लोगों ने टोका था मुझे कि कबाड़ का बिजनेस औरत नहीं करती है : किरण, कबाड़ीवाली

लोगों ने टोका था मुझे कि कबाड़ का बिजनेस औरत नहीं करती है : किरण, कबाड़ीवाली

हमारा बचपन बहुत दर्दनाक गुजरा. जब मेरी उम्र 8 साल की थी मेरे पापा का देहांत हो गया. सदमे से मेरी माँ दिमागी संतुलन खो बैठी. समझ में नहीं आ रहा था कि हमलोगों की परवरिश कैसे होगी. हमारे चाचा लोगों का हमलोगों के प्रति व्यव्हार अचानक बदल गया. वो लोग तीन-चार रोटी देते तो उसी में हम तीनो बहनें खाती थीं. फिर जब हमारी माँ ठीक हो गयी तो अस्पताल में काम करने लगी. वहां से जो भी कमाकर लाती तो थोड़ा बहुत खाने-पीने पर खर्च होता. स्कूल के प्रिंसिपल बोले कि “हमारे पिता अच्छे थें. अब जब नहीं रहें तो हमलोगों का फर्ज बनता है कि उनके बच्चों को पढ़ाएं. तीन बचा फ्री में पढ़ेगा तो हमलोगों का लॉस नहीं होगा.” बाद में जब हमलोग ५ वीं क्लास में गएँ तो फिर स्कूलवालों के मन में बदलाव आने लगा क्यूंकि हमारे साथ अच्छे ढंग से बात नहीं किया जाता था, भेदभाव किया जाता था. तब हमलोग घर आकर रोते थें, माँ से कहते कि हम स्कूल नहीं जायेंगे. बाद में हम सरकारी स्कूल बांकीपुर में गएँ तो वहां मेरा एन.सी.सी. में चुनाव हुआ. लेकिन हमारे चाचा लोग उसमे करने नहीं दिए और स्कूल जाना भी छुड़वा दिए. तब हमलोगों का भाड़े पर 25 रिक्शा चलता था लेकिन पिता के नहीं रहने पर चाचा लोग धीरे-धीरे करके बेच दिए. उनके अपने बच्चे बैठे रहते थें और वे हमलोगों से अपना काम कराते थें. फिर चाचा लोगों ने हमारी माँ को बहुत मारना-पीटना शुरू कर दिया. हम तीनों बहनों को घर में बंद कर देते थें. जब हम 12-13 साल के हुए तो हमसे माँ को प्रताड़ित किया जाना बर्दाश्त नहीं हुआ. एक बार आधी रात में वो माँ को मार रहे थें. जब मैं मदद मांगने घर से निकलकर भागने लगी तो मुझे भी मारकर चोटिल कर दिया गया. उसी दिन मेरे में शक्ति आयी कि जब मेरी माँ के साथ ऐसा अत्याचार हो रहा है तो अब हम बर्दाशत नहीं करेंगे. मैं दीवार फांदकर थाने में गयी और पुलिस को साथ ले आयी. चाचा लोगों को पुलिस पकड़कर ले गयी. बाद में वे लोग रिश्वत देकर छूटकर तुरंत वापस आ गए. आने के बाद हमलोगों से फिर मारपीट किया. हमे ऐसी दर्दनाक स्थिति में देखकर माँ ने कम उम्र में ही मेरी शादी करा दी. ससुरालवालों ने एक पैसा दहेज़ नहीं लिया. दहेज़ को लेकर बाद में मेरे ससुर थोड़े नाराज हुए लेकिन मेरे पति और मेरी सास बहुत सपोर्टिव निकलीं. उनलोगों का सपोर्ट है कि आज हम दुनिया को देख पा रहे हैं. सास के साथ हमारा माँ-बेटी का रिश्ता बन गया. हमारी सास को देखकर कई लोगों ने सीखा कि बहु को कैसे रखना चाहिए. हम तो ससुराल आ गए उधर हमारी दोनों छोटी बहनों को माँ के साथ चाचा के परिवारवालों ने घर से निकाल दिया. फिर मेरी माँ अपना घर,ज़मीं सब छोड़कर कहीं और किराये पर रहने लगी. आगे चलकर मेरी एक बहन आर्मी में चली गयी तो दूसरी आंगनबाड़ी में सहायिका का काम करने लगी.

