8 दिसंबर, रविवार की सुबह ‘बोलो ज़िन्दगी फैमली ऑफ़ द वीक’ के तहत बोलो ज़िन्दगी की टीम (राकेश सिंह ‘सोनू’, प्रीतम कुमार एवं तबस्सुम अली) पहुंची पटना के रुकनपुरा इलाके में लेख्य मंजूषा की अध्यक्ष विभा रानी श्रीवास्तव जी के घर. वैसे तो इस फैमिली में अभी यहाँ वर्तमान में सिर्फ हसबैंड-वाइफ ही हैं लेकिन जब बोलो जिंदगी की टीम विभा जी के घर पहुँची तो आस-पड़ोस में रह रहे रिश्तेदारों से पूरा घर भरा हुआ था. ज्वाइंट फैमली वाली फिलिंग आ रहीं थी. फैमली ऑफ़ द वीक में हमारे स्पेशल गेस्ट के रूप में लघुकथा के पितामह कहे जानेवाले डॉ. सतीशराज पुष्करणा जी भी शामिल हुयें. इस कार्यक्रम को सपोर्ट किया है बोलो जिंदगी फाउंडेशन ने जिसकी तरफ से हमारे स्पेशल गेस्ट के हाथों विभा रानी जी की फैमली को एक आकर्षक गिफ्ट भेंट किया गया.
फैमली परिचय- विभा रानी श्रीवास्तव जी का मायका सिवान जिले के मझवलिया गांव में है और ससुराल हुआ गोपालगंज के माणिकपुर में. उन्होंने बीएड और एलएलबी किया है. हसबैंड डॉ. अरुण कुमार श्रीवास्तव इलेक्ट्रिसिटी बोर्ड से चीफ इंजीनियर के पद से सेवानिवृत हैं. एक बेटा है महबूब श्रीवास्तव जो अभी अमेरिका में इंजीनियर है. महबूब इंग्लिश में लिखते हैं. एक इंटरनेशनल संस्था है ‘टोस्ट मास्टर’ जिसमे वे जॉब से अलग विषयों पर लेक्चर देते हैं. बहु का नाम है माया शनॉय श्रीवास्तव जो साऊथ इंडियन है और बैंगलोर से बिलॉन्ग करती हैं. माया सीए हैं. विभा जी के घर का कॉन्सेप्ट था वन फैमली वन चाइल्ड इसलिए घर में लगभग सभी को एक ही बच्चे हैं.
लेखन की शुरुआत – विभा रानी जी की अभिव्यक्ति लेखन के रूप में डायरी के पन्नों पर बहुत पहले से जारी थी. लेकिन पूरी तरह से लेखन से जुड़ाव हुआ 2011 में जब ब्लॉग पर लिखना शुरू हुआ. ब्लॉग बनाने का आइडिया बेटे ने दिया था. उससे पहले विभा जी घर में सिलाई-बुनाई और पेपर ज्वेलरी बनाना सिखलाती थी. रूपसपुर गांव की निम्न वर्गीय परिवार की लड़कियां इनसे सीखने आती थीं. इससे पहले भी जहाँ कहीं रहीं क्लब खोलना, पेंटिंग सिखाना, एम्ब्रॉयडरी सिखाना जैसे काम करती रहीं. लेकिन जैसे जैसे इंटरनेट डेवलव हुआ और ब्यूटी पार्लर का कॉन्सेप्ट आया तो फिर इसमें लड़कियों की रूचि ज्यादा बढ़ी. चूँकि सिलाई-कढ़ाई में उन्हें कोई भविष्य नहीं नज़र आ रहा था. इसलिए धीरे-धीरे जब लड़कियों की संख्या कम होती गयीं और तभी विभा जी के हसबैंड की पोस्टिंग हो गयी थर्मल पावर बरौनी में जी एम के पोस्ट पर तो इन्हें पटना से वहां शिफ्ट होना पड़ा. फिर वहाँ इनकी ये सब एक्टिविटी लगभग बंद हो गयी. तबतक वे हाइकू लेखन से जुड़ चुकी थीं. यूँ तो कहा जाता है साहित्य की यह विधा जापान से आयातित है लेकिन विभा जी ने जो शोध किया है हरिद्वार, दिल्ली, लखनऊ जाकर तो यह राय बनी कि हाइकू यहीं से वहां गया होगा और वहां से मोडिफाइड होकर वापस भारत आया होगा. हाइकू के बाद विभा जी वर्ण पिरामिड, लघुकथा से भी जुड़ीं. 2011 में ब्लॉग शुरू किया ‘सोच का सृजन’ जिसमे कंटीन्यू लेखन आज भी जारी है. उसके पहले ब्लॉग था ‘मृगतृष्णा’ उसमे विभा जी अपनी अभिव्यक्ति लिखती थीं. लेकिन फिर नए ब्लॉग में एक-एक कर अपनी सभी साहित्यिक विधाओं को डालना शुरू किया.
