“पीरियड्स पर बात करना अब गन्दी बात नहीं” बिहार डायलॉग- टॉक ऑन पीरियड्स

“पीरियड्स पर बात करना अब गन्दी बात नहीं” बिहार डायलॉग- टॉक ऑन पीरियड्स
दीप प्रज्वलित कर टॉक ऑन पीरियड्स की शुरुआत करते मुख्य अतिथि

पटना, 8 जुलाई, तीसरी-चौथी क्लास की एक बच्ची को स्कूल में पीरियड्स हो गया….वह घर आयी और चिल्लाने लगी “मम्मी मैंने कुछ नहीं किया” वह बच्ची रोती रही-रोती रही और जब सामने उसकी मम्मी आयी तो भी उसने रोते हुए कहा कि “मम्मी को कोई समझाओ प्लीज…मैंने कुछ नहीं किया.” मतलब जागरूकता के आभाव में वह बच्ची अचानक आये पीरियड्स से इस कदर डर जाती है जैसे उसने कोई बहुत बड़ा पाप कर दिया हो. पीरियड्स को लेकर ऐसे ही कुछ निजी अनुभव साझा हो रहे थें, उसपर डिबेट हो रहे थें, समस्या और समाधान पर विचार-विमर्श हो रहे थें और उँगलियों पर गिनाई जा रही थीं 21 वीं सदी के भारत में माहवारी को लेकर फैली तरह-तरह की भ्रांतियां. यह नजारा था आज पटना म्यूजियम के सभागार में एक्शन मीडिया और नव अस्तित्व फाउंडेशन के द्वारा तीसरे ‘बिहार डायलॉग’ के आयोजन का जहाँ निःसंकोच खुले रूप से माहवारी पर परिचर्चा हो रही थी. आयोजन की शुरूआत रैमन मैगसेसे पुरस्कार से सम्मानित और कपड़ों पर काम करने के लिए प्रसिद्ध ‘गूंज’ संस्था के संस्थापक अंशु गुप्ता, समाजसेवी पदमश्री सुधा वर्गीज, यूनिसेफ की व्यवहार परिवर्तन संचार विशेषज्ञ मोना सिन्हा, महावीर कैंसर संस्थान की एसोसिएट डायरेक्टर डॉ मनीषा सिंह, साइकोलॉजीस्ट डॉ. बिंदा सिंह, दूरदर्शन पटना की सहायक निदेशक रत्ना पुरकायस्थ, जीविका की सुश्री सौम्या और अन्य अतिथियों ने दीप प्रज्वलित कर किया.

