संघर्ष ही आपकी उपलब्धियां हैं अगर आप सफल हैं : आर.जे. शशि, रेडियो मिर्ची, पटना

संघर्ष ही आपकी उपलब्धियां हैं अगर आप सफल हैं : आर.जे. शशि, रेडियो मिर्ची, पटना

 

मैं पटना का ही रहनेवाला हूँ. मेरी स्कूल से लेकर ग्रेजुएशन तक की पढ़ाई पटना से ही हुई है. हम चार भाई-बहन हैं और दो भाई व दो बहनों में मैं सबसे छोटा हूँ. मेरे पिता जी बिजनेसमैन थें और आज से 16 साल पहले जब हम छोटे थें उनका लिवर क्लोसिस की वजह से देहांत हो गया. मेरी माँ भी किडनी की बीमारी  की वजह से 2014 में हमारा साथ छोड़कर चली गईं. कहते हैं जब आपके ऊपर माता-पिता का साया होता है चाहे आप जॉब क्यों ना कर रहे हों या फिर आप बाल-बच्चेदार हों पारिवारिक जीवन में आपके माता-पिता हैं तो एक बहुत बड़ी शक्ति होती है, मेंटल सपोर्ट रहता है. अगर आप जिंदगी में सफल भी हो गए हैं लेकिन आपके पास माँ-बाप नहीं हैं तो ये जिंदगी का सबसे बड़ा खालीपन है. भगवान ने आपको सबकुछ दिया लेकिन जब आप बहुत कमा रहे हैं, नेम-फेम कर रहे हैं और आपके माँ-बाप यह देखने के लिए नहीं हैं तो फिर मन में बहुत टीस होती है. मैं उस मामले में अभागा रहा क्यूंकि मुझे बहुत छोटी उम्र में पिता जी छोड़कर चले गए और मेरी कामयाबी नहीं देख पाएं. लेकिन माँ ने मेरी सफलता को करीब से देखा, मेरी सफलता से उसे ख़ुशी मिलती थी. लेकिन फिर उसे खो देने के बाद मुझे आज भी जिंदगी में खालीपन सा महसूस होता है. पिता जी का साया जब बचपन में ही उठ गया तो काफी स्ट्रगल झेलनी पड़ी. माँ एक गृहणी थीं और बड़े भाई एक छोटा सा बिजनेस करते थें जिससे हमारा घर-परिवार चलता था. जैसे ही हम क्लास 10 वीं में पहुंचे तो खुद से कमाई करना शुरू कर दिए. एक प्राइवेट स्कूल में पढ़ाने लगें जहाँ से 1500 – 2000  मिलने लगा. एक टाइम था जब हम कार्यक्रमों में स्टेज एंकरिंग के लिए जाया करते थें और लोग मेरा मजाक उड़ाते थें कि नाच-गाने में जाता है, ऐसा करता है, वैसा करता है. तब उस समय हमको लगता कि अरे यार बड़ा टफ है, कैसे लोगों के बीच जायेंगे, कैसे आगे बढ़ेंगे. लेकिन फिर भी कहते हैं ना कि हँसता घर ही बसता है. लोग आपके लिए तालियां बजायेंगे तभी आपका नाम होगा. मेरे दादा जी का कहना था कि ‘बेटा तमाशा देखो नहीं, तमाशा बनो. तमाशा बनोगे तभी तुम्हारे लिए लोग तालियां बजायेंगे. नहीं तो तमाशा देखनेवालों की भीड़ में खड़े रह जाओगे फिर तुम्हारी पहचान कभी नहीं बन पायेगी.’