साहित्यिक गतिविधियों की शुरुआत – विभा रानी बताती हैं, “2015 में हमलोग हाइकू और वर्ण पिरामिड की किताब दिल्ली के हिंदी भवन में लोकार्पण किये थें उसी समय यह तय हुआ था कि अगले साल 2016 में सौ साल पूरा हो रहा है हाइकू का तो उसका शताब्दी वर्ष मनाएंगे. कहा जाता है कि जब 1916 में रवीन्द्रनाथ टैगोर जापान यात्रा पर गए थें तो वहां के जो उन्होंने संस्मरण लिखें उसी में हाइकू की चर्चा थी कि जापान में ऐसे हाइकू लेखन पाए जाते हैं. उसी लिहाज से हमने 2016 को शताब्दी वर्ष माना. उस समय जब मनाने की योजना चल रही थी तो यह बात बनी कि एक पुस्तक भी लाया जाये. तो फिर मैंने सोचा चलो सौ हाइकुकार खोजते हैं पूरे देश में. संयोग से मेरे पास लगभग 125 हाइकू लेखकों कि रचनाएँ जमा हो गयीं. और फिर मैंने हाइकू की किताब छपवायी. जब लोकार्पण का समय आया उसी समय मेरे हसबैंड की तबियत थोड़ी खराब चलने लगी जिसकी वजह से दिल्ली जाकर सारा काम करना सम्भव नहीं हुआ. तो हुआ कि पटना कौन सा साहित्य की दृष्टि से कम महत्वपूर्ण है, इसलिए क्यों ना हमलोग पटना में ही आयोजन करें. तबतक मैं घर से ज्यादा बाहर नहीं जाती थी. इंरटनेट से पूरे विश्व का आइडिया था लेकिन अपने ही शहर में क्या हो रहा है तब यह आइडिया नहीं था. फिर भी मैं हाइकुकार खोजने के लिए आस-पास निकलने लगी उसी क्रम में मुलाकात हुई साहित्यकार डॉ. सतीश राज पुष्करणा जी से, अनीता राकेश, पूनम आनंद जी से. तो जब यहाँ लोकार्पण की बात हुई तो यह बात उठी कि एक मंच चाहिए क्यूंकि बिना मंच और बैनर का लोकार्पण करने का कोई मतलब नहीं है.
