फणीश्वरनाथ रेणु की वजह से पहली बार मैंने पी ली थी : कृष्णानंद, भूतपूर्व सहायक संपादक, इंडियन नेशन, पटना एवं ऐतिहासिक उपन्यासकार

फणीश्वरनाथ रेणु की वजह से पहली बार मैंने पी ली थी : कृष्णानंद, भूतपूर्व सहायक संपादक, इंडियन नेशन, पटना एवं ऐतिहासिक उपन्यासकार

 

मेरा जन्म बिहार के गया में हुआ. मेरी प्रारम्भिक शिक्षा गांव में ही हुई. उस ज़माने में जब महिलाएं पढ़ना-लिखना नहीं जानती थीं मेरी माँ मिडिल पास थी. जब मैं 8 वीं – 9 वीं में था मुझे याद है पिता जी माँ के पढ़ने के लिए लाइब्रेरी से साहित्य की किताबें लाया करते थें. माँ जब काम कर रही होतीं तो मैं वो किताबें लेकर पढ़ने बैठ जाता था. और बचपन में ही मैंने शरतचंद्र, बंकिमचंद्र और प्रेमचंद सबकी किताबें पढ़ ली थीं. शायद इसी वजह से साहित्य के प्रति मेरी रूचि जगी और लिखने की प्रवृति ने जन्म लिया. इंटर मैंने गया कॉलेज से किया. गया कॉलेज खोलने वाले सज्जन हमारे पिता के मित्र थें. वे पिता जी से बोले- ‘हम कॉलेज खोल रहे हैं और घर का लड़का पढ़ने पटना जायेगा.’ फिर पिता के कहने पर मैंने वहीँ से आई.ए. में एडमिशन कराया. आई.ए. में तब के शिवनंदन बाबू बहुत नामी हिन्दी के प्रोफेसर थें जो बाद में पटना कॉलेज चले गए. उन्होंने इंटर यूनिवर्सिटी स्टोरी कम्पटीशन आयोजित करवाया था जिसमे मेरी कहानी को प्रथम पुरस्कार मिला. कहानी का शीर्षक था ‘थप्पड़ – ए- इश्क’.

 

उसके बाद मैं पटना कॉलेज से हिन्दी ऑनर्स में ग्रेजुएशन करने चला आया. ऑल इण्डिया रेडियो, पटना से बहुचर्चित नाटक लोहा सिंह लिखने और लोहा सिंह का किरदार निभानेवाले रामेश्वर सिंह कश्यप तब मेरे क्लासमेट थें और हम दोनों हिन्दी ऑनर्स क्लास में अगल-बगल बैठते थें. देवेंद्र नाथ शर्मा जो बाद में वाइस चांसलर भी हुए थें तब एक दिन क्लास में हिन्दी में अलंकार पढ़ा रहे थें. उसी दरम्यान रामेश्वर सिंह कश्यप ने एक कविता बनाकर सुनाई जो आज भी मुझे याद है. उस वक़्त कंडोम फ्रेंच लेदर कहलाता था और नया नया निकला था. कविता कंडोम पर आधारित थी कि  ‘एक लड़की भड़की, जब लड़के ने कहा, छूट गयी थैली रबड़ की.’ सुनकर मुझे जोर की हंसी आ गयी तभी प्रोफ़ेसर साहब ने हमें देख लिया और सोचा कि गप्प कर रहे हैं तो हम दोनों पर बहुत बिगड़े.  कुछ ही महीनों बाद वहां साइकोलॉजी का नया विभाग खुल गया तो हम भी आकर्षित होकर हिन्दी ऑनर्स छोड़कर उसमे चले गए. उसके पहले फर्स्ट टर्मिनल एक्जाम में रामेश्वर कश्यप फर्स्ट और मैं सेकेण्ड आया था. फिर पटना यूनिवर्सिटी में हम साइकोलॉजी के फर्स्ट बैच के स्टूडेंट बनें. बी.ए. के बाद मैंने एम.ए. भी किया.