आर.जे.शशि जब हाई स्कूल के स्टूडेंट थें 

जब पिता का साया रहता है तो बचपन में आपको हर चीज आसानी से मिल जाती है. लेकिन जब वही साया उठ चुका होता है तो उस समय से ही आपके पास खुद्दारी चली आती है कि जिनसे मांगने का अधिकार था वो तो चले गए, अब आपको खुद से करना है. तो हम जानते थें कि मेरी माँ के पास उतने पैसे नहीं हैं कि वो मेरी और जरूरतों को भी पूरी करें इसलिए तब मेरा शौक कब मेरी जरुरत बन गयी मुझे एहसास भी नहीं हुआ. कलाकारी तो बचपन से थी ही मेरे पास. तब मेरे घर के पड़ोस में एक इमाम साहब रहते थें वहां जाकर मैंने उनसे उर्दू सीख ली. फिर जब स्टेज पर माइक में बोला करते तो भारी-भरकम आवाज निकलती. लोग बोलते कि ये कौन लौंडा है जो एकदम बड़ों जैसा बोल रहा है. डिमांड थोड़ा बढ़ने लगा. उस समय एक शो का 300 -400, बहुत ज्यादा हुआ तो 500 मिल जाता था. जब आप स्ट्रगल पीरियड में रहते हैं तो मार्केट में बने रहने के लिए बहुत सी चीजें सीखने को मिलती हैं. बहुत जगह ताली तो बहुत जगह गाली मिलती है. संघर्ष आपको हर एक जगह करना है. तब संघर्ष में भी आप मजा कीजियेगा तभी आप मजेदार व्यक्ति बन सकते हैं. अगर मैं अपने आज की बात करूँ तो लगेगा कि अब मेरा संघर्ष नहीं है लेकिन ऐसा नहीं है, हमने अगर संघर्ष करना छोड़ दिया तो इसका मतलब कि हम रिटायर्ड हो चुके हैं. आज भी जब हम रेडियो मिर्ची से बोलते हैं तो दिमाग में भी एक संघर्ष चल रहा होता है कि हमें कौन सी ऐसी चीज बोलनी है कि सुननेवाले इंजॉय करें, हंस पड़ें. तो स्ट्रगल चलता रहता है. तब बचपन में जो पैसे स्टेज शो से मिलते थें वो पढ़ाई पर, कपड़ों पर, छोटी छोटी खुशियों पर खर्च करते थें. स्टेशन के फुटपाथ पर का शर्ट भी खरीद लिए तो बड़ा खुश हो जाते थें. टी-शर्ट दो आ गया तो बड़ा खुश हो जाते थें. धीरे-धीरे खुद की कमाई से खुद पर खर्च करने की जब आदत पड़ जाती है तो बड़ा कॉन्फिडेंस आता है इसलिए हर किसी को स्ट्रगल करना चाहिए. अगर जो चीज आसानी से आपको मिल जा रही है तो समझिये आप बहुत जल्द रिटायरमेंट की तरफ जानेवाले हैं. ऐसे में हम संघर्ष को याद करते हैं तो दुखी नहीं होते हैं. सोचते हैं कितना मजेदार दिन था. फिर धीरे-धीरे मैंने अपनी पढ़ाई भी पूरी कर ली. ग्रेजुएश करने के बाद दिल्ली चला गया वहां मास कम्युनिकेशन करने लगा और फिर एक निजी न्यूज चैनल में इंटर्नशिप शुरू हो गयी. उसी चैनल के जरिये मैंने एक ख्याति प्राप्त नेशनल न्यूज चैनल में फ्रीलांसिंग करनी शुरू कर दी. वहां असिस्टेंट प्रोड्यूसर और वॉइस आर्टिस्ट भी रहा. 2006 में अचानक मैंने देखा कि रेडियो मिर्ची का ऐड आया है. हमारे न्यूज चैनल के बहुत सारे दोस्तों ने कहा कि ‘यार ये जो तेरी आवाज है वो सिर्फ और सिर्फ रेडियो मिर्ची के लिए ही हो सकती है.’  तभी उसके पहले की एक घटना मुझे याद आ गयी. स्टेज एंकरिंग मैं क्लास 7 से ही करते आ रहा था. उस समय से ही मैं बाहर-बाहर बड़े-बड़े कार्यक्रमों में शिरकत करने जाया करता था. तो न्यूज चैनल में आने से पहले यानि 14 साल पहले अचानक मुझे एक बड़े कार्यक्रम में एंकरिंग करने के लिए दिल्ली जाना पड़ा. वहीँ खाना खाते समय जितने भी बड़े बड़े ऑफिसर थें उनकी पत्नियां मेरे पास आयीं और बहुत गुस्से में कहने लगीं  ‘अरे इतनी अच्छी आवाज है तुम्हारी, तुम रेडियो मिर्ची में क्यों नहीं जाते?’  