टॉक ऑन पीरियड्स में अपनी बात रखते हुए अतिथिगण

पहले शत्र के शुरू होते ही इस परिचर्चा में कार्यक्रम को सम्बोधित करते हुए ‘गूंज’ के अंशु गुप्ता ने कहा- “आज भी इस देश में कपड़े की उतनी ही कमी है, दो महिला एक साड़ी बहुत ही कॉमन स्टोरी है. ब्लाउज-पेटीकोट इस देश की करोड़ों महिलाओं के लिए आज भी एक बहुत बड़ा ड्रीम है. हम जो मर्जी बातें करते रहें, जो मर्जी आंकड़े देते रहें. सच्चाई हमलोग जानते हैं क्यूंकि जब आपको कहा जाता है कि एक-तिहाई देश को दो वक़्त की रोटी नहीं मिलती तो यहाँ नजरिया बदलने की जरुरत है क्यूंकि यह मुद्दा सिर्फ रोटी का नहीं है. जिस इंसान को दो वक़्त की रोटी नहीं मिल रही जाहिर बात है कि उसके पास कपड़े से लेकर सैडिटेशन से लेकर दुनिया की कोई भी चीज नहीं है. हमने एक छोटा सा सवाल उठाया कि हरएक महिला को, हरेक लड़की को एक कपड़े के टुकड़े की जरुरत है जिसको आज सैनेटरी पैड कहा जाता है और जो ब्लड को सोख सकता है, रोक सकता है. हमने जब इस विषय पर काम करना शुरू किया था तब देश में ना सैनेटरी पैड हुआ करता था और ना ही माहवारी के मुद्दे पर कोई बातचीत. उन्ही दिनों एक महिला से हमारी बात हो रही थी तो उन्होंने कहानी बताई कि किस तरह उनकी बहन ने एक ब्लाउज का पुराना पीस इस्तेमाल किया जिसमे हुक था और कैसे उनकी टेटनेस से मौत हुई. इस चौंका देनेवाली कहानी सुनने के बाद जब हमने पूरे देश में घूमना शुरू किया तो पता लगा कि महिलाएं पुराने कपड़े का इस्तेमाल करती हैं, जिस परिवेश में रहती हैं वो कपड़ा धोती हैं तो सूखा नहीं पातीं. जब उनको नहाने की प्राइवेसी नहीं है तो फिर कपड़ा सुखाने को कहाँ से मिलेगा. जाहिर सी बात है कि वो गंदे कपड़े का ही इस्तेमाल करती हैं और फिर कई गंभीर बीमारियों की चपेट में आ जाती हैं. करोड़ों महिलाएं आज जिन चीजों का इस्तेमाल करती हैं हम सभी जानते हैं , राख, मिटटी, घास, पुआल, अख़बार के टुकड़े, प्लास्टिक की सीट से लेकर गाय-भैंस का गोबर तक. वूमन इश्यूश नहीं हयूमन इश्यू है माहवारी, इसपर चुप्पी तोड़ने की जरूरत है. माहवारी केवल महिलाओं से जुड़ा विषय नहीं है बल्कि सारे हयूमन का विषय है. यह हमारी आधी से ज्या्दा आबादी से जुडा मुददा है. हमें यह ध्यान रखना होगा कि यह एक फैशनेबल विषय बनकर न रह जाए. इसे सिर्फ सैनेटरी वितरण के साथ ही दूर नही किया जा सकता. इसके लिए जरूरी है तीन महत्वपूण कदमों उपलब्धता, अफडिबलिटी और जागरूकता पर काम करने की.”

पद्मश्री सुधा वर्गीज ने कहा – “हमने महिलाओं को राख और बालू जैसी संक्रामक चीजों का इस्तेमाल करते देखा है. एक वाक्या याद आता है जब 80 के दशक में मैं मुसहरी की महिलाओं-लड़कियों की लिट्रेसी पर काम करती थी. मेरी क्लास में एक दिन एक महिला गायब थी. मैंने पूछा क्या हुआ? तो उनलोगों ने कहा कि वो बीमार है. फिर दूसरे दिन उनलोगों ने हमें खबर दिया कि वो महिला मर गयी. मुझे बहुत खराब लगा. मैं उसके घर गयी और यह जानकारी पता लगी कि उसकी मृत्यु टेटनस की वजह से हुई है. और उसकी वजह भी यही थी कि अधिकतर महिलाएं जो गांव में करती हैं उसने भी वही किया. उसके पास उचित मात्रा में सूती कपड़ा नहीं था. तो उसने कपड़े में बाहर जलाई हुई लकड़ी की राख डालकर, उसे लपेटकर उसका सैनेटरी नैपकिन जैसा इस्तेमाल किया और शायद उस राख में कोई लकड़ी का टुकड़ा था जिस वजह से उसे टेटनस हुआ. इसलिए सैनेटरी नेपकिन दे देने मात्र से इन चीजों पर बेहतर कार्य नहीं किया जा सकता, जरूरी है जागरूकता की. माहवारी के दौरान महिलाओं के अशुद्ध होने का कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है बल्कि समाज में सदियों से चली आ रही परंपरा ही इसकी मुख्य वजह है.”

वहीं महावीर कैंसर संस्थान की एसोसिएट डायरेक्टर डॉ. मनीषा सिंह ने कहा कि “10 -12 साल की बच्ची को इस छोटी सी उम्र में ही माहवारी शुरू हो जाती है. ऐसा हार्मोन में आये बदलाव की वजह से होता है. इसका मतलब ये होता है कि नेचर ने लड़की को यह हक़ दिया है कि वो माँ बन सके. तो इस उम्र में उसका एक फेज शुरू होता है. तो उसी प्रक्रिया में ब्लड बाहर आता है जिसे माहवारी कहते हैं जो सबके साथ होता है और यह बिल्कुल नेचुरल प्रक्रिया है. इस दौर से गुजर रही प्रत्येक लड़की को हमे समझाने की जरुरत है कि हार्मोन की वजह से जो चेंज आपकी बॉडी में हो रहा है उसकी वजह से ऐसा होता है. और 35 एमएल ब्लड का आपकी बॉडी से बाहर आना ये एक नॉर्मल चीज है, इससे घबराने की जरुरत नहीं है. लेकिन साफ़-सफाई की बहुत आवश्यकता है. जब भी आप पेशाब के लिए जाते हैं तो हरबार वॉश करना चाहिए. पैड का यूज करते हैं तो उसे तय समय पर चेंज करते रहना चाहिए वरना इंफेक्शन और गर्भाशय कैंसर जैसी भयानक बीमारियों का खतरा बना रहता है. इस दौरान ज्यादा पानी पीना चाहिए.”

