‘गांधी’ फिल्म ने मुझे डायरेक्शन की तरफ आकर्षित कर दिया : किरणकांत वर्मा, भोजपुरी फिल्म निर्देशक

‘गांधी’ फिल्म ने मुझे डायरेक्शन की तरफ आकर्षित कर दिया : किरणकांत वर्मा, भोजपुरी फिल्म निर्देशक
उपमुख्यमंत्री द्वारा बिहार कला पुरस्कार से सम्मानित होते हुए किरणकांत वर्मा

मेरा जन्म आरा के बाबूबाजार मोहल्ले में हुआ था. मेरे पिताजी बिहार सरकार की सेवा में थे लेकिन उनका रंगमंच से शुरू से जुड़ाव रहा है और मेरी जो नाटक, कविता-साहित्य एवं रंगमंच में रूचि है वह पिताजी के कारण ही है…जब हम 5 -6 साल के थे तो पिताजी के साथ नाटक में जाते थें और जब पिता जी को नाटक में नायिका का किरदार निभाते देखते तो हमको बहुत हंसी आती थी. हम नादानीवश उनसे पूछा करते थे कि “बाबूजी रउआ काहे माई नियन साडी पहिरेलीं.” तब हम नहीं जानते थें कि उन दिनों नाटकों के लिए नायिकाओं को ढूँढना कितना मुश्किल हुआ करता था. क्योंकि उस समय रंगमंच में उतनी महिलाएं नहीं हुआ करती थी.

 

 

 

 

       फिल्म डायरेक्शन करते हुए किरणकांत वर्मा

मेरी पढाई लिखाई सातवीं कक्षा तक आरा टाउन स्कूल में हुई उसके बाद हम पिताजी के साथ पटना आ गए. मुझे किसी ने बताया कि डॉ. राजेंद्र प्रसाद यहाँ टीके घोष अकादमी में पढ़े थें तो मैंने पिताजी से जिद्द की कि मुझे भी वहीँ दाखिला करा दें. फिर वहीँ मेरी दसवीं तक की पढाई हुई. 1960 में मैट्रिक किये उसके बाद बारहवीं और फिर बी.एन. कॉलेज से समाजशास्त्र में ऑनर्स किएं. इक्तेफाक से तभी पटना यूनिवर्सिटी में सोशियोलॉजी का वह पहला बैच था और उसमे हम टॉप किये थें. उसके बाद पोस्ट ग्रेजुएट फिर 1967 में लॉ किएं. 1968 में आईपीएस की तैयारी करने लगे और पहली ही बार में रिटेन में हम कम्पीट तो कर गएँ लेकिन इंटरव्यू में नहीं हुआ और तब मुझे इस बात का बहुत दुःख हुआ था. हम हिंदी मीडियम से पढ़े थें इसलिए अंग्रेजी फटाफट बोलनेवाली आदत में नहीं थी. लेकिन आज मुझे इस बात का दुःख नहीं है क्योकि यदि तब मैं आईपीएस बन गया होता तो आज जो ये कविता और रंगमंच से जुड़ाव है वो नहीं हो पाता. उसके बाद पिता जी को बहुत लोग कहते थे कि मैं सरकारी नौकरी में सेट हो जाऊं और पिताजी भी यही चाहते थें. उसके बाद हम बीपीएससी में भी क्वालीफाई किएं फिर हमको मौका मिल गया जनगणना विभाग में और तब हम भी पिताजी की तरह सरकारी नौकरी में रहते हुए रंगमंच, साहित्य और सिनेमा से जुड़ गएँ. बचपन में हम बहुत शरारती थे और किसी न किसी बहाने पिताजी से रोज मार खाते थें. कॉलेज के टाइम हम लोग बहुत मस्ती करते थे. मेरी एक बुरी आदत थी, सिगरेट हम कम उम्र में पिने लगे थे लेकीन जैसे हम काजीपुर मोह्हले में रहते थे तो मोहल्ले के सभी बड़े- बुजुर्गों से छुपा के पीते थे. क्रिकेट हम बहुत खेलते थे, काजीपुर क्रिकेट क्लब की स्थापना हम ही किये थे. नौकरी में आने तक हम क्रिकेट खेलते रहें. उस समय राजेंद्र नगर बस ही रहा था. उन दिनों हमलोग आम के पेड़ पर टिन का एक कनस्तर बांध के रखते थे और खेल शुरू करने से पहले उसको बजा देते थे कि सब लोग सावधान हो जाईये अब हमलोग खेलेंगे. तब खेलना शुरू करते थे लेकिन कभी अनुशासन नहीं तोड़े. शिक्षकों के साथ हमारा रिश्ता शुरू से बहुत अच्छा रहा. याददाश्त मेरी शुरू से बहुत अच्छी रही है और पहली क्लास से लेकर बीए – एमए तक हम जो भी पढ़े हैं आज भी याद है. इसलिए टीचर भी सारे हमसे खुश रहते थें और बदमाशियां मेरी माफ़ हो जाती थीं. जब हम लॉ कॉलेज जाते थें तो एक दिन मूड आया तो खड़ाऊ पहनकर क्लास में चले गएँ. तब रमणी बाबू एक प्रोफेसर हुआ करते थें, जब वो खट-खट की आवाज सुनें तो पहले खूब गुस्साएं कि कौन आया है इस तरह. फिर जब हमको देखें तो प्यार से डांटकर समझाएं कि ऐसा नहीं करो भाई, पढ़ते-लिखते हो तो थोड़ा कायदा-कानून ध्यान में रखो.”