लेख्य-मंजूषा का आरम्भ – 22 जून 2016 को अचानक से फेसबुक पर खबर आयी कि दिल्ली में एक एनजीओ है जिसने घोषणा कर दी कि हाइकू और वर्ण पिरामिड का लोकार्पण होना है और पूरे देश से लोग जुट रहे हैं. और सभी लेखकों को मंच सम्मानित करेगा. तो उसी एनजीओ के रूप में विभा जी एवं उनसे जुड़े लोगों को एक बैनर मिल गया. उसी बैनर तले इनलोगों ने 26 जून से काम करना शुरू कर दिया. इनको पटना में लोकार्पण करना था 4 दिसंबर को क्यूंकि उस दिन हाइकू दिवस होता है. प्रोफेसर सत्यभूषण वर्मा जिन्होंने हाइकू के लिए बहुत सराहनीय कार्य किया हुआ है तो उन्ही के जन्म दिवस 4 दिसंबर को इनलोगों ने हाइकू दिवस के रूप में कन्वर्ट कर दिया. 4 दिसंबर के आयोजन को लेकर बैठकें होने लगीं, 14 सितंबर से इनकी टीम ने मासिक गोष्ठी और त्रैमासिक कार्यक्रम की भी शुरुआत कर दी. लेकिन ये सारा काम उसी दिल्ली की संस्था के बैनर तले हो रहा था. जब दिसंबर नजदीक आने लगा तो इनलोगों ने दिल्ली वाले एनजीवो के हेड से कॉन्टेक्ट करके बैनर के लिए उनकी संस्था का लोगो और अन्य प्रक्रियाओं के लिए लेटर हेड मंगवाया तो उन्होंने यह कहकर इंकार कर दिया कि मेरे पास यह ऑथरिटी नहीं है कि मैं यह संस्था दिल्ली के अलावे बिहार में भी एक ब्रांच के रूप में खोल सकूँ. तो फिर सबको लगा कि ऐसे में तो हमारी इतने दिनों की सारी मेहनत बेकार हो जाएगी, सारे सदस्य हतोत्साहित हो जायेंगे. लेकिन अब ज्यादा समय नहीं बचा था, विभा जी की टीम ने 4 दिसंबर का कार्यक्रम तो उसी एनजीओ के तहत किया लेकिन वहीं घोषणा कर दी कि हमलोग ये मंच छोड़ रहे हैं. और अपनी संस्था शुरू कर रहे हैं जिसके तहत हमलोगों का अपना कार्यक्रम होगा. और फिर नई संस्था लेख्य-मंजूषा बन गयी लेकिन नामकरण में दो-चार दिन लग गएँ. जब बोलो ज़िन्दगी ने लेख्य-मंजूषा का अर्थ पूछा तो विभा जी ने बताया, “लेख्य का अर्थ हुआ लिखने योग्य और मंजूषा का अर्थ हुआ बक्शा या थैली. अब आप लेख्य मंजूषा का तातपर्य समझ ही गए होंगे.” इस संस्था में पूरे देश से लोग जुड़े हुए हैं. सतीश राज जी इस संस्था के अभिभावक हैं और उनके मार्गदर्शन में संस्था चल रही है. विभा जी के भइया सुनील कुमार श्रीवास्तव जो सिंचाई विभाग में इंजीनियर के पद से सेवानिवृत हैं जो साहित्य में रूचि रखते हैं, वे शुरू-शुरू में संस्था के संचालन में विभा जी को बहुत सहयोग किये थें.
लेख्य-मंजूषा के क्रियाकलाप – पहला कार्यक्रम 2017 जनवरी में हुआ मासिक गोष्ठी के रूप में. जनवरी से दिसंबर का इनका एक कैलेंडर है. एक महीना गद्य का काम होता है तो एक महीना पद्य पर काम होता है. और जो त्रैमासिक कार्यक्रम आता है वो भी एक बार गद्य तो दूसरी बार पद्य पर आधारित होता है. लेख्य मंजूषा का टैग लाइन है साहित्य और समाज के प्रति जागरूक करती संस्था. इसमें सिर्फ साहित्य के काम नहीं बल्कि सामाजिक कार्य भी होते हैं. उसके तहत आकांक्षा सेवा संस्थान जो झुग्गी-झोपड़ी के दलित बच्चों की शिक्षा पर काम करती है उसे हर महीने आर्थिक सपोर्ट करते हैं. वहां जब भी जरूरत होती है लेख्य-मंजूषा संस्था के लोग जाते हैं. अभी जो पटना में बाढ़ आयी थी टीम के सदस्यों ने शारीरिक सपोर्ट तो किया ही उसके साथ ही साथ फंड जुटाकर, कपड़े, खाने-पीने के सामान, ब्लीचिंग पाउडर आदि का वितरण भी कराया. ठंढ में गरीबों को कंबल वितरण इत्यादि के कई कार्यक्रम चलते रहते हैं. पिछले दो साल से पटना पुस्तक मेले में संस्था अपने बैनर तले वहां साहित्यिक कार्यक्रम कर रही है. त्रैमासिक पत्रिका ‘साहित्यिक स्पंदन’ भी प्रकाशित होती है. जिसमे पूरे देश के साहित्यकारों की रचनाएँ शामिल रहती हैं, जिसका सम्पादन विभा रानी ही करती हैं. इनके संपादन में लगभग 8 पुस्तकें आ चुकी हैं, लघुकथा के 5 , हायकू के दो और एक वर्ण पिरामिड की पुस्तक.
