
मेरा मायका नेपाल के जयनगर में है, पिता जी जमींदार थें. हमारा एक घर भारत-नेपाल बॉर्डर पर बसे एक छोटे से कस्बे मारर में भी था जहाँ मेरा जन्म हुआ. उस ज़माने में जयनगर में बस की सवारी नहीं थी तो खेत पर जाने के लिए घर से लोग घोड़े पर बैठकर जाते थें. 10 वीं तक मेरी पढ़ाई वहीँ के एक सरकारी स्कूल में हुई. मैं बचपन से ही खेल में अव्वल आती थी. अपने स्कूल की खेल-कूद प्रतियोगिता में फर्स्ट आती थी. जब 8 वीं 9 वीं की छात्रा थी एक बार स्कूल में राजा हरिश्चंद्र का नाटक हुआ, उसमे मैं माँ की बनारसी साड़ी और गहने पहनकर रानी का किरदार निभाई थी. तब कम उम्र में ही बेटियों की शादी हो जाता थी इसलिए बोर्ड एक्जाम देने के बाद ही 1973 में मेरी शादी हो गयी. मैं हाजीपुर में महनार अपने ससुराल आ गयी. तब एक दो महीना ही वहां रहने के बाद मैं पति के साथ पटना शिफ्ट हो गयी. चूँकि मेरे पति का 1970 से ही पटना में दाल का मिल था जहाँ मसूर और रहर दाल बनता था. मेरे ससुर स्व. रामलखन जी के पांच बेटे थें और उन्होंने अपनी ज़िन्दगी में ही पांचों को अलग-अलग जगहों पर सेट करा दिया. एक बेटे को पटना, एक को पूर्णिया, एक को महनार और दो बेटों को पटोरी में भेज दिया. फिर वे खुद सभी के यहाँ घूमते रहते थें. तब पटनासिटी के मीना बाजार हाट के पास हमलोग किराये के मकान में रहते थें और उसी में हमारा दाल का मिल हुआ करता था. मेरे मायके एवं ससुराल में बहुत बड़े-बड़े घर थें. लेकिन किराये के माकन में बहुत छोटे छोटे दो ही कमरे थें फिर भी हमें कभी दुःख का एहसास नहीं हुआ. बाद में व्यापार में हुई आमदनी से मेरे पति ने 1979 में खुद का मकान बड़ी पटन देवी जी के पास बनाया. तब फिर दाल का मिल किराये के मकान से अपने खुद के मकान में शिफ्ट हो गया. मैं पढ़ने में बहुत तेज थी और आगे भी पढ़ना चाहती थी. ससुराल में ससुर जी और पति के सपोर्ट से मैंने जयनगर के ही एक कॉलेज से पत्राचार द्वारा हिंदी में ग्रेजुएशन की पढ़ाई पूरी की. पटना में तब अक्सर गांव-ससुराल के लोग इलाज कराने ,घूमने और मार्केटिंग के लिए आते ही रहते थें. तब सभी की सेवा करने में मुझे ख़ुशी होती थी, परिवार के प्रति एक समर्पण का भाव था. घर हमेशा परिवार से भरा रहता था. कभी-कभी मेरे पति चिंतित हो जाते ये सोचकर कि ये अकेले कैसे सबके लिए इतना काम करेगी. लेकिन मैं उन्हें समझाती कि ‘सब हो जायेगा आप चिंता न करें, इतने लोगों का मुझे प्यार मिल रहा है वह कम है क्या.?’
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अपने पति स्व. वैजनाथ साहु जी के साथ सीता साहू जी के यादगार पल |
मुझे फिल्मों का बहुत शौक रहा है. मायके में भी मैं बहुत फ़िल्में देखा करती और फिर ससुराल आने के बाद भी फ़िल्में बड़े चाव से देखती. तब हर सन्डे पटना के अशोक, रूपक या वैशाली सिनेमा हॉल में पति के साथ फिल्म देखने चली जाती थी. तब मुझमें अमिताभ बच्चन की फिल्मों का बहुत क्रेज था और वहीदा रहमान एवं माला सिन्हा मेरी फेवरेट हीरोइनें थीं. पति को भी फिल्में देखनी पसंद थीं इसलिए एक बार तो ऐसा हुआ कि एक हॉल से हम 3 से 6 की फिल्म देखकर निकले और फिर 6 से 9 की दूसरी फिल्म देखने चले गए. तब फिल्मे देखकर अक्सर होटल में खाना खाकर ही घर लौटते थें. तब मुझे ज़रा सा भी एहसास नहीं था कि हमारी इन खुशियों को किसी की बुरी नज़र लग जाएगी. अब तो फिल्मों का मोह ऐसा छूट गया है कि सिर्फ समाज की भलाई में ही वक़्त देने को दिल करता है.

मेरे पति नेता स्वभाव के थें. चूँकि मेरे ससुर स्व. रामलखन जी भी अपने गांव-समाज के अच्छे नेता हुआ करते थें जिन्हे आस-पड़ोस के गांववाले भी प्रधान जी कहकर बुलाते थें. अक्सर वे गांव के गरीब गुरबों की मदद किया करते थें. तो उन्हीं का संस्कार और परछाई मेरे पति एवं बच्चों पर पड़ गयी. उनकी तरह ही मेरे पति तब मोहल्ले में निस्वार्थ भाव से दूसरों की मदद करने लगें. वे मोहल्ले में सर्वप्रिय थें. इसी वजह से समाज के लोग उन्हें नेता जी कहकर बुलाते थे. लेकिन हमारी ही जाति के वहां के कुछ लोगों से उनकी तरक्की देखी नहीं गयी कि गंगा उस पार का महज 40 साल की उम्र का एक आदमी हमारे बीच आकर इतनी तरक्की कैसे कर रहा है, लोगों के बीच लोकप्रिय बन रहा है और इसी जलनवश 23 जुलाई, 1990 को मेरे पति स्व. वैजनाथ प्रसाद साहू की हत्या कर दी गयी. तब बच्चे बहुत छोटे थें. दो लड़का एवं एक लड़की में से तब बड़ी बेटी बोर्ड का एक्जाम दे चुकी थी, रिजल्ट आनेवाला था. दोनों लड़के डॉनबास्को स्कूल के हॉस्टल में पढ़ रहे थें. पति की अचानक मौत के बाद लगा कि जैसे सबकुछ बिखर जायेगा. तब हम माँ बेटी ही घर में रहते थें. हादसे के बाद ससुराल से हमारे भैंसुर कभी-कभी यहाँ आकर हमारी देखरेख कर लिया करते थें. बिजनेस में भी उन्होंने 2 साल तक हमारी मदद की. फिर कुछ सालों तक मुझे गद्दी पर बैठकर पति का बिजनेस संभालना पड़ा. जब मेरा बड़ा बेटा बोर्ड एक्जाम दे दिया तो बिजनेस में मेरी कुछ मदद करने लगा. फिर जब कॉमर्स कॉलेज में ग्रेजुएशन करने लगा तो उसने पूरी तरह से बिजनेस संभाल लिया. आगे चलकर अपनी मेहनत की बदौलत मेरा बेटा शिशिर कुमार महाराजगंज खाद व्यवसायी संघ का सचिव भी बन गया. उसके बाद मेरी चिंता कुछ कम हुई और मैं पूरी तरह से हाउसवाइफ बन गयी. मेरे स्वर्गवासी पति का सपना था कि मैं भी राजनीति में आकर समाज की सेवा करूँ. शुरू में मुझे राजनीति से कोई लगाव नहीं था लेकिन मुझे पति का सपना पूरा करना था. फिर बच्चों और पति के शुभचिंतक समाज के कई लोगों के सहयोग से मैं वार्ड पार्षद का चुनाव जीत गयी. तब वार्ड चुनावों में पटना में सबसे ज्यादा वोट मुझे ही मिले.
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2017 में चुनाव जीतकर पटना की पहली महिला मेयर बनने की ख़ुशी |
तभी महापौर (मेयर) के चुनाव में भी महिला की आरक्षित सीट से मैंने पर्चा भरा और पहली बार ही चुनाव लड़कर मैं पटना की पहली महिला मेयर बन गयी. मेरे पति के नहीं रहने के बाद भी उनका स्वभाव हमने अपनाया और अपने बेटे के साथ हर किसी को अपनी क्षमता के अनुसार मदद करने लगी. शायद उसी वजह से समाज के लोगों के बीच मेरे और मेरे परिवार की अच्छी छवि बन चुकी थी जो जीत में मददगार साबित हुई. तब हम ये कभी नहीं सोचे थें कि एक दिन वार्ड का चुनाव लड़ेंगे. जब मैं वार्ड चुनाव में घर-घर वोट मांगने जाती तो लोग उल्टा हाथ जोड़कर कहते कि ‘ आप यहाँ आकर वोट मांगने का कष्ट नहीं कीजिये, हमलोग आप ही को वोट देंगे.’ चुनाव के वक़्त तब सबलोग मेरे बारे में यही जानते थें कि मैं घर से निकलती नहीं हूँ. लेकिन मैं प्रचार में दो दो बार सभी के घर पर गयी. उस दौरान मुझे जाननेवाले आश्चर्य करते कि मौसी सब जगह घूमने जा रही है ! मैं तीन-चार घंटे धूप में सुबह 9 बजे निकलती तो 12 -1 एक बजे घर आती थी. फिर शाम में 5 -6 बजे निकलती तो घर आते आते 9 -10 बज जाता था. मेरी टीम के सहयोगी पुरुष सदस्य एक टाइम घूमकर ही पस्त हो जाते थे लेकिन मुझे सुबह-शाम दोनों टाइम घूमने के बाद भी कोई दिक्कत महसूस नहीं होती थी. शायद मेरे पति का आशीर्वाद था मेरे साथ. पहले तो मुझे सिर्फ अपने ही वार्ड के देखरेख की जिम्मेदारी मिली थी लेकिन अब मुझे पटना के सभी वार्डों को देखना है. अब तो मुझे अपने स्वर्गवासी पति का सपना साकार करना है और पटना शहर को स्वच्छ बनाना है.