 

‘बोलो ज़िन्दगी; के साथ अपना संस्मरण बयां करते किरणकांत वर्मा

फिल्मों में हम इत्तेफाक से आये क्योंकि हम तो क्रिकेटर बनना चाहते थे. मुझे याद है यूनिवर्सिटी क्रिकेट टीम का जब सिलेक्शन था उसी दिन हमलोग पिकनिक मानाने राजगीर चले गए थे क्योकि हमको तो लगा कि मेरा सेलेक्शन हो ही जायेगा और हम सेलेक्शन में नहीं जाकर राजगीर चले गएँ. बाद में जब लौटकर आएं तो मेरा सलेक्शन नहीं हुआ और तब से क्रिकेट छूट गया. तब हम पटना कलेक्टेरियेट से क्रिकेट खेलते थे. कॉलेज लाइफ से ही रंगमंच पर जाकर बड़े बड़े कलाकारों जैसे, दिलीप कुमार, मनोज कुमार, देवानंद साहब की मिमिक्री किया करते थें. उन दिनों नाटककार सतीश आनंद के साथ हमलोग क्रिकेट खेला करते थे और एक दिन अचानक से राजेंद्रनगर चौराहे पर वह मुझे मिल गया. फिर हमारी बातचित शुरू हुई तो हम पूछे कि “क्या कर रहे हो आजकल ?” तो पता चला कि नाटक कर रहे हैं तो हम हँस दिए फिर वो बोला कि “मजाक लगता है क्या तुमको…?” तो हमने कहा- “और नहीं तो क्या.” फिर वो बोला कि “इतना ही आसान लगता है तो आ जाओ कल और कर के दिखाओ.” हम भी मजाक-मजाक में चैलेन्ज के रूप में इसे स्वीकार कर चल दिए. उस समय वो ‘तुगलक’ नाटक कर रहा था. वो मेरे लाइफ का पहला नाटक था, उसमे मेरा आजम नाम के चोर का रोल था. प्ले के बाद वो आश्चर्यचकित था कि हम इतना अच्छा प्ले कर लेते हैं. तब सतीश ने कहा कि “तुम नाटक क्यों नहीं करते हो..?” हमने कहा “पागल हैं जो नाटक करेंगे, ये तो बस यूँ ही मजाक में हो गया.” फिर जब सतीश मेरे पीछे पड़ गया तो हमने भी कहा- “अच्छा चलो, तुम कहते हो तो कर लेते हैं” और वहां से मुझे नाटक का कीड़ा लग गया.

हम सब लोग तब पटना के डाकबंगला कॉफ़ी हाउस में मिला करते थे जहाँ दिगज्ज कवि- साहित्यकार आया करते थें. उनसे भी बातचीत होने लगी और उनकी शोहबत का ऐसा असर हुआ कि फिर नाटक के साथ-साथ हम कविता लिखने लगे, कवि सम्मेलनों में जाने लगे. लेकिन जब हम पूरी तरह से रंगमंच में काम करने लगें तो फिर कविता लेखन छूट गया.

