मेरा जन्म बिहार के मुजफ्फरपुर जिले के छपरा धरमपुर गांव में हुआ. दो-तीन कक्षा तक अपने गांव के स्कूल में पढ़ी. जब मैं 8 साल की थी मेरे पिताजी ने बालिका विधापीठ छात्रावास,लखीसराय में दाखिला करा दिया. उसके बाद वहां से मैट्रिक पास कर एम. डी. एम. कॉलेज, मुजफ्फरपुर से बी.ए. ऑनर्स किया. और एल.एस. कॉलेज से साइकोलॉजी में एम.ए. किया. मैंने 8 वीं में ही थोड़ा बहुत लिखना शुरू किया था. मुझे लगता है मैं बचपन से ही संवेदनशील थी और कुछ -कुछ लिखने के मन में भाव आते थें. अपनी दोस्त लड़कियों के साथ की खट्टी-मीठी यादें, जैसे उनसे किसी बात पर मेरी लड़ाई हो गयी तब उसपर ही कुछ लिख देती थी. लेकिन उसको साहित्य का नाम नहीं दे सकते और शायद इसीलिए मैंने उसे जमा करके भी नहीं रखा. फिर मैं पढ़ाई में ही लग गयी तो लेखन और दूसरी चीजों से मतलब नहीं रहा. फिर कुछ भी नहीं लिखा. समय-समय पर थोड़ी बहुत पैरोडी बनाया करती थी. एम.ए. की परीक्षा देने के बाद मैंने अपने पति प्रो. रामकृपाल सिन्हा जी से पूछा कि “मैं क्या करूँ..?” तो उन्होंने कहा कि “आप कहानी लिखिए.” तो उस समय पति पर ही गुस्सा हो गयी कि “मैं कहानी कैसे लिख सकती हूँ, ये तो बहुत बड़ी बात है.” लेकिन उन्होंने कहा- “नहीं, आप लिख सकती हैं.” फिर मैंने दो कहानियां लिखीं. कहानियां तो ठीक ही थीं, मगर तब मुझे मोतिहारी के महिला कॉलेज में लेक्चरशिप का जॉब मिल गया. जब लेक्चरर हो गयी तो लिखना छोड़ काम में लग गयी. फिर जब मेरे पति 1977 में मिनिस्टर हुए तब मुझे घर में बैठना पड़ा. घर में बैठते हुए फिर से लिखना शुरू कर दिया. और तभी से लगातार लिखते-लिखते अभी मेरी 71 पुस्तकें हो चुकी हैं. जिनमे 8 कहानी संग्रह, 7 उपन्यास, एक कविता संग्रह के अलावा बहुत से लेखों के संग्रह और बहुत सी विधाओं में लिखी रचनाओं की किताबें हैं. पहली किताब कहानी संग्रह थी जिसका नाम था ‘साक्षात्कार’.
अपने स्कूल डेज की बातें मैं पहले अपनी पोतियों को सुनाती थी कि “एक बार छात्रावास में अमरुद तोड़ रहे थें. इधर सहेलियों को कह रखा था कि कोई आये तो तुमलोग नाम लेकर पुकारना फिर हम भागकर चले आएंगे. चूँकि सामने इतना बड़ा-बड़ा अमरुद लटका हुआ था कि देखा नहीं जाता था. तो जैसे ही मैंने हाथ लगाया तभी स्कूल की संचालिका चुपके-चुपके पीछे से चली आयीं. और हुआ ये कि एक तरफ मेरे हाथ में अमरुद है और दूसरी तरफ मेरा कान वो पकड़ी हुई हैं. फिर झट सॉरी बोलकर अमरुद दे दिए.” तब यह स्टोरी सुनकर मेरी पोतियां बहुत हंसती थीं.