जवानी के दिनों में पत्नी के साथ कृष्णानंद जी

पटना कॉलेज में 26 जनवरी 1950 के दिन पहला रिपब्लिक डे सेलिब्रेशन हुआ जिसमे पटना कॉलेज के फाइन आर्ट सोसायटी का सेक्रेट्री मैं था और प्रेसिडेंट थें एस.के.घोष जो इंग्लिश के एवर ग्रीन प्रोफेसर कहलाते थें. उसी के तहत आर्ट कम्पटीशन ऑर्गेनाइज हुआ था जिसमे मैंने अपनी पत्नी का प्रोट्रेट बनाया था. तब तक मेरी शादी हो चुकी थी. मेरी शादी 27 मई 1948 में आजादी के 9 महीने बाद हुई थी. पटना कॉलेज फाटक के सामने एक बहुत बड़े फेमस आर्टिस्ट थें जिनकी प्रोट्रेट पेंटिंग की दुकान थी. जब मेरा पीरियड नहीं रहता तो उन्हीं के पास बैठकर उनसे मैं प्रोट्रेट बनाना सीखा करता था. तो उस कम्पटीशन में प्रोट्रेट बनाने में मैं और लैंडस्केप में शिवेंद्र सिन्हा फर्स्ट आये. फाइन आर्ट सोसायटी का सेक्रेट्री तो मैं था लेकिन हर क्लास का एक रिप्रजेंटेटिव भी चुना जाता था. शिवेंद्र क्लास का रिप्रजेंटेटिव होने के लिए प्रेसिडेंट एस.के.घोष के पास नामांकन देने गया तो उन्होंने कहा कि अपना फॉर्म सेक्रेट्री को दे दो. जब शिवेंद्र ने कहा कि ‘हम उन्हें नहीं पहचानते हैं’ तो प्रेसिडेंट साहब बोले ‘कृष्णानद को नहीं पहचानते हो? कॉलेज में घूम जाओ और जिसके गले में सबसे सुन्दर टाई लटकी हो उसके हाथ में फॉर्म थमा देना.’ फिर शिवेंद्र सिन्हा आया और मुझसे बोला – ‘आप ही कृष्णानंद हैं ना, मुझे प्रेसिडेंट साहब ने आपके पास भेजा है.’ शिवेंद्र सिन्हा पटना के रीजेंट सिनेमा के मालिक का भाई था जो पटना कॉलेज में पढ़ने के बाद बी.बी.सी. लन्दन चला गया. वहां से लौटने के बाद जब दिल्ली में दूरदर्शन की स्थापना हुई तो पहला प्रोड्यूसर वही बना. उसने एक फिल्म बनायी थी जिसे तब नेशनल अवार्ड मिला था. दूसरी फिल्म उसने बनाई ‘किस्सा कुर्सी का’ जो इंदिरा गाँधी पर आधारित थी और कंट्रोवर्सियल हो जाने की वजह से रिलीज ही नहीं हो पायी. दिल्ली दूरदर्शन में एक्जक्यूटिव के पोस्ट पर हमारे एक साढ़ू थें किरण जी. जब एक दफा मैं दिल्ली गया तो किरण जी के यहाँ ही ठहरा था और उनसे मिलने जब शिवेंद्र पहुंचा तो हमारे साढ़ू बोले ‘आओ तुम्हें हम पटना के एक जर्नलिस्ट से मिलवाते हैं.’  मेरा नाम सुनते ही शिवेंद्र बोला ‘उनसे हमें मिलवाइयेगा, उन्हीं के पद चिन्हों पर चलते हुए तो हम आज इस पोस्ट पर पहुंचे हैं.’
मुझे फ़िल्में बनाने का भी शौक था. सर्विस करने के दौरान ही 1978 में मैंने ब्लैक एन्ड वाइट शार्ट फिल्म ‘पाबन्दी’ बनायीं जो पुरुषों की नसबंदी पर थी. इंडिया गवर्नमेंट ने उसके 64 प्रिंट खरीदें और गांव देहात में प्रचार किया. फिर दूसरी कलर फिल्म बनाई 1980 में ‘सुरा, स्वप्न और सत्य’ जो शराबबंदी पर थी. दो शॉर्ट फिल्मों के बाद हम फुललेंथ की फिल्म बनाना चाह रहे थें. सबकुछ सेट हो गया था, पी.एल.संतोषी तब के बहुत बड़े डायरेक्टर मेरी फिल्म को डायरेक्ट करने वाले थें. ‘रूप,रोटी और रुपया’ स्टोरी भी उन्हीं की लिखी हुई थी. म्यूजिक डायरेक्टर थीं उषा खन्ना और इन सबको साइन करके मैं जब मुंबई से पटना आया तो जिन लोगों ने मुझे फाइनेंस करने का वायदा किया था वो पीछे हट गए और फिर फिल्म नहीं बन पायी. तब इंडिया के सभी आर्टिस्ट मुझे जानते थें. सोनल मान सिंह से लेकर बिस्मिल्ला खां सभी की मैंने फोटो खींची थी अपनी स्टोरी के लिए. पहले ज़माने में मैटर की किल्लत रहती थी, बाजारवाद नहीं था. पहले जैसे नेहरू जी का भाषण आ गया तो हमलोगों को फायदा होता था कि सिर्फ इंट्रो बना दिया और पूरा भाषण छाप दिया. पहले डांस-ड्रामा जो होता था तो उसके ऑर्गनाइजर सिर्फ एक पैरा में न्यूज भेज देते थें कि फलां ड्रामा हुआ और फलां -फलां ने पार्टिशिपेट किया. तब हम खुद जाकर ड्रामा देखना शुरू किये और उसपर बड़े-बड़े आर्टिकल निकालने लगें. उसके बाद नाटकों की बाढ़ आनी शुरू हो गयी, बहुत सी संस्थाएं कायम हो गयीं. और सब चाहते थें कि मैं ही आकर रिपोर्टिंग करूँ. जिस फंक्शन में मैं नहीं जा पाता वो मायूस हो जाते थें. फिर भी जो वहां गए थें उनसे पूछकर मैं उनका कमेंट छाप देता था. हर साल होनेवाले फिल्म फेस्टिवल में बिहार से मैं ही बुलाया जाता था. 1969 से 1984 तक जितने फिल्म फेस्टिवल हुए मैंने सब अटैंड किये. उसी दरम्यान बहुत से अभिनेताओं-अभिनेत्रियों के फोटो खीचा मैंने.