           दिखाई गयी शॉर्ट फिल्म ‘हैपी पीरियड्स’

पहले शत्र की परिचर्चा खत्म होते ही सभागार में मौजूद दर्शकों को राहुल वर्मा के डायरेक्शन में बनी एक शॉर्ट फिल्म ‘हैपी पीरियड’ दिखाई गयी जिसमे एक स्कूल की बच्ची को अचानक होनेवाले पीरियड्स की वजह से स्कूल और घर में परेशानियों का सामना करना पड़ता है. वह शर्म से मर्ज को छुपाती है, डरी-सहमी सी रहती है और सबसे ज्यादा उसके साथ अन्याय तब होता है जब उसके ही घर में उसकी माँ पुरानी और दकियानूसी मान्यताओं का हवाला देते हुए उसे पीरियड्स के दौरान नाख़ून काटने से मना करती है, रसोईघर में दाखिल होने से भी मना करती है….लेकिन जब उस लड़की और उसकी माँ को जागरूक किया जाता है कि पीरियड्स में ऐसी कोई मनाही नहीं है, यह भ्रम है. यह तो एक नेचुरल प्रक्रिया है जिसे हँसते-हँसते फेस करना चाहिए तब जाकर पीरियड्स को लेकर उस लड़की का डर खत्म होता है.

पीरियड्स पर अपनी कविता सुनाती हुईं प्रेरणा प्रताप

दूसरे शत्र की शुरुआत दूरदर्शन में बतौर ऐंकर प्रेरणा प्रताप की एक कविता से होती है जिसके केंद्र में एक लड़की है और कविता के माध्यम से कवियत्री प्रेरणा ने यह बताने की कोशिश की है कि जब उसके साथ पीरियड्स का फेज शुरू होता है तो उसपर क्या-क्या बीतती है. कविता की कुछ पंक्तियाँ यहाँ प्रस्तुत हैं –

“….ये तब की बात है जब पहली बार मेरे अंग से खून बहा था.
वेशपर चाहिए जब पहली बार दुकानदार को मैंने कहा था.
वहां खड़े तमाम लोगों की निगाहें ऐसे टिक गयी थीं मुझपे जाने मैंने क्या मांग लिया था.
नजरें इधर-उधर भींचते हुए एक काली सी पॉलीथिन चुपके से उसने मुझे थमा दिया था.
जब मैं घर आयी और वेशपर वाली बात माँ को बताई
तो पता है माँ ने मुझे समझाते हुए क्या कहा था
बेटा लाज ही औरत का गहना है यह पीड़ा तो हर औरत को सहना है….”

डॉ. रत्ना पुरकायस्थ ने इस संबंध में मीडिया की भूमिका पर प्रकाश डालते हुए कहा कि “मीडिया माहवारी जैसे विषयों पर बड़ी ही गंभीरता के साथ व्यापक पैमाने पर जागरूकता फैला सकती है. आज इस विषय को लड़कियों से ज्यादा लड़कों को समझाने की जरूरत है. जिस दिन एक पिता बाजार से अपनी बेटी के लिए सैनेटरी नैपकिन लाएंगे, एक भाई अपनी बहन के लिए और बेटा अपनी माँ के लिए सैनेटरी नैपकिन खरीदकर लाएगा उस दिन हमको लगता है कि जो चर्चा हो रही है माहवारी पर हम सफल हुए. मुझे लगता है कि सिर्फ एक सामाजिक संस्था इस मुहीम को आगे लेकर नहीं जा सकती बल्कि इसके लिए जरुरी है मीडिया में यह फ्रंट पेज का न्यूज होना चाहिए. लास्ट पेज में छोटा सा न्यूज की जगह सैनेटरी नैपकिन के बारे में जिस दिन फर्स्ट पेज पर छपने लगेगा तो उस दिन से हम समझेंगे कि आज जो मुद्दा बना है वो सफल हुआ. ये सैनेटरी नैपकिन की बातें छुप-छुपकर ना करके जब घर पर ये सारी बातें होंगी और जब हम घर से निकलेंगे तो कहेंगे कि आज हम जा रहे हैं माहवारी पर काम करने के लिए और हमारे घर के लोग सुनकर कहेंगे कि यह तो बहुत अच्छी बात है, रुको हम भी चलेंगे तो उस दिन हम समझेंगे कि यह मुद्दा सफल हुआ.”

