शिक्षण संस्थानों में सुसाइड पर सुप्रीम कोर्ट की सख्ती

शिक्षण संस्थानों में सुसाइड पर सुप्रीम कोर्ट की सख्ती

देश में छात्रों की खुदकुशी (सुसाइड) बहुत ही चिंताजनक है। इस संदर्भ में हाल ही में हमारे देश के माननीय सुप्रीम कोर्ट ने स्वत: संज्ञान लिया है। दरअसल, माननीय सुप्रीम कोर्ट ने ग्रेटर नोएडा की शारदा यूनिवर्सिटी और आईआईटी खड़गपुर में छात्रों की आत्महत्या के मामले में गंभीर सवाल उठाए हैं।

सुनील कुमार महला, फ्रीलांस राइटर, कालमिस्ट व युवा साहित्यकार, उत्तराखंड

पाठकों को बताता चलूं कि सुप्रीम कोर्ट ने आईआईटी, खड़गपुर से पूछा कि छात्र आत्महत्या क्यों कर रहे हैं? और संस्थान क्या कर रहा है? सुप्रीम कोर्ट ने शारदा यूनिवर्सिटी के मैनेजमेंट को कोर्ट के दिशा-निर्देशों का पालन न करने के लिए फटकार भी लगाई है। सुप्रीम कोर्ट ने उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल दोनों राज्यों की पुलिस को चार हफ़्तों में स्टेटस रिपोर्ट देने का निर्देश दिया। सुप्रीम कोर्ट ने सवाल उठाया कि- कॉलेज के छात्रों ने पिता को बताया कि उनकी बेटी ने आत्महत्या कर ली है? मैनेजमेंट ने क्यों नहीं बताया? मैनेजमेंट ने सुप्रीम कोर्ट के आदेश का पालन क्यों नहीं किया? क्या पुलिस और अभिभावकों को सूचित करना मैनेजमेंट का कर्तव्य नहीं है? बहरहाल, कहना ग़लत नहीं होगा कि माननीय सुप्रीम कोर्ट का छात्रों की आत्महत्या पर सख्त होना सही ही है, क्योंकि प्रबंधन, प्रशासन लापरवाही का परिचय दे रहे हैं और छात्रों के मानसिक व शारीरिक स्वास्थ्य, उनकी समस्याओं, सुरक्षा की ओर कोई भी ध्यान नहीं दे रहे हैं। वास्तव में, छात्रों की सुरक्षा, खासकर उनका शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य, संस्थानों की पहली नैतिक जिम्मेदारी और कर्तव्य होना चाहिए। यहां यह उल्लेखनीय है कि जस्टिस विक्रम नाथ और जस्टिस संदीप मेहता की बेंच ने छात्रों के मानसिक स्वास्थ्य की सुरक्षा के लिए 15 अहम दिशा-निर्देश जारी किए हैं। बेंच ने कहा कि ये दिशा-निर्देश तब तक लागू और बाध्यकारी रहेंगे, जब तक इस विषय में कोई कानून या नियम नहीं बन जाता। वास्तव में होना तो यह चाहिए कि सभी शैक्षणिक संस्थान छात्र-छात्राओं के मानसिक स्वास्थ्य के लिए एक समान नीति को अपनाएं और इसे लागू करें।