कृष्णानंद जी द्वारा खींची गयी मशहूर फ़िल्मी हस्तियों की तस्वीरें 

 

एक बार दिल्ली के अशोका होटल में बॉबी फिल्म की पार्टी चल रही थी और मैं राजकपूर जी के साथ एक टेबल पर बैठा था. मेरे सामनेवाले टेबल पर ऋषि कपूर और नीतू सिंह दोनों बैठकर एक ही प्लेट में खा रहे थें. मैंने फोटो लेने की कोशिश की तो उन्होंने देख लिया और चेहरा छुपा लिया. फिर मैंने भी अपना कैमरा नीचे छुपा लिया और बात करते-करते मौका देखकर चुपके से उनकी फोटो खींच ली जो तब अख़बार में छपी भी थी. उन दिनों बिहार में फिल्म डेवलपमेंट कॉरपरेशन के लिए हमने लिखना शुरू किया कि सब जगह है बिहार में ये नहीं है. एक बार प्लानिंग कमीशन के जो सेक्रेट्री थें उन्होंने कहा कि फिल्म बेकार और वाहियात चीज है. यह बात हमको उनके ही आदमी ने बता दिया कि सब कमेंट आपके खिलाफ गया है. तो हमने उस कमेंट का जो पॉइंट था उसका जवाब छाप दिया.  जगन्नाथ मिश्रा दुबारा जब बिहार के मुख्यमंत्री बनें तो उनके ज्वाइन करने के पहले हमने एक लेख छापा ‘ एन ओपेन लेटर टू चीफ मिनिस्टर एन्ड इंडस्ट्री मिनिस्टर’ और उसमे फिल्म डेवलपमेंट कॉरपरेशन की वकालत की गयी थी. एक बार रविंद्र भवन में एक फंक्शन के दौरान मैं बैठा हुआ था तो जगन्नाथ मिश्रा जी मेरे पास आये और बोले ‘कृष्णानंद जी, आपकी बात हमने मान ली है.’ फिर बिहार में फिल्म डेवलपमेंट कॉरपरेशन की शुरुआत हुई. उसके जो सेक्रेट्री बने वो हमारे क्लास फ्रेंड थें. तब आर.एन . दास पटना के डी.एम.थें और बाद में एडुकेशन कमिश्नर भी बने. फिल्म में उनको भी बहुत इंट्रेस्ट था. तब दास जी मुझसे बोले कि ‘आपका नाम कॉरपरेशन में आया था तो आपके दोस्त ने ही आपका नाम नहीं जाने दिया ये कहकर कि ‘कृष्णानंद रहेगा तो हमलोगों को खाने-पीने नहीं देगा. हमेशा टोकते रहेगा कि ये काम नहीं हो रहा है वो नहीं हो रहा है. इसलिए उसका नाम ही काट दो.’