पिताजी के साथ के भी बहुत अच्छे संस्मरण हैं. उन्होंने ही मुझे पढ़ाया-लिखाया. मेरी सेंटीमेंट का वे बहुत ध्यान रखते थें. हम तीनो भाई-बहनों में 10-10 साल का गैप था. बहन की तो मैं बेटी जैसी थी. भाई भी दस साल बड़े थें. इसलिए मुझे मायके में भी और ससुराल में भी बहुत प्यार मिला. मैं हमेशा कहती हूँ कि मुझे संघर्ष नहीं करना पड़ा जीवन में, हाँ लेकिन मैंने मेहनत की है. और परिश्रम करने का आपको तुरंत लाभ मिल जाता है. मुझे याद है कि तब माँ की रजाई फट गयी थी, बहन की रजाई भी खराब हो गयी थी. और चूँकि मेरी भी रजाई छोटी हो गयी थी क्यूंकि मैं अब बड़ी हो गयी थी. मैंने पिताजी से कहा कि- “बाबूजी, मेरी रजाई छोटी हो गयी है. फिर क्या था, उसी दिन शाम में पिता जी जो एक टीचर थें, मेरे लिए शहर से नयी रजाई बनवाकर ले आएं. जब रजाई घर में आयी तो माँ-बहन सबको बहुत आश्चर्य लगा कि सबकी रजाई खराब है और सिर्फ इसकी ही रजाई आयी है. मेरी माँ बोली कि ” 6 महीने बाद तो इसकी शादी है फिर आप क्यों इतनी छोटी रजाई लाये हैं. तो वे बोलें- “अच्छा 6 महीने बाद मैं फिर ले आऊंगा, चिंता ना करो.” उस समय घर की आर्थिक स्थिति साधारण ही थी. लेकिन फिर भी मेरी बात को पूर्ण करना पिताजी का उद्देश्य था. उन्होंने केवल पढ़ाया ही नहीं बल्कि उनके लिए मेरा एन.सी.सी. में जाना भी जरुरी था और डांस सीखना भी जरुरी था (तब मैंने कत्थक सीखा था). एन.सी.सी. में पहले रांची कैम्प में गएँ फिर दार्जलिंग के कैम्प में. वो जो सुबह-सुबह उठकर बूट पहनकर दौड़ना होता फिर परेड में शामिल होना होता तो मैं इन सबसे बचने के लिए वहां के हॉस्पिटल में बहाने बनाकर दो-तीन दिन पड़ी रहती कि मेरी तबियत खराब है. 10 दिन का टूर था तो दो-तीन दिन मैं यूँ आराम करके फिर चली गयी कि लड़कियां कहीं मेरी शिकायत ना कर दें.
यंग एज में छात्रावास के दिनों की एक बात बहुत महत्वपूर्ण रूप से याद आती है जब मेरी शादी अपने फ्रेंड्स ग्रुप में सबसे पहले हो गयी थी. तब शादी के तीन महीने ही हुए थें. शादी के बाद दो-तीन दिन ही मैं साथ रही थी फिर पति प.बंगाल चले गए थें तो मैं छात्रावास आ गयी थी. मेरे पति तब बंगाल में प्रोफ़ेसर थें. वे मुझे चिट्ठियां लिखा करते थें. तो जो चिट्ठियां चपरासी के हाथों में मेरी छात्रावास की सहेलियां देखती थीं तो वे खुद उससे चिठ्ठी ले लेती थीं. लिफाफा देखकर ही वो पहचान जाती थीं. फिर चिट्ठी फाड़कर सब पढ़ती थीं. उसके बाद मेरे पास आकर कहतीं कि “मृदुला, तुमको एक चीज देनी है” और तब मेरी चिट्ठी मुझे देती थीं. मेरे पति भी ये बात जानते थें. तब वे भी जानबूझकर सहेलियों के लिए कमला, विमला, ढ़िमला, शिमला कैसी है….इस तरह के हंसी-मजाक लिख देते थें. उन्ही दिनों का एक और इंट्रेस्टिंग प्रसंग याद आता है जब फर्स्ट टाइम वे दशहरे की छुट्टी में छात्रावास आये थें. जब उनके कॉलेज की छुट्टी हो गयी थी और मेरी होनेवाली थी. तब मेरी दोस्तों को मालूम था कि वो आनेवाले हैं. तब होता यूँ था कि चपरासी किसी भी आनेवाले गेस्ट से लिखवाकर लाता था कि किस से मिलना है, फिर सुप्रीडेंडेंट को जाकर दिखाता था. सन्डे का दिन था और वे जब आएं तो उसी तरह चपरासी मेरे पति से भी लिखवाकर ले गया और फिर मेरे पास आकर जैसे ही चपरासी ने बोला “मृदुला बउआ….”. उसका इतना ही बोलना था कि अगल-बगल कमरे से सारी लड़कियां निकलकर मुझे वहीँ छोड़कर मेरे पति के पास भाग गयीं. मुझे थोड़ी शर्म भी आ रही थी और मैं सोच रही थी कि कोई ले जाये मुझे मैं कैसे जाउंगी. जब बाबूजी लोग आते थें तो हमलोग दौड़कर मिलने जाते थें, लेकिन यहाँ बात दूसरी थी. बाद में हमारी दोस्त लोग अभी भी ये कहानी सुनाती हैं कि “जब सभी लड़कियां वहां जाकर इधर-उधर सूचना बोर्ड देखने का नाटक करने लगीं और वे सबको देख रहे थें. बाकी लोग आते थें तो थोड़े शर्माते थें लेकिन ये तो उल्टा देखते हुए लड़कियों को स्टडी कर रहे थें. बाद में उन्होंने कहा कि “सुनिए, आपलोग सूचनाबोर्ड पर कुछ ना देखिये, कुछ नहीं मिलेगा. आप इसके लिए आयी भी नहीं हैं. आप मृदुला के हसबेंड को देखने आयी हैं तो लीजिये आप अच्छी तरह देख लीजिये.” और वे आँख बंद करके खड़े हो गएँ यह कहने के साथ कि “लीजिये मैं आँखें बंद कर लेता हूँ, आपलोग मुझे अच्छे से देख लीजिये.” फिर तो वे सभी शर्माते हुए भागी वहां से. उस घटना के बाद उनकी मेरी दोस्तों के साथ भी अच्छी दोस्ती हो गयी.
