गम की दहलीज पर नम हुई आँखें मगर आसुंओ को छुपा लेना ही तो है ज़िन्दगी
दर्द के एह्साह पर थम गयी साँसें मगर मुस्कुरा के बढ़ जाना ही तो है ज़िन्दगी…..
यूँ तो इनका नाम है गिरिजा देवी मगर पटना के गौरिया मठ, मीठापुर का बच्चा बच्चा इन्हे पेपरवाली के नाम से जानता है. मीठापुर के आस -पास के इलाकों में गिरिजा देवी 1991 से ही अख़बार बाँट रही हैं. पहले ये काम उनके पति किया करते थे मगर उनकी दोनों किडनी खराब होने की वजह से जब उनका देहांत हो गया तो ऐसे में गिरिजा देवी को खुद को और 5 साल की बच्ची को संभालना मुश्किल हो गया. ले-देकर पति की एक पेपर-मैगजीन की मोहल्ले में छोटी सी दुकान थी उससे भी उनके देवर ने वंचित कर उसमे ताला जड़ दिया और घर से भी निकल दिया. बाद में मोहल्लेवासियों के सहयोग से गिरिजा जी को उनकी दुकान तो वापस मिल गयी मगर जिंदगी के इस दुखद मोड़ पर परिवार व रिश्तेदारों ने उनका साथ छोड़ दिया. खुद ही हिम्मत करके गिरिजा जी ने पेपर हॉकर का काम चुना. छोटी बच्ची को साथ लेकर रोजाना सुबह 4 बजे स्टेशन जाकर अख़बार के बंडल ले आतीं फिर कॉलोनी में पैदल ही घूम-घूमकर अख़बार बांटती. एक बार सुबह-सुबह पेपर बाँटने के क्रम में लफंगों ने मारपीट करके इनका सर फोड़ दिया और पैसे-अंगूठी छीन ले गए. फिर एक बार जब गिरिजा नई-नई साइकल चलाना सीख रहीं थीं उसी दौरान बस से उनका मेजर एक्सीडेंट हो गया फिर दिल्ली एम्स में इलाज कराना पड़ा और कई दिनों तक बेडरेस्ट में रहना पड़ा. लेकिन पूरी तरह से ठीक होते ही उन्होंने अपनी ड्यूटी उसी ईमानदारी और लगन के साथ शुरू कर दी. पेपर की कमाई से ही 1999 में अपने दम पर गिरिजा जी बेटी की शादी कर चुकी हैं. इन्ही अख़बारों के सहारे इनकी ज़िन्दगी बदली इसलिए ये अख़बार ही अब इनकी दुनिया हैं.