पटना, “अब आपको पता करना पड़ेगा कि आप प्रेम करते हैं या लोभ. क्यूँकि बहुत सारे लोग जो कहते हैं कि मुझे प्रेम है उन्हें प्रेम नहीं बल्कि लोभ होता है. मैं रचनाकार को बहुत-बहुत बधाई दूंगा कि उन्होंने एक अलग तरीके से इन संबंधों को देखने व दिखाने की कोशिश की है.” उक्त बातें कहीं ए.एन.कॉलेज, हिंदी विभाग के प्रो. कलानाथ मिश्र ने. अवसर था ए.एन.कॉलेज के लायब्रेरी हॉल में एक नवंबर को आयोजित युवा लेखक व पत्रकार राकेश सिंह ‘सोनू’ के पहले उपन्यास ‘एक जुदा सा लड़का’ के लोकार्पण का. दीप प्रज्वलन के पश्चात् कॉलेज के ही युवाओं के समक्ष पुस्तक ‘एक जुदा सा लड़का’ का लोकार्पण किया गया. कार्यक्रम की शुरुआत करते हुए अध्यक्षता कर रहे हिंदी विभाग, ए.एन. कॉलेज के प्रोफ़ेसर कलानाथ मिश्र ने कहा कि “लोकार्पण का दिन जो होता है वो उत्सव का दिन होता है. ये दिन पुस्तक की समीक्षा का दिन नहीं होता, आलोचना का दिन नहीं होता. और सबसे ख़ुशी की बात ये है कि नयी पीढ़ी के रचनाकार ने यह लिखा है. सोनू जी के नॉवेल का नायक एकदम जुदा सा है. जुदा वो होता है जो समझता है अपने को कि मैं इस माहौल से अलग हूँ, जरा हटकर हूँ. उसी की उम्र के और भी लड़के हैं जो लड़की का अश्लील एमएमएस वायरल कर रहे हैं, लड़कियों को छेड़ रहे हैं, प्यार को भोग व फैशन की चीज में तब्दील कर दिए हैं लेकिन वहीँ राज ऐसा नहीं करता बल्कि अपनी उम्र के लड़कों के लिए एक मिसाल बन जाता है. यह पुस्तक युवाओं को जरूर पढ़नी चाहिए और उन्हें यह समझना चाहिए कि यह भूमिका भी कोई बुरी नहीं है.”
मुख्य अतिथि, पटना दूरदर्शन की सहायक निदेशक रत्ना पुरकायस्था ने अपने वक्तव्य में कहा कि “मैं बहुत दिनों से इस पुस्तक के लेखक के साथ जुड़ी हुई हूँ और इनकी हर गतिविधि को मैं बारीकी से देखती रही हूँ, समझती रही हूँ और इन्हें टटोलती रही हूँ. जब पहली बार ये लड़का जुदा सा मेरे दफ्तर में मुझसे मिलने आया तो मैं देखते ही बोल पड़ी थी कि ‘लगता है घायल हो.’ सोनू ने मुझे हतप्रभ होकर देखा क्यूंकि इससे पहले कोई परिचय नहीं, कोई बातचीत नहीं हुई थी. फिर पूछा – ‘आपको कैसे पता चला ?’ मैंने कहा- ‘तुम्हारी उम्र से मैं भी गुजरकर ही यहाँ तक पहुंची हूँ. लेकिन वो समय था कि चुप रह जाना पड़ता था लेकिन आज है कि आसानी से बोल देते हैं ‘आई लव यू.’ समय के साथ बहुत कुछ बदलता रहता है लेकिन सोनू की पुस्तक में बहुत अच्छी बात ये है कि इसका जो नायक है ‘राज’ वो अपनी मर्यादाओं को कभी नहीं तोड़ता, अपनी मर्यादाओं के साथ कभी समझौता नहीं करता. मुझे लगता है कि नई पीढ़ी को सबसे पहले अपने संस्कार पर काम करना चाहिए क्यूंकि अगर संस्कार है तो सबकुछ आपके पास है. आप अच्छे इंसान नहीं हैं तो हर डिग्री, पढ़ाई-लिखाई सब बेकार है. इस पुस्तक में इसी चीज को अलग ढंग से बताने की कोशिश की है राकेश सोनू ने. इस पुस्तक का नायक अपने ऊपर कभी भी राक्षसी प्रवृति नहीं हावी होने देता है. लड़की के साथ होने पर भी कभी अपनी मर्यादा भंग नहीं करता है. अगर आप जुदा सा दिखना चाहते हैं तो आपको एक अलग पहचान बनानी होगी. आप एक बून्द जहर लेना चाहते हैं कि अच्छा सा संसार देखना चाहते हैं, ये आपके ऊपर निर्भर करता है.”