‘सशक्त नारी सम्मान’ से सम्मानित की जातीं कबाड़वाली किरण

मेरा ससुराल पटना के बुध्दमार्ग स्थित शांति आश्रम के पास है. पहले मेरे सास-ससुर का तारामंडल के पास एक चाय का दुकान था. मैं वहां जाकर थोड़ी हेल्प कर देती थी. वहां जो दूध का पॉलीथिन आता था उसी से मेरे अंदर ये आइडिया आया कि मैं कबाड़ी का बिजनेस करूँ. एक दिन एक सज्जन जो हमारी चाय की दुकान पर आते थें जो लोहे के होलसेलर थें, उन्होंने बताया कि “आप ये थोड़ा-थोड़ा करके जो दूध का पॉलीथिन बेचते हैं इसको एक जगह इकट्ठा करके बेचिएगा तो आपको अच्छा इनकम होगा और उससे प्रॉफिट थोड़ा ज्याद होगा.” हम भी देखते थें ठेलेवाले को शीशी-बोतल सब लिए हुए तो हमने कहा कि “क्यों नहीं हमलोग भी एक दुकान खोल लेते हैं और अपना बिजनेस करें. हम जो ठेलेवाले को देते हैं होलसेलर वाले को देंगे तो प्रॉफिट ज्यादा होगा.” मन में ख्याल आया लेकिन पूंजी हाथ में नहीं थी. परिवारवाले तो तैयार हो गए लेकिन अड़ोस-पड़ोस वाले टोकने-मना करने लगें कि “नहीं ये औरत का काम नहीं है. नयी बहु है, पढ़ी-लिखी है तो सोच रही है हम बहुत एडवांस चलें. कबाड़ी का बिजनेस थोड़े ही औरत करती है…” लेकिन हमारी सास आगे आकर बोलीं कि “एक बार सपोर्ट करने में क्या हर्ज है. पढ़ी-लिखी है, हिसाब-किताब तो करेगी और माल तो लड़का लोग ले आएगा.” यही सब सोचकर हमलोगों ने निदान से लोन लिया. उस समय 2001 में कबाड़ी का दुकान किये. शुरू-शुरू में मेरे पास एक ठेला आता था फिर धीरे-धीरे 10 ठेले का माल आने लगा. एक साल तक बहुत परेशानी हुई फिर सब ठीक हो गया. शुरू में मेरे पास स्टाफ नहीं था लेकिन अब कुछ स्टाफ हैं जिससे मुझे थोड़ी सहूलियत मिलती है. इसके बाद हमारे पास से भाड़े पर रिक्शा चलने लगा. दो तीन साल बाद जब काम आगे बढ़ने लगा तो उसके बाद हम ऑटो रिक्शा लोन पर लिए. एक रिक्शे से 10 रिक्शा हुआ. मेरे हसबेंड प्रीपेड ऑटो रिक्शा एयरपोर्ट से चलाने लगें. लेकिन जिंदगी का संघर्ष इतना आसान भी नहीं था. बीच में बहुत बुरे दौर से गुजरना पड़ा.

‘बोलो ज़िन्दगी’ के साथ अपने संस्मरण बयां करती किरण

करीब 4 साल पहले जब बिजनेस थोड़ा लॉस में चला गया तो मैं भी दिमागी रूप से थोड़ी डिस्टर्ब हो गयी. मैं ऐसी स्थिति में आ गयी कि अपने ही बच्चों को नहीं पहचान पा रही थी. कुछ रिश्तेदारों ने तब पति को उकसाया था कि पत्नी मेन्टल हो गयी है उसे छोड़ दो, दूसरी शादी कर लो लेकिन मेरे पति ने उनकी बात नहीं मानी और मेरा साथ नहीं छोड़ा. एक दिन मैं भटकते हुए पटनासिटी के गुरुद्वारा पहुँच गयी. वहीँ दो-तीन महीने रही. उस दौरान मेरे नहीं रहने से मेरा दुकान सब ठप्प हो गया . इस दरम्यान गुरूद्वारे में ही एक दिन जब मैंने माथा टेका तो मुझे कुछ-कुछ याद आने लगा. मेरे पति का नंबर भी याद आ गया. मैंने उन्हें कॉल किया तो वे आये और मुझे घर ले गए. घर-परिवार वालों को लगा था कि मेरे साथ कहीं कुछ हादसा हो गया है. फिर इलाज के बाद धीरे-धीरे मैं ठीक होने लगी और जब पूरी तरह से स्वस्थ हो गयी तो अपना बिजनेस सँभालने लगी. 2006 में यूनिसेफ से जुड़ी तो वे आकर मेरे ऊपर पूरी फिल्म बनायें फिर मुझे दिल्ली भी सम्मानित करने ले गएँ.
अभी मैं रोजगार करनेवाली जरूरतमंद महिलाओं को लोन दिलवाने में हर तरह से मदद करती हूँ. 100 से ज्यादा महिलाओं को लोन दिलवा चुकी हूँ जिनमे लगभग 50 महिलाएं खुद का रोजगार करती हैं. कोई सब्जी, कोई मछली तो कोई कपड़े बेच रही हैं. आगे की प्लानिंग है कि मैं एक सिलाई सेंटर खोलूं जिसमे लड़कियां आकर प्रशिक्षण लें और आत्मनिर्भर बनें.

About The Author

'Bolo Zindagi' s Founder & Editor Rakesh Singh 'Sonu' is Reporter, Researcher, Poet, Lyricist & Story writer. He is author of three books namely Sixer Lalu Yadav Ke (Comedy Collection), Tumhen Soche Bina Nind Aaye Toh Kaise? (Song, Poem, Shayari Collection) & Ek Juda Sa Ladka (Novel). He worked with Dainik Hindustan, Dainik Jagran, Rashtriya Sahara (Patna), Delhi Press Bhawan Magazines, Bhojpuri City as a freelance reporter & writer. He worked as a Assistant Producer at E24 (Mumbai-Delhi).

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