अभी 4 दिसंबर को संस्था के वर्षगांठ कार्यक्रम में सामाजिक सन्देश देनेवाली एक शॉर्ट फिल्म ‘षड्यंत्र’ का प्रदर्शन भी हुआ जो विभा रानी जी की लघुकथा पर आधारित है. और इसके डायरेक्शन, म्यूजिक, सिनेमेटोग्राफी और एडिटिंग से लेकर एक्टिंग तक सभी संस्था के सदस्यों ने किया. पहले इसके निर्माण के लिए इन्होने मार्केट में प्रोफेशनल लोगों से सम्पर्क किया तो उन्होंने 45 हजार चार्ज बताया जो एक बार में शॉर्ट फिल्म के लिए देना इन्हे मुनासिब नहीं लगा. फिर जब फैसला हुआ कि ये लोग खुद ही फिल्म बनाएंगे और फिर इस फिल्म में शामिल 9 लोगों ने पांच- पांच सौ रुपये मिलाये और सिर्फ 45 सौ में लेख्य-मंजूषा की शॉर्ट फिल्म बनकर तैयार हो गयी. इससे संस्था के सदस्य और भी उत्साहित हुए.
नई पीढ़ी को सन्देश : विभा जी कहती हैं, “2013 में बेटे की शादी हुई तो इधर कुछ सालों से मेरी एक्टिविटी पुनः बढ़ी. मेरा मानना है कि कोई भी काम कभी भी किसी भी उम्र में किया जा सकता है. और मैं अपनी संस्था में वैसे लोगों को ज्यादा से ज्यादा शामिल करती हूँ जो टैलेंटेड होते हुए भी कभी कुछ नहीं किये हों. कई वैसे लोगों को घर-जा-जाकर ढूंढा मैंने. तो जब मैं इस उम्र में सक्रीय रह सकती हूँ तो आप क्यों नहीं…?”
स्पेशल गेस्ट की मौजूदगी – इस कार्यक्रम में बतौर स्पेशल गेस्ट के रूप में उपस्थित लघुकथा के पितामह डॉ. सतीशराज पुष्करणा जी ने भी विभा रानी श्रीवास्तव के प्रयासों की भूरी-भूरी प्रशंसा की और अपने संघर्ष के आरम्भिक दिनों के कुछ संस्मरण बोलो ज़िन्दगी के साथ साझा किए. फिर बोलो जिंदगी के रिक्वेस्ट पर विभा रानी और डॉ. सतीशराज पुष्करणा जी ने अपनी लिखी हुई लघुकथाओं का पाठ करके सुनाया. मौके पर बोलो ज़िन्दगी के निदेशक राकेश सिंह ‘सोनू’ ने अपनी लिखी पुस्तकें “तुम्हें सोचे बिना नींद आये तो कैसे ?” और “एक जुदा सा लड़का” दोनों ही वरिष्ठ साहित्यकर्मियों को भेंट की.