वास्तव में, यह गंभीर चिंता का एवं संवेदनशील विषय है कि आज देशभर में अनेक संस्थान छात्र-छात्राओं के मानसिक स्वास्थ्य के लिए न तो कोई नीतियां ही बनातें हैं और न ही इन्हें ठीक प्रकार से लागू ही करते हैं। शैक्षणिक संस्थानों यह चाहिए कि वे छात्र-छात्राओं के मानसिक स्वास्थ्य के लिए एक समान नीति बनाएं,उस नीति की समय-समय पर समीक्षा करें,उसे अद्यतन करें, इसे संस्थान की वेबसाइट और नोटिस बोर्ड पर सार्वजनिक एवं अनिवार्य रूप से उपलब्ध कराएं। छात्र-छात्राओं की अधिक संख्या वाले संस्थानों को यह चाहिए कि वे अपने यहां प्रशिक्षित काउंसलर (ट्रेंड काउंसलर) , मनोवैज्ञानिक या सोशल वर्कर की नियुक्ति अनिवार्य करें ताकि बच्चों की समय-समय पर काउंसलिंग की जा सके और उनकी समस्याओं का समय रहते समाधान किया जा सके। छात्र-छात्राओं की कम संख्या वाले संस्थानों में रिलायबल (भरोसेमंद) तथा ट्रेंड आउटर मेंटल हेल्थ स्पेशलिस्ट (प्रशिक्षित बाहरी मानसिक स्वास्थ्य विशेषज्ञ) से औपचारिक रूप से सहयोग लिया जा सकता है और छात्र-छात्राओं को मार्गदर्शन और सहायता प्रदान की जा सकती है। सुप्रीम कोर्ट ने कोचिंग संस्थानों समेत सभी शैक्षणिक संस्थानों से कहा है कि वे छात्रों को पढ़ाई के प्रदर्शन (मेरिट के आधार पर) के आधार पर बैच में न बांटने की बात कही है, क्यों कि ऐसा करने से छात्रों में शर्मिंदगी और मानसिक दबाव (मेंटल स्ट्रेस) पैदा होता है। संस्थानों को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि उनके यहां कार्यरत सभी स्टाफ (जैसे कि शिक्षण, गैर-शिक्षण और प्रशासनिक स्टाफ) सदस्यों को वंचित और हाशिये पर खड़े छात्रों के साथ संवेदनशील, समावेशी और भेदभाव रहित व्यवहार करने के लिए प्रशिक्षित हों। सभी शिक्षण संस्थानों में यौन शोषण, उत्पीड़न, रैगिंग और जाति, वर्ग, लिंग, यौन रुझान, दिव्यांगता, धर्म या जातीयता के आधार पर होने वाली बदसलूकी की शिकायतों के लिए एक मजबूत, गोपनीय और सुलभ शिकायत व निवारण तंत्र बनाया जाना आवश्यक है। शिकायतों पर त्वरित कार्रवाई के लिए एक आंतरिक समिति (इंटरनल कमेटी) भी संस्थानों में होनी चाहिए। इतना ही नहीं, कमजोर और वंचित पृष्ठभूमि के छात्रों के साथ संवेदनशीलता से व्यवहार किया जाना चाहिए। दिशा-निर्देशों में यह भी साफ कहा गया है कि छात्रों की सुरक्षा, खासकर उनका शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य, संस्थानों की पहली जिम्मेदारी होनी चाहिए। अगर किसी मामले में समय पर या पर्याप्त कार्रवाई नहीं की गई और इससे छात्र आत्महानि या आत्महत्या जैसा कदम उठाता है, तो यह संस्थान की लापरवाही मानी जाएगी और प्रशासन पर कानूनी कार्रवाई की जा सकती है।

बहरहाल, कहना चाहूंगा कि आज हमारे देश में कोटा, जयपुर, सीकर, चेन्नई, हैदराबाद, दिल्ली, मुंबई जैसी सीटीज में अनेक कोचिंग संस्थान मौजूद हैं, जहां हर वर्ष हजारों लाखों की संख्या में छात्र-छात्राएं नीट, बैंकिंग, आइआइटी जेईई मेन्स और एडवांस के साथ ही साथ अन्य प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी के लिए आते हैं। इन कोचिंग संस्थानों में छात्र-छात्राओं की मेंटल हेल्थ की सुरक्षा बहुत ही आवश्यक और जरूरी है, क्यों कि कोचिंग संस्थानों में तैयारी करते समय घर से दूर रहने की स्थिति में इन छात्र-छात्राओं को अनेक प्रकार की समस्याओं से गुजरना पड़ता है। पढ़ाई का अच्छा खासा दबाव छात्र-छात्राओं पर रहता है। ऐसे में जरुरत इस बात की है कि इन कोचिंग संस्थानों में छात्र-छात्राओं की मानसिक स्वास्थ्य सुरक्षा और रोकथाम के विशेष उपाय लागू किए जाएं। प्रायः यह देखा गया है कि इन सीटीज में छात्रों की आत्महत्या के मामले ज्यादा देखने को मिले हैं, इसलिए इन्हें खास ध्यान देने की जरूरत है। कहना ग़लत नहीं होगा कि कोटा में तो सुसाइड के आंकड़े बहुत ही डरावने हैं।

मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक मार्च 2025 तक ही 10 कोचिंग छात्र आत्महत्या कर चुके हैं। पाठकों को बताता चलूं कि साल 2024 में कोटा से 17 छात्र आत्महत्या के मामले सामने आए थे। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि कुछ समय पहले ही कोटा में आत्महत्याओं के मामलों को लेकर देश की सर्वोच्च अदालत ने राजस्थान सरकार को फटकार लगाई थी और सवाल करते हुए यह पूछा था कि सिर्फ कोटा में ही आत्महत्या के मामले क्यों हो रहे हैं? राजस्थान के कोटा ही नहीं सीकर से भी सुसाइड के मामले सामने आए हैं। जानकारी के अनुसार जुलाई 2025 में ही नीट के एक स्टूडेंट ने कमरे में फंदा लगाकर सुसाइड कर लिया था। उसने 9 जुलाई 2025 को ही सीकर की एक कोचिंग में दाखिला लिया था और मात्र एक दिन ही कोचिंग गया था। अन्य सीटीज में भी हालात किसी से छिपे नहीं हैं। बहरहाल , हाल ही में माननीय सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने छात्रों के मानसिक स्वास्थ्य की सुरक्षा के लिए जो 15 अहम दिशा-निर्देश जारी किए हैं, ये दिशा-निर्देश देश के सभी शिक्षण संस्थानों पर लागू होंगे, चाहे वे सरकारी हों या निजी, स्कूल, कॉलेज, विश्वविद्यालय, ट्रेनिंग सेंटर, कोचिंग संस्थान, रेजिडेंशियल एकेडमी या छात्रावास उनकी मान्यता या संबद्धता चाहे जो भी हो। पाठकों को बताता चलूं कि किसी भी कारण से तनावग्रस्त छात्रों के मानसिक स्वास्थ्य सुरक्षा उपायों, अनिवार्य काउंसलिंग , शिकायत निवारण तंत्र और नियामक ढांचों को अनिवार्य बनाने हेतु ये दिशा-निर्देश जारी किए गए हैं। अच्छी बात यह है कि कोर्ट ने इस संदर्भ में सभी राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों को दो महीने के भीतर नियम बनाने का आदेश दिया है। इन नियमों के तहत सभी निजी कोचिंग संस्थानों का पंजीकरण, छात्रों की सुरक्षा से जुड़े मानदंड और शिकायत निवारण प्रणाली अनिवार्य किए जाने की बातें कहीं गईं हैं,यह काबिले-तारीफ है। इन संस्थानों को छात्र-छात्राओं के मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी सुरक्षा व्यवस्था का पालन भी सुनिश्चित करना होगा। इस संदर्भ में सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार को भी 90 दिनों के भीतर एक हलफनामा दाखिल करने का आदेश दिया है। इसमें सरकार को यह बताना होगा कि दिशा-निर्देशों को लागू करने के लिए अब तक क्या कदम उठाए गए हैं, राज्य सरकारों के साथ किस तरह समन्वय किया गया है, कोचिंग संस्थानों से जुड़े नियम बनाने की क्या स्थिति है और निगरानी की क्या व्यवस्था की गई है। इतना ही नहीं, हलफनामे में सरकार को यह भी स्पष्ट करना होगा कि छात्रों के मानसिक स्वास्थ्य पर काम कर रही नेशनल टास्क फोर्स की रिपोर्ट और सिफारिशें कब तक पूरी होंगी ? कहना ग़लत नहीं होगा कि माननीय सुप्रीम कोर्ट का यह आदेश छात्रों की मेंटल हेल्थ को लेकर भारत के शैक्षणिक ढांचे में एक बड़े बदलाव की शुरुआत है, लेकिन अब देखना यह है कि केंद्र सरकार, विभिन्न राज्यों और विभिन्न संस्थानों द्वारा इसे कितनी गंभीरता से और कब लागू किया जाता है।