‘बोलो ज़िन्दगी’ के साथ अपने संस्मरण साझा करते       कृष्णानंद

 

तब कॉरपरेशन सिर्फ नाम का था, कुछ काम नहीं होता था. सारा पैसा कहाँ चला जाता पता ही नहीं चलता था. पहले मैंने बतौर सब एडिटर ‘सर्चलाइट’ ज्वाइन किया था फिर कुछ ही दिनों बाद ‘इंडियन नेशन’ में मैगजीन एडिटर ज्वाइन कर लिया. मेरा ससुराल वैसे तो गया में है लेकिन चूँकि मेरे ससुर एडवोकेट थें और जब वे पटना हाईकोर्ट शिफ्ट हुए तो पटना के लोहानीपुर में घर बना लिया. उन्हें कोई बेटा नहीं था इसलिए उन्होंने मुझसे कहा कि आप मेरे साथ ही रहिये. मेरी पत्नी पांच बहन थी और जब सबका परिवार बढ़ने लगा तो हमने रिक्वेस्ट किया कि हमें अलग रहने जाने दीजिये. फिर पत्नी के साथ नालारोड किराये के माकन में चला आया.

 

उम्र के इस आखिरी पड़ाव पर अपने ऐतिहासिक उपन्यास ‘मगध की नगरवधू सालवती’ की पाण्डुलिपि के साथ कृष्णानंद

एक बार का वाक्या है कि राजेंद्रनगर में लेखक फणीश्वरनाथ रेणु रहते थें जिनसे मेरी दोस्ती थी. वे एक बार रिक्शा से आ रहे थें तो मुझे नालारोड में देखकर पुकारे फिर सामने आने पर कहे कि ‘चलिए आज आपको ‘सेंट्रल’ ले चलते हैं. सेन्ट्रल एक  होटल था रिजर्व बैंक के पास तो मैंने सोचा कि वहां ले जाकर कुछ खिलाएंगे. लेकिन ‘सेंट्रल’ गया तो देखा वहां शराब पीने की व्यवस्था है. मैं शराब पीता नहीं था तो मैंने कहा- ‘ रेणु जी, मैं नहीं पीता.’  वे बोले- ‘जब आये हैं और साथ नहीं दीजियेगा तो हम भी नहीं पीयेंगे, इसलिए साथ दीजिये.’ मैंने कहा- ‘ अच्छा तो ठीक है, दो बून्द ग्लास में गीरा दीजिये और उसमे पानी मिला दीजिये.’ वे बोले – ‘ ऐसे नहीं ना होता है’ और जिद करके हमको पिला दिए. पहले एक पैग पीकर हम मना किये तो वे बोले ‘क्या कृष्णानंद जी, मतलब हमको भी नहीं पीने दीजियेगा. आपका ग्लास खाली रहेगा तो हम कैसे पीयेंगे?’ ऐसे करते करते मुझे दो-तीन पैग पिला दिए. मेरा माथा घूमने लगा. घर जाते जाते सीढ़ी के नजदीक हम उल्टी करने लगें. रेणु जी बोले – ‘आप बेकार आदमी हैं, अब आपके साथ कभी सेंट्रल नहीं जायेंगे.’ मैंने कहा – ‘हम खुद ही नहीं जायेंगे.’ तब रेणु जी की कहानी ‘तीसरी कसम’ की शूटिंग हो चुकी थी और फिल्म रिलीज होनी बाकी थी. रेणु जी का नाम इतना था कि उनके साथ पीने की वजह से घर में पत्नी से मुझे डांट नहीं सुननी पड़ी थी.

About The Author

'Bolo Zindagi' s Founder & Editor Rakesh Singh 'Sonu' is Reporter, Researcher, Poet, Lyricist & Story writer. He is author of three books namely Sixer Lalu Yadav Ke (Comedy Collection), Tumhen Soche Bina Nind Aaye Toh Kaise? (Song, Poem, Shayari Collection) & Ek Juda Sa Ladka (Novel). He worked with Dainik Hindustan, Dainik Jagran, Rashtriya Sahara (Patna), Delhi Press Bhawan Magazines, Bhojpuri City as a freelance reporter & writer. He worked as a Assistant Producer at E24 (Mumbai-Delhi).

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