“घर से दूर नया ठिकाना
अब यही खुशियों का आशियाना,
वो दोस्तों के संग हुल्लड़पन
वो नटखट सा मेरा बचपन,
हाँ अपनी यादें समेटकर
गलियों की खुशबू बटोरकर
दुनिया को दिखाने अपना हुनर
मैं आ गयी एक पराये शहर.”
अक्सर युवा लड़कियां घर से दूर बड़े शहर में कुछ मकसद लेकर आती हैं, अपना सपना साकार करना चाहती हैं. चाहे कॉलेज की पढाई हो या प्रतियोगिता परीक्षा, उसके लिए एक अजनबी शहर में लड़कियों का आशियाना गर्ल्स हॉस्टल से बेहतर क्या हो सकता है. पर दूसरे माहौल में, नए सांचे में ढ़लने में थोड़ा समय लगता है. आईये जानते हैं ऐसी ही हॉस्टल की लड़कियों से कि उनका हॉस्टल का शुरूआती दिन कैसे गुजरा…….
पटना के एक हॉस्टल में रहकर एम.बी.ए. कर चुकी छपरा जिले की रितु तिवारी कहती हैं – मैं 2012 में पहली बार पटना रहने आयी थी. इसी साल मेरा ए.एन. कॉलेज पटना से एम.बी.ए. फ़ाइनल हुआ है. मैंने छपरा में 12 वीं किया और इसके बाद मेरा मन था मैं मैनेजमेंट फिल्ड में जाऊं लेकिन छपरा में वैसा कोई अच्छा कॉलेज था नहीं. तब मेरी एक फ्रेंड ने सजेस्ट किया कि पटना जाओ वहां पर बहुत सारे कॉलेजस के ऑप्शन मिलेंगे. तो फिर मैंने यहाँ आकर सिमेज के बी.बी.ए. क्लास में एडमिशन लिया. साथ में मम्मी-पापा मुझे छोड़ने आये थें. वहां बताया गया कि एक कॉन्टेक्ट का हॉस्टल है तो आप वहां जाइये. फिर सिमेज में ‘संगम‘ गर्ल्स हॉस्टल की ऑनर आंटी आयीं और वे हमलोगों को हॉस्टल ले गयीं. पापा नीचे बैठे थें और मम्मी ऊपर हॉस्टल में गयी इंतजाम देखने, हम रूम में गएँ फिर मम्मी सारा चीज देखकर संतुष्ट हो गयीं. वे सबको बोलकर गयीं कि “फर्स्ट टाइम बेटी बाहर रह रही है ध्यान रखियेगा मेरी बेटी का”. इसके बाद मम्मी-पापा चले गएँ. उस टाइम मैं थोड़ी अपसेट थी. नए-नए हॉस्टल में आये थें, वहां बहुत सारे लोग थें तो सबको देखना-जानना सब यूँ ही ठीक-ठाक चल रहा था. लेकिन जब रात हुई तो फिर रोते-रोते बहुत बुरा फील होने लगा. फिर घर पर कॉल करके सबसे बात की. दूसरे दिन कॉलेज जाना था. फर्स्ट टाइम एक्सपीरिएंस था और वो चीज दिमाग में बैठी हुई थी कि अब स्कूल से निकलकर डायरेक्ट कॉलेज में आये हैं. रात बीती और सुबह हुई, कॉलेज जाना था तो हम गएँ. एक दिन-दो दिन हुए थें, कॉलेज और हॉस्टल लाइफ मेंटेन करने में थोड़ी बहुत प्रॉब्लम हो रही थी. 10 दिन बीत गए उसके बाद जब लगा कि अब कॉलेज में भी हम थोड़ा स्टेब्लिश हो चुके हैं, यहाँ भी स्टेबल हो गए हैं. उसके बाद घर की ज्यादा ही याद आने लगी. सोच रही थी कि इतने दिन घर से बाहर रहे हो गए, कभी ऐसे घर से बाहर मैं अकेली रही नहीं थी. तब ज्यादा फील होने लगा. एक दिन बहुत रोना आया और फिर उधर से फोन करके दीदी-मम्मी सबने समझाया कि “जब गयी हो तो अच्छे से पढ़ाई करो फिर तो छुट्टी में आना ही है.” होली की छुट्टियां होने वाली थीं. जब फर्स्ट टाइम होली में घर गए, आने का मन नहीं हो रहा था. लग रहा था वहीँ फिर वापस जाना है, वहीँ रहना है. घर जाने के बाद सबने कहा “कितनी दुबली हो गयी है, क्या खाना नहीं खाती है हॉस्टल में?” फिर एक महीने के अंदर जब कॉलेज की पढ़ाई का प्रेशर बढ़ा और मैं हॉस्टल में सबसे घुल-मिल गयी तो धीरे-धीरे वो चीजें मेंटेन होने लगीं. और अभी भी जब घर छुट्टी में जाने को होता है तो एक एक्साइटमेंट रहती है. और आने टाइम एक-दो दिन इसी चक्कर में एक्स्ट्रा हो जाता है कि कल -परसो चले जायेंगे क्या जाता है एक-दो दिन में. मैं तो ये सबको सजेस्ट करुँगी कि रहना चाहिए हॉस्टल में. इससे एक्सपीरियंस मिलता है. आना-जाना, बाहर की दुनिया देखना, वो सारी चीजें काफी मैटर करती हैं. आप सीधे कहीं और जाते हैं तो फर्स्ट टाइम में डर लगता है, बाहर एडजस्ट करने में प्रॉब्लम होती है. लेकिन एक्सपीरियंस हो तो कॉन्फिडेंस बढ़ता है. सारे पैरेंट्स को भी सजेस्ट करेंगे कि बच्चों से जो चाहते हैं अपने बल-बुते कुछ करें तो सबसे पहले तो यही तरीका है कि उनको खुद के ऊपर जीना सिखाएं. आजतक कभी कोई सामान नहीं खरीदा था घर पर, यहाँ आकर फर्स्ट टाइम सामान खरीदने वक़्त ऐसा लगा अरे बाप रे ! अब ये-ये सामान भी मुझे खरीदना पड़ेगा. अपनी जो भी पर्सनल यूज की जरुरत का सामान है वो खुद से खरीदी. पहली बार जब खरीदकर ले आएं तो सबसे पहले मम्मी को फोन करके बताएं कि “मम्मी आज मैंने सर्फ-साबुन तक खरीदा है.” अब तो है कि बाहर आना-जाना, अकेले हर चीज करना ये देखकर अब घरवालों को लगता है कि ये खुद से सब कर सकती है. पहले घर के कामों में मुझे बच्ची बोलकर सब कहते कि “इससे नहीं हो पायेगा.” अब घर के भी बाहर के जो काम हैं वो सारा छुट्टियों में जाने के बाद करना होता है. वो चीज काफी बिल्ड अप हुआ है, खुद में कॉन्फिडेंस आया है और हॉस्टल में रहने से ही सब हो पाया.
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