

लोकतंत्र में जब मतदाता मतदान केंद्र पहुँचता है, तो वह उम्मीदवारों के चमक-दमक वाले पैनल में से किसी एक को चुनने का दबाव महसूस करता है। लेकिन क्या होता है अगर उसे लगता हो कि “इनमें से कोई भी उम्मीदवार मेरे मत का हकदार नहीं है”? ऐसे में सिर्फ मतदान से दूर बैठ जाना (मत न देना) विकल्प है, पर यह वोट की गोपनीयता, नीति-समर्थन या असहमति को व्यक्त नहीं करता है। इसी संदर्भ में NOTA विकल्प सामने आया। एक प्रकार से यह कहता है “मुझे दिए गए विकल्पों में से कोई भी पसंद नहीं।” लेकिन वास्तविकता यह है कि भारत में NOTA का व्यवहार-परिणाम बहुत सीमित रहा है, फिर भी विकल्प है।
भारत में NOTA विकल्प का अवसर 2013 में शुरू हुआ था। People’s Union for Civil Liberties (PUCL) द्वारा दायर याचिका में Supreme Court of India ने निर्देश दिया कि मतदाता को “किसी भी उम्मीदवार को नहीं चुनने” का विकल्प उपलब्ध कराया जाना चाहिए। मतदाता का “मत न देने” का अधिकार संविधान के अंतर्गत वोट देने की प्रक्रिया के समकक्ष माना गया। 27 सितंबर 2013 को सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि ईवीएम/बॉयलेट में NOTA बटन प्रस्तावित किया जाना चाहिए।
ईवीएम एवं मतदान पत्र पर NOTA का विकल्प प्रस्तुत किया गया। कहा गया कि यदि कोई मतदाता किसी उम्मीदवार को वोट नहीं देना चाहता है, तब भी वह गोपनीय रूप से अपनी असहमति दिखा सकता है।
NOTA लाने के उद्देश्य था मतदाता को सिर्फ “मत नहीं देना” से आगे जाकर विकल्प देना कि “मैं उपलब्ध उम्मीदवारों से असहमत हूँ।” उम्मीदवारों तथा राजनीतिक दलों पर यह संकेत देना कि “अगर आप योग्य नहीं उम्मीदवार देंगे, तो लोग केवल विकल्प से असहमति दिखा सकता है।”
शुरुआत में, 2013 के कुछ विधानसभा चुनावों में NOTA का वोट-शेयर लगभग 1.85% था। बाद में यह गिरकर ~1% या उससे कम स्तर पर स्थिर हुआ। 2024 लोकसभा चुनाव में Indore (मध्य प्रदेश) क्षेत्र में NOTA को 2 लाख से अधिक वोट मिले। लेकिन फिर भी, इसने चुनाव जीतने वाले उम्मीदवार को चुनौती नहीं दी।
यदि NOTA को सबसे अधिक वोट मिल जाता है तब भी, उपलब्ध प्रावधानों के अनुसार, दूसरे स्थान पर रहने वाला उम्मीदवार विजयी घोषित हो जाता है। यानि, वोट देने का “असहमति” विकल्प तो है, पर उसका परिणाम-परिवर्तन बेहद सीमित है। NOTA का प्रयोग बढ़ा है, लेकिन सामान्यतः यह मतदान की निर्णायक शक्ति नहीं बन पाई। मतदाताओं के असंतोष का संकेत है, पर प्रत्याशी चयन को बदलने में सक्षम नहीं।
भारत में ‘नोटा’ का कोई चुनावी मूल्य नहीं दिखता है।” NOTA मुख्यतः प्रतीकात्मक विकल्प है। यह वोट से “मैं इन उम्मीदवारों से खुश नहीं हूँ” का संदेश देता है। “यह विकल्प उन व्यक्तियों को देता है, जिन्हें उपलब्ध उम्मीदवार पसंद नहीं हैं।” NOTA का परिणाम-परिवर्तन शक्ति नहीं है, वह उम्मीदवार जीतता है जिसने सबसे अधिक वोट लिए हों, भले ही NOTA ने सबसे अधिक वोट लिए हों। इसलिए निर्णय-शक्ति (choice change) नहीं होती; सिर्फ असहमति दर्ज होती है। चुनाव की दिशा-निर्धारण में NOTA का प्रभाव न के बराबर रहा है।