एक बार जब हमलोग कॉलेज में क्लास कर रहे थें. सर्दियों के दिन थें. टीचर ने कहा- “चलो धूप में पढ़ते हैं. और भी दो-तीन ग्रुप थोड़ी दूरी पर धूप में बैठकर पढ़ रहे थें. मेरे पति का कोई काम प्रिंसिपल से रहा होगा. तो वे सायकल से आएं और तभी वहां की जूनियर क्लास की लड़कियों ने उन्हें देख लिया. वे लोग उन्हें पहचान गयीं. बोलने लगीं “ये देखो, मृदुला दीदी के हसबेंड आये हैं.” उसमे से दो-तीन लड़कियां चुपके से गयीं और उनकी सायकल पंक्चर करके सारी हवा निकाल दी. वे बेचारे बाहर निकले तो देखा सायकल पंक्चर है. तब उनको मुझसे मिलना नहीं था तो वे मुंह घुमाये और सायकिल को ठेलते हुए हम सभी को टाटा, बाय-बाय करके चले गएँ. चपरासी देखा तो उनके पीछे-पीछे दौड़ा कि “सर, हम आपका सायकल ठीक करा देते हैं.” यह घटना याद आते ही मन को गुदगुदा जाती है.
ससुराल की मेरी बहुत अच्छी स्मृतियाँ हैं जिसपर मैं बहुत बार लिखती-कहती हूँ. एक तो ससुराल में आते ही सबसे पहले चर्चा हो गयी कि बाहर गांव की महिलाओं ने कह दिया “दुल्हन देखने में सुन्दर नहीं है.” उस समय मेरी सास जो बहुत सुंदर थीं, बहुत नाराज हो गयीं. फिर यह कहते हुए सबको भगा दिया कि “चलो, कन्या के सोने का अब टाइम हो गया…जाओ, आपलोग बहुत सुन्दर हो.” वे कहती थीं कि “इसके चेहरे में क्या खराबी है, क्यों सब खराब कह रही हैं…?” बाद में वह मुझसे कहतीं- “नाक छोटी है चिंता मत करो वो बड़ी हो जाएगी. जब जवानी के गाल पिचक जायेंगे तो नाक निकल आएगी. चेहरे में क्या खराबी है, आँख थोड़ी छोटी है, नाक थोड़ी छोटी है, दांत थोड़े ऊँचे हैं……मतलब सबकुछ जो खराबियां थीं वो बोल देती थीं और उसके बाद कहतीं कि “खराबी क्या है.” तो उस वक़्त मेरे हसबेंड के साथ-साथ नन्द-देवर काफी हँसते थें. मैं भी उनकी बातों पर खूब इंज्वाय करती थी.
जब दो बच्चे मेरे हो गएँ तो मेरे पति जो अपनी माँ को दीदी कहते थें (उस इलाके में तब माँ को दीदी और बहन को बहिन कहा जाता था) बोलें- “दीदी, अब पुतोहू के नाक कब निकली…?” सास इतनी समझदार थीं कि शुरू में कहतीं थीं कि “बाद में इसकी नाक निकल आएगी और जब बाद में पूछा गया तो कहीं कि “उसके नाक से हमको क्या लेना-देना…नाक तो छोटी है ही, अब नाक कैसे निकलेगी..?” फिर अपने दोनों पोते की तरफ देखकर बोलतीं “हमारे बबलू-डब्लू का नाक देखो. मेरा पोता सब का नाक बड़ा है ना, पोता सब जब सुंदर हो गया तो अब मुझे बहू की नाक से क्या मतलब है..!”