बहरहाल, कहना ग़लत नहीं होगा कि आज हमारे देश में छात्रों द्वारा की जा रही आत्महत्याएं चिंताजनक स्थिति पर पहुंच चुकी हैं।एनसीआरबी के आंकड़े बताते हैं कि भारत में हर साल करीब 13,044 छात्र आत्महत्या करते हैं।रिपोर्ट के मुताबिक 2022 में देश भर में कुल 1 लाख 70 हजार 924 लोगों ने आत्महत्या की। साल 2022 में 70,924 में से 13,044 तो छात्र ही थे, जबकि बीस साल पहले 2001 में स्टूडेंट्स की मौत के आंकड़े 5,425 थे। मतलब यह है इक्कीस साल में यह आंकड़ा काफी बढ़ गया। क्या यह चिंताजनक बात नहीं है कि देश में आत्महत्या करने वाले कुल लोगों में छात्रों की संख्या 7.6 फीसदी है ? इसके बाद के वर्षों के आधिकारिक आंकड़े अभी तक जारी नहीं किए गए हैं, लेकिन आशंका है कि यह संख्या बढ़ी हुई हो। कहना ग़लत नहीं होगा कि छात्रों की आत्महत्याओं के पीछे मुख्य कारण शैक्षणिक और सामाजिक-पारिवारिक तनाव व दवाब के साथ-साथ कॉलेजों या संस्थाओं से मदद ना मिलना और जागरूकता का अभाव है। बच्चों के बीच पढ़ाई में लगातार बढ़ती प्रतिस्पर्धा, अंकों की होड़ और बच्चों से माता-पिता/अभिभावकों की बहुत सी अपेक्षाएं भी सुसाइड का प्रमुख कारण बन रहीं हैं। यह विडंबना ही है कि छात्रों की मेंटल हेल्थ को लेकर न तो परिवार(माता-पिता , अभिभावक) ही गंभीर होते हैं, न ही शिक्षण संस्थान। कहना ग़लत नहीं होगा कि हताश, तनावग्रस्त व अवसाद वालों को मनोवैज्ञानिक मदद के सहारे काफी हद तक उबारा जा सकता है। हमारे देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भी मन की बात कार्यक्रम के अंतर्गत ‘परीक्षा पे चर्चा’ (पीपीसी) करते आए हैं। पाठकों को बताता चलूं कि हर साल शिक्षा मंत्रालय के स्कूल शिक्षा और साक्षरता विभाग की ओर से आयोजित इस कार्यक्रम में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी छात्रों के सवालों के जवाब देते हैं। इसके अलावा बोर्ड परीक्षा की तैयारी, स्ट्रेस मैनेजमेंट, करियर और दूसरे विषयों पर भी बात की जाती है, लेकिन बावजूद इसके भी धरातल स्तर पर कोचिंग संस्थान कुछ करने को तैयार नहीं हैं, तो यह विडंबना ही कही जा सकती है। सारा काम सरकार नहीं कर सकती है। जिम्मेदारी सरकार के साथ ही साथ हमारी स्वयं की, अधिकारियों की, प्रशासन की तथा संस्थानों की भी है। छात्रों के मानसिक स्वास्थ्य, काउंसलिंग, शिकायत निवारण और संस्थागत जवाबदेही पर हम सभी को सामूहिकता के साथ काम करना होगा। देश की सर्वोच्च अदालत द्वारा इस मुद्दे पर स्वतः संज्ञान लिया जाना अदालत की सर्वोच्च संवेदनशीलता का द्योतक है।

 

About The Author

'Bolo Zindagi' s Founder & Editor Rakesh Singh 'Sonu' is Reporter, Researcher, Poet, Lyricist & Story writer. He is author of three books namely Sixer Lalu Yadav Ke (Comedy Collection), Tumhen Soche Bina Nind Aaye Toh Kaise? (Song, Poem, Shayari Collection) & Ek Juda Sa Ladka (Novel). He worked with Dainik Hindustan, Dainik Jagran, Rashtriya Sahara (Patna), Delhi Press Bhawan Magazines, Bhojpuri City as a freelance reporter & writer. He worked as a Assistant Producer at E24 (Mumbai-Delhi).

Related posts

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *