जब हम जवां थें
By: Rakesh Singh ‘Sonu’
By: Rakesh Singh ‘Sonu’
बचपन में मुझेसाहित्य से बड़ालगाव था. शरतचंदके साहित्य नेमुझे भावुक बनादिया. नतीजा यहकि तभी सेफिल्में आकर्षित करने लगीं, नाटक करने काशौक भी पुरानाथा. स्कूल मेंसोच लिया था, या तो आर्मीमें जाऊंगा याफिर फिल्म में. उन दिनों पटनामें हर मॉर्निंगशो में बंगालीफ़िल्में लगती थीं. एक बंगाली मित्रमुझे एक दिनरूपक सिनेमा हॉलमें ले गयाजहाँ ‘पाथेर पांचाली‘ लगी थी. फिल्मके एक दृश्यमें दुर्गा नामकबालिका की मृत्युहो जाती हैतब पूरा हॉलसिसकियों से भरउठा और मैंभी रो रहाथा वह भीबंगला नहीं समझनेके बावजूद. मैंनेमहसूस किया किफिल्म इतनी बड़ीविधा है जहाँभाषा मामूली रोलअदा करती है.
अगले दिनमैं कोलकाता अपनेचचेरे भाई तपेश्वरप्रसाद के पासजा पहुंचा जो‘पाथेर पांचाली‘ में सत्यजीतरे के असिस्टेंटएडिटर थे. पहलेतो भइया नाराजहुए फिर मेरेजिद्द करने परएक दिन साथले जाकर सत्यजीतरे जी सेमिलवाया और कहाकि यह आपकोज्वाइन करना चाहताहै. वे अंग्रेजीमें बोल रहेथे और मैंहिंदी में जवाबदे रहा था. वे बोले किडायरेक्टर बनने केलिए एडिटर होनाज़रूरी है, इसलिएपहले एडिटिंग ज्वाइनकरो. वे बंगलामें अपने एडिटरसे बोले ‘इसेरख लीजिये‘. यहींसे मेरे जीवनका स्ट्रगल पीरियडशुरू हुआ. अगलेदिन मैं स्टूडियोपहुंचा. एडिटर ने मुझेएडिटिंग रूम मेंभेजा और नीचेसे ही वहाँसफाई कर रहेकर्मचारी को बंगलामें आवाज देकरकहा कि ‘ इसको देदो, फर्श पोछेगा.’ मैं अवाक रहगया लेकिन पूरापोछा लगा दिया. एक दिन वहीँमेरी भेंट ऋषिकेशमुखर्जी से होगयी जो तबफिल्म एडिटर थे. उन्होंने मुझसे कुछ सवाल–जवाब कियेफिर संतुष्ट होनेपर मुझे अपनासहायक बना लिया. तीन वर्षों केबाद मैं सत्यजीतजी के साथडायरेक्शन में आगया. इस दौरानमैंने विधा सीखली थी. 70 के दशकमें मुंबई चलागया. वहां कमलेशरजी की कहानीपर ‘डाकबंगला‘ नामकहिंदी फिल्म कापहली बार निर्देशनकिया. अपनी संस्कृतिसे प्रेरित होकर1982 मेंमैंने बिहारी कलाकारोंको लेकर फिल्म‘कल हमारा है‘ बनायी जो बहुतसफल रही.