वहीँ कार्टूनिस्ट पवन ने कहा कि- “राकेश सोनू की ये दूसरी किताब का लोकार्पण हो रहा है. सोनू का बेहतरीन पक्ष जो आज भी लगता है कि ये अपने ‘बोलो जिंदगी’ वेबसाइट पर पटना-बिहार के पर्स्नालिटीज के जीवन से जुड़े कई पहलुँओं को लेकर आते हैं. कॉलेज के वक़्त कुछ ऐसी ही किताब हमारे पास भी तैयार होती लेकिन तब वो सिर्फ लव लेटर तक ही सिमटकर रह गयी. अभी वो प्रेमपत्र दो जगह एक-एक बक्सा भरा होगा. एक जिनको लिखा करते थें उनका बक्सा और एक जो मेरे पास आता था वो. लेकिन तब हिम्मत नहीं आयी थी कि इसको सार्वजनिक किया जाये. हमने भी आगे चलकर कार्टूनों की किताब पब्लिश कराई थी और मुझे लगता है कि किताबों का अस्तित्व कभी खत्म नहीं हो सकता, उसकी खूबी है कि वो समय-समय पर स्थानांतरित होती रहती है. तो इस डिजिटल युग में किताब लिखने जैसा साहस करनेवाले युवा लेखक राकेश सिंह ‘सोनू’ को मैं बधाई देता हूँ.
ओरो डेंटल क्लिनिक के निदेशक डॉ. आशुतोष त्रिवेदी ने कहा कि – “राकेश सोनू से मुलाकात तब होती थी जब मैं इनके पिता का इलाज करता था. एक दिन इन्होने आकर कहा कि मैं एक किताब लिख रहा हूँ. मैं चाहता हूँ कि इसके प्रकाशन में आप सपोर्ट करें. तब शायद मुझे यकीं नहीं हुआ. मुझे अच्छा लगा कि आज भी युवाओं में से कुछ ऐसे हैं जो अपनी भावनाओं को शब्दों में पिरोकर किताब लिख सकते हैं. और शायद हमसब अपनी लाइफ को देखते हैं तो कहीं-न-कहीं कुछ-न-कुछ ऐसी बातें जरूर हैं जो कलमबद्ध कर सकते हैं, लिख सकते हैं और फिर उसको पढ़ सकते हैं. लिखने की ये जो प्रवृति है वो धीरे-धीरे खत्म हो रही है, ऐसे में भावनाओं को लिखना और समझना ये अपने आप में बहुत बड़ी बात है. और राकेश सोनू ने ये चैलेन्ज एक्सेप्ट किया है कि मैं अपनी भावनाओं को शब्दों में उतारूंगा. कभी कभी किताब पढ़ते या फिल्मों में डायलॉग सुनते हमें अनायास ही लगता है कि यही बात तो मैं सोच रहा था लेकिन उसे मैं व्यक्त नहीं कर पा रहा था. तो चाहे वो प्रेम के माध्यम से, लेखनी के माध्यम से, संगीत के माध्यम से आपके अंदर जो ऊर्जा है उसको बाहर निकालना बहुत जरुरी है. किताब पढ़ने के बाद मुझे लगता है कि अगर पुस्तक का टाइटल ‘एक जुदा सा लड़का’ की जगह ‘एक लड़का जुदा सा’ होता तो अच्छा लगता. क्यूंकि वह है तो लड़का लेकिन उसकी भावनाएं और उसको व्यक्त करने की जो क्षमता है वो औरों से जुदा है.”
भाजपा कला-संस्कृति प्रकोष्ठ के प्रदेश अध्यक्ष वरुण सिंह एक शेर अर्ज करते हुए कहते हैं- “जो बीत गया वो पल फिर नहीं आएगा. इस दिल में तेरे सिवा कोई और न आएगा. जिंदगी की भागदौड़ से एक उम्र चुरानी है, जिंदगी कुछ भी नहीं तेरी-मेरी कहानी है… ये किताब आप सभी युवा पढ़िए- एक जुदा सा लड़का. जुदा क्यों, लड़के तो छात्र-बच्चे सब हैं फिर ये जुदा क्यों है. तो ये प्रश्न है, वो आप पुस्तक पढ़ियेगा तब समझ में आएगा. और कोशिश करें कि हम अपने अच्छे क्रियाकलापों से सबसे अलग कैसे बनें.”
फिर मंच सञ्चालन कर रहे रविकांत ने लेखक को आमंत्रित करते हुए कहा कि “अपनी बात रखने के लिए मैं आमंत्रित करूँगा पुस्तक के लेखक राकेश सिंह सोनू को क्यूंकि कार्यक्रम के दूल्हा यही हैं.”