यूनिसेफ की व्यवहार परिवर्तन संचार विशेषज्ञ मोना सिंहा ने बात शुरू करने से पहले सभागार में पीछे बैठी हुई बच्चियों से पूछा कि “क्या आपने फिल्म पैडमैन देखी है?” सबने हाथ उठाकर कहा हाँ देखी है. तब मोना जी ने कहा कि “जिन्होंने हाथ नहीं उठाया या जिन्होंने ये फिल्म नहीं देखी वो ये बताएं कि इतनी पब्लिसिटी होने के बावजूद यह फिल्म क्यों नहीं देखी. आज के पहले माहवारी प्रबंधन पर लोग चुपचाप काम तो कर रहे थें लेकिन इसपर कोई बात नहीं होती थी. लेकिन इसके ऊपर जो चुप्पी का जो माहौल बना हुआ था यह भी फिल्म में दर्शाया गया है जो बहुत हद तक सही है. इस फिल्म ने एक बहुत बड़ा काम ये किया कि उस दबी-छिपी हुई बात को मुख्यधारा में लाकर कम से कम चर्चा तो शुरू की. हमारे समाज में माहवारी से जुड़े कुछ मिथ हैं जो लंबे वक्त से मौजूद हैं. जैसे पीरियड्स के दौरान महिलाओं का अछूत हो जाना, पूजा घर में ना जाने की इजाजत, बाल नहीं धोना, स्कूल नहीं जाना, अचार नहीं छूना, कुछ हद तक नहाने से भी परहेज करना.”

मनोचिकित्सक डॉ. बिंदा सिंह ने कहा कि “महिलाओं को अवषेशित कम्पल्सिव डिजिज का सामना करना पड़ता है. माहवारी समस्याएं माहवारी की वजह से न होकर अंधविश्वासों के कारण और बढती जाती है. हमने इसे हौवा बनाकर रख दिया है. यहाँ तक कि पीरियड्स के दौरान अगर लड़की किचेन में जाती है तो घर के सारे लोग बीमार भी पड़ सकते हैं. हमारे पास 10 महिलाएं आती हैं तो उनमे से 8 महिलाएं मानसिक अवसाद की शिकार रहती है. क्यूंकि पीरियड्स को लेकर फैली भ्रांतियों की वजह से उनमे हीन भावना घर करने लगती है. एक एनजीओ में गयी तो वहां की छोटी-छोटी लड़कियों ने बताया कि वो एक मेडिसिन खा रही हैं. हमने पूछा, किस चीज की मेडिसिन खा रही हो तो उन्होंने बताया कि पीरियड्स बंद करने की. वह लड़कियां बोल रही थीं कि, क्या करूँ दर्द बर्दाशत नहीं होता है. यह कितने आश्चर्य और तकलीफ की बात है. उन्हें यह पता नहीं कि जो मेडिसिन का वह इस्तेमाल कर रही हैं आगे जाकर वो उन्हें कितना नुकसान पहुंचाएगा. इसलिए आज हर स्कूल में पैड देने के साथ-साथ बच्चियों के काउंसिलिंग की भी व्यवस्था होनी चाहिए.”

वहीँ जीविका की सुश्री सौम्या ने कहा कि “सबसे पहले जरुरत है इस विषय पर चर्चा शुरू करने की. और जबतक यह चर्चा यानि जागरूकता घर में नहीं शुरू होगी तबतक बाहर भी सही ढंग से नहीं हो पायेगी.” उन्होंने कहा कि बिहार में जीविका इस विषय पर 80 लाख महिलाओं के साथ काम कर रही है.

