘कंगलीपैक’ नामक स्थान से ही आरम्भ हुई है, लेकिन इसका और भी प्राचीन इतिहास होने के उल्लेख ‘कंगलीपैक’ साम्राज्य के प्रथम शासक ‘कोचीन तुक्थापा ईपू अथोबा पखागम्बा’ (kochin tukthapa ipu athouba pakhamba) के शासनकाल (2000 ईसा पूर्व) के समय से जाना जाता है। कहा जाता है कि मणिपुर के मिन्गेस निवासियों ने भी कई हजारों वर्षों तक विदेशी आक्रमणकारियों (चीन, बर्मा, तिब्बत आदि) के विरुद्ध अपने राज्य की रक्षा करने हेतु कई युद्ध किये। इसमें एक महान ‘मीतेई’ योद्धा ‘पाओना ब्रजबसी’ (paona brajabasi) का नाम बड़े ही सम्मान से लिया जाता है। कहा जाता है कि इस महान योद्धा ने शत्रु द्वारा छोड़े गए एक बम को हवा में ही फटने से पहले काटकर नष्ट कर दिया था। यह उस सदी में एक महान कला का प्रतीक बना।
इस कला को सीखने के लिए चीनी लोगों के भारत में आने का उल्लेख भी इतिहास में (सन 1562 – 1597) मिलता है। उस समय के मणिपुर के सम्राट अपनी युद्धकला के महान खिलाडियों को चीन में प्रतियोगिता के लिए भी भेजा करते थे। और इस तरह से इस कला का चीन देश में भी विस्तार हुआ। यह कला आज भी मणिपुर के एक पारम्परिक ‘लोकनृत्य’ एवं ‘युद्धकला’ के रूप में जीवंत है।