राकेश सिंह ‘सोनू’ ने सबसे पहले डॉ. आशुतोष त्रिवेदी जी को धन्यवाद देते हुए कहा कि डॉकटर साहब ने इस पुस्तक के प्रकाशन में सपोर्ट किया है. यह पुस्तक जानकी प्रकाशन (अशोक राजपथ, पटना) से प्रकाशित हुई है. सोनू ने अपने वक्तव्य में कहा कि “‘एक जुदा सा लड़का’ समर्पित है मेरी प्रेमिका को. यूँ तो यह एक काल्पनिक और फिक्शन स्टोरी है लेकिन अगर सच में देखा जाये तो स्टोरी में हमारे आज के समाज के दर्शन हो जायेंगे. इस लघु उपन्यास की कल्पना कभी मैंने अपने कॉलेज के शुरूआती दिनों में की थी, जब सुबह का अख़बार पढ़ने के क्रम में रोजाना महिलाओं एवं बच्चियों के साथ छेड़खानी और बलात्कार की दिल दहला देनेवाली खबरें पढ़कर मन घृणा और क्षोभ से भर उठता था. तब मैं ठीक उपन्यास के नायक राज की तरह ही देवी दुर्गा से मन ही मन ये अराधना करता था कि वे मेरे अंदर ऐसी दिव्य शक्ति दे दें ताकि मैं अपने समाज में पीड़ित हो रही महिलाओं की आबरू बचा सकूँ. हालाँकि ऐसा सोचना मेरा बचपना था लेकिन वो बातें कहीं ना कहीं मेरे जेहन में बैठी हुई थीं जिसकी वजह से इस उपन्यास ‘एक जुदा सा लड़का’ के माध्यम से दिव्य शक्तियों से परिपूर्ण लड़कियों-महिलाओं की हिफाजत करने वाले राज का जन्म होता है.
यूँ तो उपन्यास की कहानी काल्पनिक है लेकिन 25 प्रतिशत मेरी जिंदगी से जुड़ी हुई है इसलिए कि मैं कहानी के नायक राज में खुद को पाता हूँ. क्यूंकि राज और मेरा नेचर बहुत हद तक मिलता-जुलता है. यह उपन्यास सभी वर्ग के लोगों के लिए है लेकिन मुख्यतः यह नयी पीढ़ी और किशोर उम्र के लड़के -लड़कियों के लिए है जो जवानी की दहलीज पर कदम रखते ही बहुत जल्दी और आसानी से फिसल जाते हैं. कहानी के मुख्य पात्र राज और कंचन आज की न्यू जेनरेशन को एक सबक देते हुए उन्हें जिंदगी की राह में कदम-कदम पर फिसलने से बचाते हैं. यही नहीं राज अपने गांव-समाज में व्याप्त दहेज़ प्रथा, नशा एवं बाल विवाह जैसी कुरीतियों और सामाजिक बुराइयों पर गहरा चोट करता है, उन्हें सदा के लिए दूर करके पूरे गांव-समाज को जागरूक करता है. और सबसे बड़ी बात कि राज सबको एक बेहतर इंसान बनने की सीख दे जाता है.
और अंत में मैं बहुत बहुत धन्यवाद देना चाहूंगा अपनी प्रेमिका को जो मुझसे दूर होते हुए भी लगातार मेरी प्रेरणा बनी हुई है. अगर वो मेरी जिंदगी में नहीं आयी होती तो शायद ‘एक जुदा सा लड़का’ कभी अस्तित्व में ही नहीं आता. मैं स्कूल और कॉलेज के दिनों से ही ये कल्पना करता था कि काश मेरी भी कविता-कहानी की कोई किताब प्रकाशित हो और वह पाठकों तक पहुंचे. लेकिन कभी वो सपना साकार नहीं हो पाया. लेकिन जब से ‘वो’ मेरी जिंदगी में आयी वह कल्पना हकीकत का रूप लेने लगी. और आज उसके प्यार और प्रेरणा की बदौलत इस एक-दो सालों में मैं 2 पुस्तकों को प्रकाशित कराने और पाठकों के बीच लाने में सफल हो पाया.”
फिर अध्यक्षीय भाषण के साथ कार्यक्रम का समापन करते हुए प्रो. कलानाथ मिश्र ने कहा कि “रचनाकार का व्यक्तित्व स्वाभाविक रूप से उनकी रचनाओं में प्रतिबिम्बित होता है. तो यह पाठक पर छोड़ देना चाहिए, वही फैसला करेगा कि लेखक कितना अपनी रचना के मुख्य पात्र जैसा है. ये प्रेम जो है वो अपने आप बन जाता है, इसे किसी योजनाबद्ध तरीके से बनाया नहीं जाता. योजना जहाँ हो तो समझ जाएँ उसके पीछे दाल में कुछ काला है. हम कहते हैं कि वो हमे भुला बैठे हैं लेकिन ये सब कहने की बातें हैं, मैं मानता हूँ कि “जब आँखें चार होती हैं मोहब्बत आ ही जाती है.”