फिर जब बिहार डायलॉग ने वहां बैठे दर्शकों को मौका दिया तो पूजा कौशिक, प्रतिमा, रैनबोहोम से आयी काजल, उत्तराखंड से आये एक स्टूडेंट, बरौनी की रहनेवाली एक महिला, संजेवियर कॉलेज, पटना कॉलेज के एक स्टूडेंट के साथ-साथ काफी सारे लोगों ने विशेषज्ञों से अपने-अपने अंदाज में सवाल किये और वहां बैठे विशिष्ठ अतिथियों ने भी उन सभी के क्या, क्यों और किसलिए का बड़ी ही संजीदगी से सटीक जवाब देकर उन्हें जागरूक करने के साथ-साथ उनकी जिज्ञाषा भी शांत की.

जहाँ पूरे कार्यक्रम का मंच संचालन एक्शन मीडिया की ओर से मधुरिमा राज ने किया. वहीँ नव अस्तित्व फाउंडेशन की ओर से अमृता सिंह और पल्ल्वी सिन्हा ने सभी अतिथियों को शाल और प्रतिक चिन्ह देकर सम्मानित किया.

अतिथियों को सम्मानित करतीं नव अस्तित्व फाउंडेशन की अमृता एवं पल्लवी

परिचर्चा के अंत में रत्ना पुरकायस्थ ने बड़ी ही मार्मिक बात कही कि – “कार्यक्रम खत्म होते ही ‘अरे अमृता और पल्ल्वी ने आज बहुत अच्छा काम किया’ हम यह कहते हुए निकल जायेंगे लेकिन आज की हुई परिचर्चा की बातों को जबतक हम अपने अंदर आत्मसात नहीं करेंगे, खुद के अंदर बदलाव नहीं लाएंगे तबतक सब बेकार है. यहाँ इतने सारे लोग बैठे हैं, मैं सबसे कहना चाहूंगी कि हमें ईश्वर ने आवाज दी है, इस मुद्दे पर हम आवाज तो बुलंद करें. जबतक हम आगे नहीं आएंगे तबतक इस विषय में भी सुधार नहीं हो पायेगा. हमारे पहल पर सरकार ये व्यवस्था करे कि हर स्कूल- हर कॉलेज में माहवारी एक सब्जेक्ट के रूप में पढ़ाया जाना चाहिए तभी कुछ परिवर्तन होगा अन्यथा 6 महीने बाद हम फिर मिलेंगे और वही घूम फिरकर बात करेंगे कि इस मुद्दे पर बात करनी चाहिए. लेकिन इस पर अब बात नहीं बल्कि काम करना चाहिए.”

 

इस परिचर्चा में शामिल होकर ‘बोलो ज़िन्दगी‘ को भी यह एहसास हुआ कि जहाँ आज से कुछ सालों पहले पीरियड्स और सैनेटरी पैड का टेलीविजन पर ऐड आते ही परिवार के बीच में बैठा हर शख्स शर्म व झिझक की वजह से झट से चैनल चेंज कर देता था लेकिन आज उसी चीज, उसी टॉपिक पर खुले रूप से यूँ डिबेट हो रहा है जो काफी सराहनीय बात है. आज की इस परिचर्चा में शामिल हॉल में बैठे दर्शकों में महिलाओं से ज्यादा पुरुषों की संख्या को देखकर यह अंदाजा लगाना नामुमकिन नहीं था कि पीरियड्स और सेनेटरी पैड का यह ज्वलंत मुद्दा कुछ हद तक सफल रहा.

About The Author

'Bolo Zindagi' s Founder & Editor Rakesh Singh 'Sonu' is Reporter, Researcher, Poet, Lyricist & Story writer. He is author of three books namely Sixer Lalu Yadav Ke (Comedy Collection), Tumhen Soche Bina Nind Aaye Toh Kaise? (Song, Poem, Shayari Collection) & Ek Juda Sa Ladka (Novel). He worked with Dainik Hindustan, Dainik Jagran, Rashtriya Sahara (Patna), Delhi Press Bhawan Magazines, Bhojpuri City as a freelance reporter & writer. He worked as a Assistant Producer at E24 (Mumbai-Delhi).

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