फिल्म ‘हमार देवदास’ में रविकिशन और मोनालिसा को सीन समझाते हुए किरणकांत वर्मा

उन दिनों मेरे एक मित्र थें योग बत्रा जो दिल्ली दूरदर्शन में थें, वो मुझे ढूंढते हुए आये और कहने लगें कि “विदेश से एटनबरो की टीम आयी हुई है गांधी फिल्म शूट करने.” फिर हमको बोलें कि तुमको उनकी मदद करनी है. फिर दोस्ती में हम चले गए एटनबरो से मिलने जो पटना के होटल मौर्या में ठहरे हुए थें. हम चाह रहे थे कि वो हमको रिजेक्ट कर दे इसलिए हम जानबूझकर उसी तरह से हरकत कर रहे थे. बातचीत के बाद जब मेहनताने की बारी आयी तो हम बहुत ज्यादा पैसा मांग दिए यह सोचकर कि अब तो रिजेक्ट कर ही देगा. लेकिन उसमे भी वो लोग तैयार हो गएँ तब हमको लगा कि अब तो हम फंस गए. फिर हम गाँधी सिनेमा में हेल्पर का काम किये, 13 दिन की शूटिंग थी. जैसे जो उनको चाहिए था हम इंतजाम करते थें. यदि क्राउड जुटानी है तो हम लग जाते थें लोगों को लाने में. तब कॉफी हॉउस में बैठनेवाले अधिकतर चेहरे आपको गाँधी फिल्म में नज़र आएंगे.  फिर भी हमको फिल्म में उतनी दिलचस्पी नहीं जग रही थी लेकिन कैमरा के पीछे रहकर देखते थें कि कैसे शूटिंग हो रही है. फिर रोजाना देखते-देखते फिल्म मेकिंग अच्छा लगने लगा. इक्तेफाक से एक दिन हमारे मित्र शंकर शर्मा हमको बोले कि “आपको फिल्म डायरेक्ट करनी है तो हमने यह कहकर मना किया कि “अरे डायरेक्शन टेक्निकल चीज है हमको उसकी एबीसीडी भी नहीं आती है. लेकिन वो जिद किये और बोले कि “नहीं आपको ही करना है, हम जानते हैं आप कर लीजियेगा.” फिर हम चल दिए डायरेक्ट करने और पहली बार जब हम फिल्म डायरेक्टर के नाते डबिंग रूम में गए थे तो हमको यह नहीं पता था कि डबिंग क्या होती है. जब सिनेमा में आ गए तो नाटक पीछे छूट गया.

 

जवानी के दिनों में अपनी पत्नी के साथ कुछ रूमानी अंदाज़ में किरणकांत वर्मा

 

शादी मेरी 1971 में हुई थी. बारात जा रही थी पटना के पुनाईचक तो खुली जीप में हम दूल्हा बनकर बैठे हुए थें. लेकिन सिगरेट पीने की बीमारी मेरी कम तो हुई नहीं थी. और जब दूल्हे के वेश में जीप में सिगरेट पी रहे थें और जैसे ही पुनाईचक मोहल्ले में मेरी गाडी घुसी तो नुक्क्ड़ पर खड़े दो-चार लड़के हंसकर कमेंट मारे कि “देखो-देखो दिलीप कुमार जा रहा है”.

पुराने दिनों की यादगार तस्वीरें बहुत थीं लेकिन अब मेरे पास नहीं हैं.. इसलिए कि जब मेरी पहली पोलिटिकल फ़िल्म ‘हक के लड़ाई’ हिट नहीं हो पाई तो फ्रस्टेशन में आकर मैंने अपनी लिखी कविताओं की डायरी, रंगमंच से जुड़े दस्तावेज, ट्रॉफियां और पुरानी तस्वीरों को दो बोरों में भरकर गांधी सेतु पुल पर ले जाकर गंगा नदी में फेंक दिया था. जिसका मुझे आज भी बहुत अफसोस होता है.

 

1984-85 की बात है, मुझे आज भी अच्छे से याद है. जब जयप्रकाश बाबू डायलिसिस पर रहते थें और नाटक देखने आये थें…. जयप्रकाश बाबू के सामने भारतीय नृत्यकला मंदिर में ‘सिंघासन खाली करो’ में हीरो का रोल निभाए थे. जब नाटक छूटा तो सिनेमा पकड़ा गया. सबसे पहले हम भोजपुरी फिल्म ‘बबुआ हमार’ का डायरेक्शन किये उसके बाद एक के बाद एक बहुत सिनेमा किए. कुछ साल पहले रवि किशन के साथ फिल्म ‘हमार देवदास’ किएं जिसकी बहुत सराहना मिली. वैसे तो बहुत सारे अवार्ड मिले लेकिन अभी सबसे हाल में बिहार सरकार द्वारा 2017 में लाइफटाइम अचीवमेन्ट अवार्ड ‘बिहार कला पुरस्कार’ भी मिला है.

 

 

About The Author

'Bolo Zindagi' s Founder & Editor Rakesh Singh 'Sonu' is Reporter, Researcher, Poet, Lyricist & Story writer. He is author of three books namely Sixer Lalu Yadav Ke (Comedy Collection), Tumhen Soche Bina Nind Aaye Toh Kaise? (Song, Poem, Shayari Collection) & Ek Juda Sa Ladka (Novel). He worked with Dainik Hindustan, Dainik Jagran, Rashtriya Sahara (Patna), Delhi Press Bhawan Magazines, Bhojpuri City as a freelance reporter & writer. He worked as a Assistant Producer at E24 (Mumbai-Delhi).

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