मैं चौंक गया कि इतने गुस्से में क्यों बोल रही हैं. तब मैंने रेडियो मिर्ची का नाम भी नहीं सुना था. मैंने ऐसे ही घबराकर कह दिया ‘हाँ-हाँ जाना चाहिए.’ लेकिन जब चैनल में काम करते हुए वो ऐड देखा और दोस्तों ने भी कहा तब ध्यान आया कि अच्छा तो वे महिलाएं इसी रेडियो मिर्ची के बारे में बता रही थीं. फिर दोस्तों के कहने पर 2006 में मैं मौर्या होटल इंटरव्यू देने गया जहाँ मुझे उनलोगों ने बोलने को कहा. उसके बाद कहा गया कि आप ऑडियो टेस्ट के लिए चले आओ. मैं ऑडियो टेस्ट के लिए पहुंचा तो देखा वहां पर बहुत लम्बी कतार लगी है. बहुत लोग आकाशवाणी और दूरदर्शन जैसी जगहों से ऑडियो टेस्ट के लिए आये हुए थें. जब वे मुझसे लगातार सवाल पूछे जा रहे थें तो बार बार यही बोल रहे थें ‘अब अपनी आवाज में बोलो.’ मैंने कहा- ‘मेरी यही आवाज है.’ तो वे बोले – ‘देखने में छोटे हो और इतनी भारी आवाज कैसे हो सकती है !’ हम बोले- ‘यही वजह है कि मेरा ऑडियो और वीडियो मैच नहीं करता है.’ तब उन्होंने कहा – ‘आजतक हमने बहुत आवाजें सुनी हैं मगर इतनी कम उम्र में इस तरह की आवाज वाकई नहीं सुनी थी.’ फिर उन्होंने कहा कि ‘गेट रेडी फॉर मिर्ची.’ फिर दूसरे ही दिन एच. आर. से फोन आ गया और हम अहमदाबाद के मुद्रा इंस्टीच्यूट ट्रेनिंग के लिए चले गए. वहां बहुत कड़ी ट्रेनिंग थी लेकिन उत्सुकता के साथ मजा आ रहा था. फिर इंडक्शन के लिए कुछ दिन दिल्ली में रखा गया. वहां पर अलग अलग प्रदेश के पंजाब, दिल्ली, गुजरात आदि जगहों से लोग आये थें क्यूंकि अलग-अलग प्रदेशों में सभी एफ.एम.एक साथ खुल रहे थें. ट्रेनिंग में उनलोगों को मेरा बिहारी टोन सुनने में बड़ा मजा आता था. यहाँ तक कि हमारे एच.आर भी एक दिन मुंबई से अहमदाबाद पहुँच गए मुझसे मिलने. बात ये थी कि एच. आर. मुझे ट्रेनिंग में आने से पहले रोज फोन किया करते थें और रोज एक ही सवाल पूछते – ‘हाँ-हाँ तो कैसे कैसे जाना होगा शशि जी?’ रोज हम उनको बताते कि ‘सर ऐसा करेंगे कि ट्रेन पकड़ेंगे और फिर वहां से फ्लाइट पकड़कर चले आएंगे कोई दिक्कत नहीं है.’ और एकदम ठीक 5- 5 : 30 बजे शाम को उनका कॉल आ जाता था जो लगभग 20-25 दिन तक आया मेरे पास. तो मैंने उन्हें अहमदाबाद में सामने से पूछा कि ‘सर तब आप एक ही चीज पूछने के लिए रोज क्यों फोन करते थें?’ वे बोले- ‘मैं अपने मोबाईल को स्पीकर पर रखता था और पूरे ऑफिस को तुम्हारी आवाज सुनाता था. फिर इतना मजा आता था तुम्हारा टोन सुनकर कि मत पूछो, हमलोग हँसते हुए कहते कि ये है बिहारी पकड़ शशि की. यार, तभी से मैं तेरे को देखने को तरस रहा था कि कौन है ये बंदा ! इसलिए मैं सिर्फ तुझसे ही मिलने के लिए यहाँ आया हूँ. पंजाबी, गुजरती तो आप कहीं पर भी सुन लोगे,  लेकिन खांटी बिहारी जो टोन होता है, जिस टोन में तुम बात करते हो वो सुनने के लिए हम रोज जब मूड ऑफ होता बस तुम्हें फोन लगा के स्पीकर ऑन कर दिया करते थें. और हमलोगों का मूड एकदम फ्रेश हो जाता था.’

