मेरी पहली फिल्म थी ‘द्रोहकाल’ जिसके डायरेक्टर थें गोविन्द निहलानी. फिल्म 1994 में रिलीज हुई थी और शूटिंग 1993 में हुई थी. मैं तब कैमरामैन राजन कोठरी का असिस्टेंट था. वो एक फिल्म डायरेक्ट कर रहे थें. वे मुझे छोटे भाई की तरह मानते थें. सबसे पहले मेरे पास आशीष विद्यार्थी आएं. उन्होंने कहा- “अरे गोविन्द जी तुमको खोज रहे हैं.” तो मेरे साथ ऐसा था कि जबसे मैं मुंबई गया हूँ तबसे मेरी जो एक किस्म की दबंगई है वो हमेशा से रही है. मैंने कहा- “हाँ तो खोज रहे होंगे.” और मन में ये भी चल रहा था कि इतना बड़ा डायरेक्टर हमको क्यों खोजेगा. फिर उसके बाद अतुल तिवारी आएं. उन्होंने भी कहा – “अरे गोविन्द निहलानी तुमको खोज रहे हैं.” हम बोले- “अच्छा”. उसके बाद दुबारा फिर आशीष विद्यार्थी आएं. उन्होंने गंभीर स्वर में कहा- “गोविन्द जी खोज रहे हैं, भाई तुम जाते क्यों नहीं, मिलते क्यों नहीं हो. चलो हम लेकर चलते हैं.” तब हमने कहा- “अच्छा हम जाते हैं.”
मैं उनके ऑफिस परेल पहुंचा. तब वे बॉम्बे सेंट्रल बैठे हुए थें, मुझे वहीँ आने को कहा. मैं गया वहां. उन्होंने गौर से देखते हुए पूछा- “तुम हो विनीत ?” मैंने कहा- “जी मैं ही हूँ विनीत.” उन्होंने कहा- “ऐसा तो नहीं देखा था तुमको.” तब एक सीरियल आता था पंकज पराशर का ‘अब आएगा मजा’. उसमे मुझे किसी और गेटअप में उन्होंने देखा था. मैंने कहा- “मैं स्क्रीन पर बदल जाता हूँ, ये मेरा प्रॉब्लम है.” फिर उसके बाद बातें हुईं तो उन्होंने पूछा- “तस्वीर है…?” मेरे पास तब छोटा सा एक एलबम था, मैंने वो उन्हें दे दिया. देखते-देखते उन्होंने 8-9 तस्वीरें निकाल लीं. मैं चूँकि असिस्टेंट भी था तो उस गेटअप वाली तस्वीर भी निकाल लिए थें. मैंने कहा- “ये सब आप लेंगे?” वे मुझे देखकर मुस्कुराएं और बोले- “क्यों, एक तस्वीर दो रूपये 80 पैसे की तो बनती है.” फिर उन्होंने तीन तस्वीर निकाली बाकि दे दिया. मैं चला आया. उन्होंने और कुछ नहीं कहा.
उसके बाद मैं सतारा राजन भाई के साथ शूटिंग पर चला गया. वहीँ राजन भाई ने कहा- “अरे गोविन्द जी का फोन आया था, तुम्हारा स्क्रीन टेस्ट लेना चाहते हैं.” मैंने कहा- “मैं स्क्रीन टेस्ट नहीं देता हूँ, मुझे नहीं देना है.” तब गोविन्द जी का फोन आया कि “नहीं, स्क्रीन टेस्ट नहीं लेना है. स्क्रीन पर तुम नज़र कैसे आते हो ये देखना है.” मैंने कहा- “जब मुंबई आऊंगा तब आपके पास आ जाऊंगा.” फिर उनका फोन आया कि इस दिन आ जाओ तो मैं पहुंचा उनके पास. एक छोटा-सा कैमरा लगा हुआ था. वे मेरे सामने बैठे और पूरा एक सीन बताया ऐसा-ऐसा है. बताने के बाद उन्होंने कहा कि “जब तुम रेडी हो जाओगे तो बताना.” मैंने कहा- “मैं तो रेडी हूँ.” उन्होंने चौंककर कहा- “अच्छा..!” फिर जब उन्होंने कैमरा एक्शन कहा मैंने पूरा सीन कर दिया. फिर दूसरा बताया, तीसरा बताया सब कर दिया. और उसके बाद मैं चला आया.
