“नाजुक कंधो पर जिम्मेदारी की गठरी ना डालो अम्मा
मुझे पढ़ने दो अभी, बचपन मेरा तुम बचा लो अम्मा..”
शायद कुछ ऐसी ही मिन्नतें करते अपने हमउम्र बच्चों को रोते-बिलखते देखा करती थी वह लड़की…. शायद दकियानूसी परम्पराओं के नाम पर अपनी आँखों के सामने मासूम बचपन को कुचलते देखा करती थी वह लड़की… और शायद मन में उद्वेग, उत्तेजना एवं विद्रोह दबाये हुए बहुत कुछ सोचा करती थी वह लड़की…
यहाँ बात हो रही है बाल विवाह के विरुद्ध जागरूकता फैलाकर अपने गांव वैरई, हाजीपुर (बिहार) में गांव की बेटियों के लिए मिसाल बन चुकी यूनिसेफ की फिल्ड ऑफिसर चंदा ठाकुर की. चंदा जब चौथी कक्षा में थीं तो उस समय यूनिसेफ का कार्यक्रम चला था ‘मुकुल बाल पत्रकार’ जिसमे बच्चे चाइल्ड रिपोर्टर के रूप में जुड़ते थें. जहाँ कहीं गांव में कुछ हो रहा है तो उस पर लिखना होता और फिर उनका एक अख़बार निकलता था जिसमे वो खबर छपती थी. तब वहां से जुड़कर धीरे-धीरे चंदा भी लिखने लगीं. सही मायने में लिखने की कला वहीँ से सीखी और उनका लिखा हुआ छपने भी लगा. चंदा देखतीं कि उनके गांव में बालविवाह का प्रचलन जोरों पर है. वे खुद जब चौथी-पांचवी कक्षा में थीं तभी उनके साथ पढ़नेवाली सहपाठी जिसकी उम्र 14 साल से भी कम थी उसकी शादी हो गयी. दो-तीन साल में उसके दो-तीन बच्चे भी हो गएँ. और उसकी स्थिति अभी ऐसी है कि वो लगातार हॉस्पिटलाइज रहती है. हमेशा उसकी तबियत खराब रहती है. ये सब चीजें देखकर कहीं-ना-कहीं अजीब लगा कि ये सब कैसे हो रहा है..!
जब चंदा 7 वीं- 8 वीं में गयीं तो उस समय उनके गांव में आई.डी.एफ. प्लान संस्था के लोग काम करने आएं. फिर एक ग्रुप बना यूथ क्लब, चाइल्ड क्लब के रूप में तो उसी समय से ये भी ग्रुप से जुड़कर काम करने लगीं. उसी संस्था के माध्यम से अवेयर करना शुरू हो गया चाइल्ड प्रोटेक्शन को लेकर, चाइल्ड मैरेज को लेकर, जेनरल डिस्ट्रीमिनेशन को लेकर. और इसी तरह के आठ एजेंडा थें उसमे. लेकिन मेजर एक्टिविटी के रूप में इनलोगों ने चाइल्ड मैरेज को फोकस किया कि इनके गांव में ये नहीं होना चाहिए और तब ये बहुत ज्यादा हो रहा था. अभी भी पता नहीं चलता और कैसे भी चुप-छुपाकर एक-दो केस हो जा रहे हैं. इसी तरह चंदा की टीम ने इस कार्यक्रम से जुड़कर बहुत सारी शादियां रुकवायीं. दिल्ली में एक प्रोग्राम था जिसमे ओ. आइए.वी. का चयन होना था तो बिहार से भी तीन-चार लोग गए थें जिनमे चंदा भी गयीं थीं. प्लान इण्डिया का जो एडवाइजरी पैनल बना हुआ है तो चंदा भी उसकी मेंबर हैं. वे हमेशा बालविवाह को लेकर अवेयर करती हैं कि अगर आप चाइल्ड मैरेज करते हैं तो उसका क्या-क्या साइड इफेक्ट हो सकता है.
अभी कुछ महीने पहले चंदा ने ऐसी ही एक शादी रुकवाई है. जिस दिन लड़के का तिलक था लड़का खुद इनके पास बोलने आया कि “दीदी. अभी हमको शादी नहीं करनी है.” यह इनके गांव से एक-दो किलोमीटर दूर के गांव का केस था. लड़के की उम्र 16 साल थी और लड़की की लगभग 14 साल, लड़का अभी शादी को राजी नहीं था लेकिन घरवाले यह चाइल्ड मैरेज जबरन करा रहे थें. तब चंदा ने उस लड़के को दिलासा दिलाकर वापस विदा कर दिया. पहले तो चंदा स्वयं-सहायता समूह की कुछ महिलाओं को स्कूटी से पूरे गांव में घूम-घूमकर इकट्ठा की फिर अपनी उम्र के लड़के-लड़कियों को साथ लेकर वहां शादी रुकवाने पहुंची. वहां जाते ही बहुत बड़ा हंगामा हो गया. घरों से इनके विरोध में लाठियां निकल गयीं, पंचायत बैठ गयी. वहां कोलकाता से कुछ लोग तिलक चढाने आये थें. ऐन वक़्त पर उनलोगों का आक्रोश देखकर चंदा की जमा की हुई टीम के लोग डर से गायब हो गएँ. लेकिन उनके साथ तीन-चार कार्यकर्ता डटे रहें और उन सभी ने मिलकर माहौल को सँभालने की कोशिश की. अंततः वो शादी रुक गयी. उस घटना के बाद भी तनातनी बनी हुई थी जिस वजह से बहुत दिनों तक लोगों को डर लग रहा था कि पता नहीं क्या होगा. धीरे-धीरे वो भी शांत हो गया.