‘बोलो ज़िन्दगी’ के लिए अपना संस्मरण बयां करते आर.जे.शशि

जब फेस टू फेस मुलाकात हुई तो सर बहुत खुश हुए और बोले – ‘तुम्हारी आवाज सुनकर ऐसा लगता कि कोई भारी-भरकम पर्सनालिटी होगी, लेकिन तुम तो देखने में बच्चे जैसे हो.’ फिर वहां हंसी-मजाक के माहौल में वो कड़ी ट्रेनिंग भी पूरी हो गयी. फिर इंडक्शन में वहां से हम दिल्ली गए जहाँ हमलोगों की ऑन एयर ट्रेनिंग हुई. तब मैं दिल्ली में रहते हुए एक पॉपुलर म्यूजिक कम्पनी में जाता और कैसेट के पीछे अपनी आवाज देकर अपना खर्च निकाल लेता था. रात में हमलोग 11 बजे रेडियो मिर्ची में बोला करते थे. हमने सोचा रात में कम लोग सुनते हैं तो एक कॉल नंबर बताया था. लेकिन इतने फोन आने शुरू हो गए कि मत पूछिए. तब बहुत बिहारी भाइयों का फोन आ जाता था. ‘ए शशि भाई, हियाँ चले आये.’ हम बोलते- ‘हाँ हियाँ पर आ गएँ.’  कोई बोलता ‘अरे शशि भाई, आप रेडियो मिर्ची पटना में नज़र आइयेगा. अरे हमलोग जब पटना आएंगे तो सुनेंगे भाई.’ तब उनकी बातें सुनकर बहुत बढ़िया लगा.  उधर दिल्ली वाले आश्चर्य में कि बताओ, एक बार इसने कॉल किया और देखो धड़ाधड़ लोगों के कॉल पहुँच रहे हैं.’ तब जितने भी टैक्सी-ऑटोवाले बिहारी थें वे सुनते थें और उन्हें लगता कि ‘अरे मेरा भाई मिर्ची में जायेगा और बोलेगा.’ फाइनली दिल्ली से हमलोग पटना आये और अप्रैल 2007 में रात के ठीक 12 बजकर 1 सेकेण्ड पर रेडियो मिर्ची को पटना में ओपन कर दिया गया.

आर.जे. शशि रेडियो मिर्ची में शो के दौरान गायक
दलेर मेहंदी और अभिनेता मनोज वाजपेयी के साथ 