यह कथन भी काफी हद तक ठीक बैठता है अर्थात् NOTA का चुनावी मूल्य (electoral value) बहुत सीमित है। कारण है मतदाता द्वारा NOTA दबाने से प्रत्याशी को अस्वीकृत नहीं किया जाता है। दलों-उम्मीदवारों पर इसे लेकर कोई नियमतः दबाव नहीं पड़ता है कि “आप नए उम्मीदवार लाएँ यदि NOTA ने बहुत वोट लिए।” इसलिए, चुनावी रणनीति-परिवर्तन में इसका असर नगण्य-सा रहता है।
NOTA जीत-हार पर असर नहीं डालता है। NOTA दबाकर भी वास्तविक प्रतिनिधित्व सुनिश्चित नहीं होता है। यह असहमति दर्ज करता है, लेकिन दिशा नहीं बदलता है इसलिए परिवर्तन की उम्मीद कम होती है। कुछ विश्लेषकों का कहना है कि यह “अपर्याप्त विकल्प” है, असहमति का सिर्फ इशारा है, कोई कार्रवाई नहीं है।
यह अनुभाग उन बिंदुओं को सामने लाता है जिनकी वजह से NOTA विकल्प भारतीय चुनावी व्यवस्था में अपेक्षित प्रभाव नहीं डाल पाया। भारतीय चुनावी प्रणाली में नियम-64 (या संबंधित प्रावधान) के तहत यदि NOTA सबसे अधिक वोट पा भी ले, फिर भी दूसरे स्थान पर रहने वाला उम्मीदवार विजयी घोषित हो जाता है। इसका नतीजा यह हुआ कि NOTA दबाने वाले मतदाताओं को “मैंने बदलाव किया” का विश्वास नहीं मिल पाया, क्योंकि कोई उम्मीदवार निष्प्रभावित नहीं हुआ। जब NOTA-वोट बढ़ता हैं, तब भी राजनीतिक दलों/उम्मीदवारों पर कोई कानूनी अथवा अनिवार्य दबाव नहीं बनता है कि “आप हटिए या सुधारिए।” सुझाए गए सुधारों में यह बातें आई हैं कि अगर NOTA सबसे अधिक वोट ले जाए, तो पुन: चुनाव हो या उम्मीदवार अयोग्य ठहराया जाए। लेकिन अभी तक ऐसा कोई केंद्रीय दायित्व नहीं बना है। इसलिए दलों-उम्मीदवारों को NOTA वोट से डर कम रहता है।
बहुत से मतदाता नहीं जानते कि NOTA का वास्तव में क्या अर्थ है और उसका चुनाव परिणाम पर क्या असर होता है। सिद्धांततः यह “न किसी को चुनना” विकल्प है, लेकिन व्यवहार में “मत देना” जितना ही असरदार रहा है। जागरूकता-प्रचार सीमित रहा है। बहुत से लोग मतदान नहीं करते क्योंकि उपलब्ध विकल्पों से असहमत हैं। NOTA का विकल्प है लेकिन फिर भी कई लोग मतदान नहीं करते। इस कारण मतदान-शक्ल बताती है कि NOTA को “बहिष्कार विकल्प” की तरह नहीं बल्कि “असहमति विकल्प” के रूप में प्रयोग किया जाना चाहिए था लेकिन व्यवहार में ऐसा नहीं हुआ। यदि कोई विकल्प सिर्फ “मैं असहमति दिखा रहा हूँ” तक सीमित हो जाए, लेकिन उससे आगे “आप मुझे बेहतर उम्मीदवार दीजिए या पुनः चुनाव होगा” जैसा असर न हो, तो यह बदलाव-प्रेरणा पैदा नहीं कर पाता। यही NOTA की प्रमुख समस्या प्रतीत होता है।