मेरा जन्म यू.पी. के वृन्दावन में हुआ था, बचपन से ही नाटक करने का बहुत शौक था मगर घर में इसकी इज़ाज़त नहीं थी. फिर मेरी 17 साल की छोटी उम्र में शादी हो गयी और मैं तब पटना चली आई. मेरे पति श्याम शर्मा जी आर्टिस्ट हैं. मैंने पटना ससुराल में आकर अपनी पढाई पूरी की. बच्चों की परवरिश की वजह से शादी के 14 साल बाद मैंने आर्ट्स कॉलेज से ग्रेजुशन पूरा किया. जब पटना आने के बाद नाटकों का सिलसिला देखा तो बहुत अच्छा लगा और फिर मैंने अपना कार्यक्षेत्र नाटक को चुन लिया. उस वक़्त मैं पति और बच्चों के साथ थियेटर करने जाती थी. मेरा पहला प्ले था मोहन राकेश की पटकथा पर ‘आषाढ़ का एक दिन’. तब मेरी बेटी महज दो साल की थी और मेरे नाटक रिहर्सल करते वक़्त बच्ची पतिदेव को संभालनी पड़ती थी. मेरे पति ने इस झंझट से बचने के लिए होमियोपैथ के डॉक्टर से स्लीपिंग पिल्स ले ली और मेरे नाटक के रिहर्सल के वक़्त बच्ची को खिलाकर सुला दिया करते थे. मगर जिस दिन मेरा पहला शो था उस दिन दवा बच्ची को असर ही नहीं किया और ठीक क्लाइमेक्स के वक़्त बच्ची अचानक उठकर खूब रोने लगी. उसे पति ग्रीन रूम में सुलाकर चले आये थे. तब मशहूर कहानीकार फणीश्वरनाथ रेणु जी दर्शक दीर्घा में एकदम आगे बैठे थे. उस समय नाटक देखने का बहुत जूनून हुआ करता था लोगों में. बच्ची के रोने से नाटक में पड़ने वाली खलल की वजह से विनीता अग्रवाल जो मगध महिला कॉलेज की प्रोफ़ेसर हुआ करती थीं और जो मेरे ही साथ कला संगम से नाटक किया करती थीं चिल्लाने लगीं कि, ” कौन बेहूदा है जो यहाँ बच्चे को लेकर रुलाने चला आता है.” यूँ ही गुस्से में बड़बड़ाते हुए वे ग्रीन रूम में गयीं और बेटी को उठा लीं. दरवाजे पर मेरे पतिदेव खड़े थे उनसे कहने लगीं कि ” देखिये ना, कौन बेवकूफ अपनी बच्ची को यहाँ सुला गया है और ये रोने लगी है.” इसपर पति बोले,” पता नहीं कौन बेवकूफ है, लाइए मुझे दीजिये बच्ची को मैं चुप कराकर जिसका है उसे दे आता हूँ.” मेरा प्ले में इतना सीरियस रोल था और बेटी के रोने की आवाज़ से मेरा ध्यान उधर चला जा रहा था फिर भी मैंने हिम्मत से काम लिया और बखूबी अपना नाटक पूरा किया. नाटक खत्म होने के बाद जब विनीता जी ने मेरे पति से पूछा कि “पता चला किसकी बेटी थी?” तब भी मेरे पति अनजान ही बने रहे फिर एक दिन रिहर्सल के वक़्त यह राज पता चला कि वो तो नवनीत जी और श्याम जी की ही बेटी थी जिसे नींद की गोली देकर सुलाया गया था तब सभी हंसने लगें. मैं तब 23 साल की थी और 60 साल की महिला का रोल किया था. नाटक के बाद खुद रेणु जी मेरे घर आकर मुझे शाबासी दे गए. बड़े ही सुखद पल थे वो.
एक और तब की घटना याद आती है जब मेरी छोटी बेटी को पॉक्स हो गया था और मैं उसे घर पर पति की देखरेख में छोड़कर नाटक का रिहर्सल करने चली आयी थी. मैं बच्ची की वजह से नहीं जा रही थी लेकिन पति ने कहा कि मैं हूँ ना बच्ची के पास इसलिए तुम जाओ मगर जल्दी आ जाना. लेकिन रिहर्सल करके घर आने के दौरान बहुत लेट हो गया था. खाना तो बना के आयी थी लेकिन सोच रही थी कि घर जाकर कहूँगी क्या कि इतना देर कैसे हो गया. तब विनीता जी ने मुझे पति की डाँट से बचने के लिए एक आईडिया सुझाया कि सीधे जाते ही पति की खूब तारीफें करने लगना. देखना फिर तुम्हारे पति गुस्सा नहीं होंगे. रास्ते भर रिक्से पर बैठे हुए मुझे विनीता जी सिखाती रहीं कि क्या क्या बोलना है. उधर मेरी बच्ची परेशान हो रही थी और पति गुस्सा हो रहे थें. जैसे ही घर पहुंचकर मैं अंदर दाखिल हुई तो पति के कुछ बोलने से पहले ही मैंने उनकी झूठी तारीफें शुरू कर दी कि , ‘अरे क्या बताएं फणीश्वर नाथ रेणु जी और तेंदुलकर जी आये थे और आपको बहुत याद कर रहे थे. आपकी तारीफ में कह रहे थे कि क्या पेंटिंग बनाते हैं मानना पड़ेगा.’ इतना सुनकर पतिदेव सारा गुस्सा भूलकर पूछने लगें ” और क्या कह रहे थें.” फिर मैं झूठी कहानियां बनाकर उनको खुश करती रही. फिर वे बोले , “अच्छा बहुत देर हो गया है जल्दी से खाना दे दो.” मैं रसोई में गयी और खाना देते वक़्त मुझे बहुत हंसी आने लगी. किसी तरह मैंने अपने आपको रोका. पति खाते खाते ही पूछने लगे क्यों हंस रही हो ? मैंने कहा – कुछ नहीं ऐसे ही . मगर उनको शक हो गया ज़रूर कोई बात है. फिर जब उन्होंने ज़िद की तो मेरे पेट में भी वो बात पची नहीं रह सकी और मैंने विनीता जी का नाम लेते हुए सारी बात बता दी. उसके बाद तो हम दोनों ही खूब हँसे और बहुत देर तक हँसते रहें. वो जवानी के हसीं पल मुझे आज भी बहुत याद आते हैं.