उसके बाद 2007 से हमारी शुरुआत हुई इन मशीनों में घिरे हुए तब से लोगों को खुश करते हुए अपने अंदाज में ये सफर चल रहा है. फर्स्ट प्रोग्राम था ‘टोटल फ़िल्मी’ जिसमे फिल्मों के बारे में बताते थें. अभी दोपहर का शो करते हैं 2 से 5 ‘मीठी मिर्ची’ और एक कॉमेडी शो है ‘ले लोट्टा’. मेरा हमेशा से यही मानना रहा है कि इंसान को खुश रहना या खुश करना बहुत जरुरी होता है. अगर आप खुश नहीं हैं तो इसका मतलब कि आप कहीं ना कहीं अपने आपको मिस कर रहे हैं, मतलब आप अपनी जिंदगी घटा रहे हैं. कम से कम हमारी वजह से दो-चार साल भी लोगों की जिंदगियां बढ़ जाएँ तो बहुत बड़ी बात है. क्यूंकि जो हमारे लिस्टनर हैं वो हमारे दोस्त होते हैं. उन्हें भी लगता है कि हमारा एक दोस्त यहाँ से बात कर रहा है इसलिए उसे सुनो. एक रेडियो जॉकी के लिए सबसे बड़ी तैयारी ये करनी होती है कि रास्ते में आप चल रहे हैं तो हर चीज को बारीकी से ऑब्जर्ब करें ना कि सिर्फ अपने महंगे जूतों को ही देखते रह जाएँ. इसलिए हम कार से ज्यादा बाइक से चलना पसंद करते हैं ताकि आस-पास हर चीज को बारीकी से देख सकें, उसे महसूस कर सकें. तब हम सोचते हैं कि यह आदमी जो जा रहा है अगर इसकी जगह हम खुद होते तो क्या होता. तो जरा सा हर इंसान अपनी जगह पर किसी वस्तु या किसी व्यक्ति को रखकर देखे ना तो उसकी फिलिंग को पकड़ सकता है. हमें अपडेट रहने के लिए पढ़ना भी पड़ता है. पढ़ने का मतलब किताबें ही नहीं बल्कि कुछ भी न्यूज, जानकारी चाहे वो इंटरनेट, मोबाईल पर ही क्यों ना पढ़े. और पढ़ने से भी ज्यादा जरुरी है उस चीज को समझना. आप किसी टॉपिक में मिर्च मसाला डाल रहे हैं तो आपके पास खुद-ब- खुद शब्द चले आएं. मतलब खाना तैयार है और आपको उसे लोगों के सामने परोसना है. उसे परोसने में थोड़ा ह्यूमर, थोड़ा इमोशन भी होना चाहिए. यहाँ हम किसी की तकलीफ को मजाक के रूप में नहीं उड़ा सकते. जब लाइव कॉल करता हूँ तो बहुत से ऐसे लोगों से भी बातें होती है जो डिप्रेशन में रहते हैं. कोई पढ़ाई को लेकर डिप्रेश रहता है तो उसे हम अपना एक्जाम्पल देते हुए समझाते हैं कि आई वाज नॉट गुड स्टूडेंट. लेकिन हमने हर चीज तजुर्बे से सीखी है. हर जगह से हर चीज को एडॉप्ट किया है और मेरे ख्याल से आज डिग्री के बजाये यही करना ज्यादा जरुरी होता है.
जब मुझे कोई अवार्ड या एचीवमेंट मिलता है तो रात को सोते समय यही सोचता हूँ कि काश पापा होते तो देखते, माँ होती तो देखती. याद करते हैं जब पापा के समय शो करने जाते तो घर में अक्सर डाँट सुनते थें. आस-पास के लोग पापा को भड़का देते कि ‘ये पढ़ाई-लिखाई नहीं करता है, ऑलकेस्ट्रा में जाता है.’  तो पापा नजर रखते थें कि मैं भागा तो नहीं. एक बार हम खिड़की के रास्ते कपड़ा निकाले और पापा की नज़र बचाकर नौ दो ग्यारह हो गएँ. जब ढूँढना शुरू हुआ तब पता चला कि मैं शो के लिए नेपाल भाग गया हूँ. पापा को फ़िक्र रहती थी कि हम पढ़ाई में खराब ना करें. लेकिन तब हम स्कूल में पढ़ने में भी स्ट्रगल करते थें कि किसी तरह पास कर जाएँ. पहले स्टेज शो शौक था लेकिन पापा के नहीं रहने के बाद वो शौक मेरी जरुरत बन गयी. तब माँ डांटती तो नहीं लेकिन बहुत चिंता करती थीं कि अकेले दूर जा रहा है, रात को आ रहा है इसलिए वो खिड़की के पास खड़े होकर मेरा इंतजार करती थी. जबतक हम रात में नहीं लौटते तबतक वो भी खाना नहीं खाती थी. और फिर जब मैं जॉब में आया, स्थिरता आ गयी, बाहर आना जाना बंद हो गया तब माँ को बहुत सुकून मिला यह सोचकर कि अब बेटा सेट हो गया है. तब हम अपने कमाए पैसों से माँ के लिए घर बनवा रहे थें, उसी समय उनका देहांत हो गया तो मन बहुत उदास हो गया. मुझे याद है जब मेरी माँ मार्केट में सब्जी लेने जाती तो मार्केट में उसे 2 -3 घंटे लग जाते थें. होता ये था कि लोग उसे घेर लेते और उसे रिस्पेक्ट देते हुए अपनी अपनी समस्या बताते कि अपने बेटे को बोलियेगा तो काम हो जायेगा. और फिर लौटकर माँ आती और उनकी पैरवी करती तो कभी कभी मैं लोगों के काम करवा देता था. तब हमारे गांव के मुखिया जी को आराम मिलता और मुझे ज्यादा मेहनत हो जाती थी. तो ऐसे में जब आपसे लोगों का एक्सप्टेशन बढ़ जाता है तब उनकी कसौटी पर खरा उतरना भी एक तरह का स्ट्रगल होता है.

About The Author

'Bolo Zindagi' s Founder & Editor Rakesh Singh 'Sonu' is Reporter, Researcher, Poet, Lyricist & Story writer. He is author of three books namely Sixer Lalu Yadav Ke (Comedy Collection), Tumhen Soche Bina Nind Aaye Toh Kaise? (Song, Poem, Shayari Collection) & Ek Juda Sa Ladka (Novel). He worked with Dainik Hindustan, Dainik Jagran, Rashtriya Sahara (Patna), Delhi Press Bhawan Magazines, Bhojpuri City as a freelance reporter & writer. He worked as a Assistant Producer at E24 (Mumbai-Delhi).

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