हेल्थ एन्ड हाइजीन को लेकर भी चंदा और उनके सहयोगी काम करते हैं. गांव में माहवारी को लेकर बहुत सी भ्रांतियां फैली हुईं हैं जिससे लड़कियों को बड़ी कठिनाईयों का सामना करना पड़ता है. जैसे, माहवारी का कपड़ा जलने से लड़कियां बाँझ हो जाती हैं, अचार छूने से वो सड़ जाता है, गाय को छू देने से गाय दूध देना बंद कर देती है. फूल मुरझा जाते हैं. बहुत सी गलत धरणाएँ प्रचलित हैं जिसे लोग परम्परा की तरह निर्वाह करते हैं कि मेरी दादी ने निभाया, फिर माँ ने निभाया तो अब मैं भी उस चीज को निभा रही हूँ. तो यह प्रचलन पीढ़ी-दर-पीढ़ी चली आ रही थी. इससे लड़कियों के साथ ज्यादती हो जाती थी. उन्हें रसोईघर में नहीं घुसने दिया जाता था. कभी उनको माहवारी के दौरान इंफेक्शन हो गया तो वह कभी खुलकर इस विषय में बात भी नहीं कर सकती थीं. मर्ज को छुपाते-छुपाते इंफेक्शन और भी बढ़कर समस्या खड़ी कर देता था. इस चीज को अवेयर करने का काम चंदा और उनके सहयोगी कर रहे हैं.
अब उसका असर नज़र आने लगा है. अब लड़कियां खुलकर इस समस्या पर बात करती हैं. पूछती हैं, “ऐसे हुआ, वैसे हुआ, दीदी हम अब क्या करें..?” पहले ये महिलाओं के साथ बैठक करके उन्हें समझाती हैं कि “जैसा आप झेली क्या आप चाहती हैं कि वैसा ही आपकी बेटी के साथ भी हो…?” और ये धारणाएं कैसे गलत हैं तर्क देकर उसे भी बताती हैं. आज भी 65 प्रतिशत 14 साल के नीचे की उम्र की लड़कियां ये सब नहीं जानती हैं, उन्हें ये लोग ही समझाती हैं कि पहली माहवारी के पहले वो कैसे तैयार करें खुद को. अगर ऐसा होता है उसके साथ तो वो कैसे अपनी माँ से बात करे…ताकि उनको ज्यादा दिक्क्तों का सामना नहीं करना पड़े.
चंदा बताती हैं कि “क्यूंकि कहीं-ना-कहीं मुझे खुद बहुत दिक्कत हुई थी इस चीज को लेकर. तब हम भी किसी को बता नहीं पा रहे थें. रोते-रोते मेरी हालत खराब हो गयी थी. तब मेरी तबियत बहुत खराब रहती थी. सिर्फ दवाई खाते रहते थें. उसपर माहवारी शुरू हुई तो मुझे लगा कि एक नया प्रॉब्लम शुरू हो गया. हम बिना किसी को बताये दादी की नयी साड़ी फाड़-फाड़कर खत्म कर दिए क्यूंकि तब मुझे कहीं से भी कपड़ा चाहिए था. जब 9 वीं में थी तब पहली माहवारी के समय ऐसा हुआ था. ना ही तब और ना ही अब मेरे गांव में सैनेटरी पैड की कोई व्यवस्था है. एक बार हुआ यूँ कि हम यूज करके कपड़ा ऐसे ही फेंकते जा रहे थें तो पापा आएं और वो सारा गन्दा कपड़ा उठाकर खेत में ले जाकर जला दिए. तब हम बहुत रोते थें यह सोचकर कि यूज किया कपड़ा जल जाने से लड़कियां बाँझ हो जाती हैं और ऐसा मेरे साथ भी होगा. इसलिए इन भ्रांतियों के खिलाफ हम ज्यादा काम करते हैं. छोटी बच्चियों को समझाते हैं ताकि उनको दिक्कत ना हो.” चंदा की टीम में लड़के-लड़कियां साथ में हैं तो उनके साथ काम करने के दौरान गांव के ही अगल-बगल के लोग उनके ऊपर टोका करते थें कि लड़कों के साथ घूमती रहती है. अरे ऐसा है, वैसा है…और बहुत कुछ सुनने को मिलता. लेकिन चंदा का मानना है कि उसके गार्जियन का सपोर्ट उसे है और जब वे इस काम को बुरा नहीं मानते तो वे दूसरों की फालतू बातों की परवाह क्यों करें. चंदा अपना करियर सोशल वर्क में ही बनाना चाहती हैं. भविष्य में खुद का एक एन.जी.ओ. भी खोलना चाहती हैं. और उसके माध्यम से वे दहेज़, बालविवाह, लड़कियों की शिक्षा और स्वास्थ पर काम करना चाहती हैं.