आने के कुछ दिनों बाद गोविन्द जी का फोन आया कि तुम फिल्म ‘द्रोहकाल’ कर रहे हो.” जब मैं फिल्म की शूटिंग पर पहुंचा तो गोविन्द जी को ना जाने क्यों मेरे ऊपर इतना विश्वास हो गया कि वो एक साथ सीन शुरू होने पर एक-दो टेक नहीं लेते थें बल्कि 5-7 तक ले लेते थें. पहले दिन की ही बात है, उन्होंने पहला टेक लिया, दूसरा लिया…पांचवां- छठा फिर कहा- “और करोगे क्या..?” हमको लगा यार ये तो परीक्षा हो गयी, अब मैं नया क्या करूँगा. मैंने कहा- “अच्छा चलिए.” फिर ट्राई किया. 7 वें टेक में उन्होंने बोला- “बस हो गया.” मेरे और उनके संबंध जो एक्टर और डायरेक्टर के थें वो बड़े अद्भुत थें. वे जब सामने खड़े होते थें मुझे ऐसा लगता था कि मुझे समझ में आ गया है मुझे क्या करना है. और सम्भवतः वह उन गिनी-चुनी फिल्मों में से एक ऐसी फिल्म थी जिसे करने में बड़ा आनंद आया. शायद इसलिए कि वह पहली फिल्म थी या इसलिए कि डायरेक्टर को मेरे ऊपर विश्वास था. मेरे कैरेक्टर का नाम था किशन धानु जिसने रॉकेट लॉन्चर से होम मिनिस्टर को फिल्म में उड़ाया है.
मैं बिहार का हूँ और बिहार में मेरे जीवन में प्यार-व्यार जैसा कुछ था नहीं. कोई स्त्री से संबंध था ही नहीं. तो फिल्म में मेरी पत्नी बनी किट्टू गिडवानी के साथ एक बेड सीन करना था. मेरी हालत खराब. मैंने कहा- “मैं इसमें क्या करूँगा. मैं तो ये जानता ही नहीं हूँ कैसे होगा..?” किट्टू हंसने लगी और बोली- “मैं जो करूँ वही तुम भी करना.” फिर कुछ इंटिमेट सीन हुए. मेरी कुछ समझ में ही नहीं आ रहा था. क्यूंकि ये काम मैंने कभी किया ही नहीं था तो क्या समझ में आता. मेरे लिए यही सीन इतना टफ हो गया कि लोग सेट पर हँसते थें कि “कमाल का एक्टर है यार, लोग ऐसे सीन के लिए तरसते हैं कि भाई अंतरंग सीन मिले और एक ये हैं कि इतना मजेदार सीन करने में इनकी हालत खराब हो रही है…” इसमें किट्टू ने बहुत मदद किया. वह सीन तो अच्छा बन गया लेकिन फिर एडिटिंग टेबल पर डायरेक्टर को लगा कि इस सीन की जरुरत नहीं है तो बाद में वह फिल्म से हटा दिया गया.
एक मेरा टॉर्चर सीन था. श्याम बेनेगल की बिटिया पिया बेनेगल वहां कॉस्ट्यूम देख रही थीं. मैं मेकअप रूम में बैठा हुआ था और अचानक पिया आयीं और बोलीं कि “ऐसा कैसे हो सकता है विनीत..?” हमने कहा- “क्यों क्या हुआ?” वे बोलीं- “तुम न्यूड कैसे कर सकते हो?” हमने कहा- “न्यूड क्या करना है.” वे बोलीं – “वो टॉर्चर सीन न्यूड है.” हमने कहा- ” वो डायरेक्टर का सोचना है ना, मैं न्यूड होकर सीन कर दूंगा मेरा क्या..?” वे बोलीं- “नहीं तुम ऐसा नहीं कर सकते हो.” मैंने कहा- “आपका विषय है, आप कॉस्ट्यूम कर रही हैं तो देख लीजिये.” तब अंत में वो जाकर गोविन्द जी से लड़ीं और बोलीं कि “ये लंगोट पहनेगा.” फिर वो टॉर्चर सीन लंगोट में हुआ. ऐसी ढ़ेर सारी घटनाएं हैं, चूँकि मैं थियेटर का आदमी हूँ तो मुझे वो सारी समस्याएं होती ही नहीं थीं कि मुझे पहनना क्या है. ये मेरे लिए इश्यू नहीं था. इश्यू ये था कि मुझे करना क्या है और कैसे करना है… इसलिए मुझे कभी कोई दिक्कत नहीं हुई. और लोगों ने कहा भी कि पहली फिल्म थी फिर भी बहुत अच्छा किया मैंने.