ओजा (गुरु) गुरुमय गौराकिशोर शर्मा, एक प्रमुख प्रतिपादक और थांग-ता के शिक्षक हैं। 2009 में, उन्हें भारत सरकार की ओर से पद्म श्री सम्मान से सम्मानित किया गया था, जो कि थांग – ता के संरक्षण और उन्नति में उनके योगदान के लिए था। उनके बेटे बिशेश्वर शर्मा, जिन्हें एशिया के युवा आइकन के रूप में सम्मानित किया जाता है, अब इरिग्लम, इम्फाल, मणिपुर में थाग-टा अकादमी चलाते हैं.
थांग ता मणिपुरी युद्धकला –
यह कला तलवार, ढाल और भाले के साथ खेली जाती है। यह कला आत्मरक्षा, एवं युद्ध कला के साथ-साथ पारम्परिक लोक नृत्य के रूप में जानी जाती है।
यह कला शस्त्रों से परिपूर्ण एक युद्धकला है। इसमें ‘थांग’ शब्द का अर्थ है ‘तलवार’, और ‘ता’ का अर्थ है ‘भाला’ इस कला में तलवार, ढाल और भाले का प्रयोग किया जाता है। यह भी अन्य शस्त्र कलाओं की ही तरह शारीरिक बल एवं बुद्धि का उचित प्रयोग कर, कठिन परिश्रम करके सीखी और खेली जाती है।
इस कला का जन्म भारत के मणिपुर प्रदेश में लगभग सन 1891 में ‘मीतेई रेस’ (Meetei Race) नामक प्रजाति में ‘कंगलीपैक’ (‘Kangalipac’) नामक स्थान पर हुआ माना जाता है। वैसे तो प्राचीन युद्धकला के ज्ञाता इस कला को कई हज़ार वर्ष पुराना मानते हैं। लेकिन इस कला का उदगम काल मूलतः रूप से ‘उत्तर पूर्वी भारत’ में मणिपुर राज्य में उस समय हुआ। जब मणिपुर में विदेशियों के (अर्थात अंग्रेजों के) आगमन के साथ-साथ लोग एक स्वतंत्र राज्य की तरह अपना जीवन यापन कर रहे थे। उस समय में भारत और चीन के बीच इस मध्ययुगीन काल में कई छोटे-छोटे युद्ध हुए और उस काल के युद्धों में सैनिकों को भी पारम्परिक प्रकार के (यानि कि हाथों से बने हुए) अस्त्रों-शस्त्रों का ही प्रयोग करना पड़ता था। उस काल में उन राज्यों में कई कुल एवं जातियों के लोगों के बीच में संघर्षपूर्ण जीवन शैली के कारण ही इस कला का जन्म हुआ।
अधिकांश यह कला राजा और सैनिकों को सिखाई जाती थी, ताकि वे अपनी एवं जनता की रक्षा कर सकें। लेकिन साथ ही इस कला को ‘पारम्परिक लोक नृत्य’ के साथ भी जोड़ा गया। यह कला ‘शक्ति प्रदर्शन’ के साथ-साथ संस्कृति को भी जीवित रखने में सफल रही। सत्रहवीं सदी में जब मणिपुरी राजाओं ने इस कला का प्रयोग ‘ब्रिटिश’ लोगों के खिलाफ किया तो अंग्रेजों ने इस कला पर प्रतिबन्ध लगा दिया, ताकि कोई भी विद्रोह ना कर सके। तब भी मणिपुरी लोगों ने इस कला को सीखना नहीं छोड़ा, और संघर्ष कर इस कला को मणिपुर प्रदेश में जीवंत रखा।
थांग ता का महान ‘मीतेई’ योद्धा ‘पाओना ब्रजबसी’ (paona brajabasi – 2000 ईसा पूर्व)
इस कला को एक अन्य युद्धकला जिसका नाम ‘हुएंन-लेलोंग’ (huyen lallong) से भी जोड़कर देखा जाता है। हालांकि इस कला में ‘कुल्हाड़ी’ एवं ‘ढाल’ का प्रयोग किया जाता है, लेकिन युद्धकला की शैली लगभग एक जैसी ही है। वैसे तो युद्धकला के इतिहासकारों के अनुसार यह युद्धकला ‘मीतेई-रेस’ प्रजाति में ‘कंगलीपैक’ नामक स्थान से ही आरम्भ हुई है, लेकिन इसका और भी प्राचीन इतिहास होने के उल्लेख ‘कंगलीपैक’ साम्राज्य के प्रथम शासक ‘कोचीन तुक्थापा ईपू अथोबा पखागम्बा’ (kochin tukthapa ipu athouba pakhamba) के शासनकाल (2000 ईसा पूर्व) के समय से जाना जाता है। कहा जाता है कि मणिपुर के मिन्गेस निवासियों ने भी कई हजारों वर्षों तक विदेशी आक्रमणकारियों (चीन, बर्मा, तिब्बत आदि) के विरुद्ध अपने राज्य की रक्षा करने हेतु कई युद्ध किये। इसमें एक महान ‘मीतेई’ योद्धा ‘पाओना ब्रजबसी’ (paona brajabasi) का नाम बड़े ही सम्मान से लिया जाता है। कहा जाता है कि इस महान योद्धा ने शत्रु द्वारा छोड़े गए एक बम को हवा में ही फटने से पहले काटकर नष्ट कर दिया था। यह उस सदी में एक महान कला का प्रतीक बना।
इस कला को सीखने के लिए चीनी लोगों के भारत में आने का उल्लेख भी इतिहास में (सन 1562 – 1597) मिलता है। उस समय के मणिपुर के सम्राट अपनी युद्धकला के महान खिलाडियों को चीन में प्रतियोगिता के लिए भी भेजा करते थे। और इस तरह से इस कला का चीन देश में भी विस्तार हुआ। यह कला आज भी मणिपुर के एक पारम्परिक ‘लोकनृत्य’ एवं ‘युद्धकला’ के रूप में जीवंत है।