तेजस्वी यादव जानते हैं – नेतृत्व नारे से नहीं – संयम से बनता है और सत्ता विरासत से नहीं – विश्वास से मिलती है

तेजस्वी यादव जानते हैं – नेतृत्व नारे से नहीं – संयम से बनता है और सत्ता विरासत से नहीं – विश्वास से मिलती है
JITENDRA KR. SINHA

2015 का बिहार विधानसभा चुनाव तेजस्वी यादव के जीवन का निर्णायक मोड़ साबित हुआ। लालू प्रसाद यादव की पार्टी राष्ट्रीय जनता दल (राजद), नीतीश कुमार की जदयू और कांग्रेस के साथ मिलकर महागठबंधन के रूप में चुनावी मैदान में उतरी थी। यह गठबंधन बीजेपी के विरुद्ध एक सशक्त मोर्चा बन चुका था। तेजस्वी यादव ने राघोपुर से चुनाव लड़ा और जीत दर्ज की। यहीं से उनकी राजनीति का औपचारिक आरंभ हुआ और बिहार ने एक युवा उपमुख्यमंत्री को देखा। उम्र के उस पड़ाव पर, जहाँ अधिकांश युवा करियर की दिशा तलाशते हैं, तेजस्वी यादव राज्य की दूसरी सबसे बड़ी कुर्सी पर बैठ चुके थे। लोगों ने उनकी “काबिलियत” से ज्यादा उनके “वंश” पर प्रश्न उठाए, मगर समय के साथ यह तय होना था कि वे अपनी पहचान विरासत से आगे ले जा पाते हैं या नहीं।

 

नीतीश कुमार, जो लालू प्रसाद के कभी करीबी रहे और बाद में विरोधी बने, तेजस्वी यादव के लिए एक राजनीतिक गुरु की तरह भी थे और चुनौती की तरह भी। तेजस्वी यादव उपमुख्यमंत्री थे, पर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की प्रशासनिक साख, अनुभव और वरिष्ठता इतनी गहरी थी कि तेजस्वी यादव को उनके साए में खुद को साबित करने का अवसर ढूँढना पड़ा। उन्होंने संयम और सीखने की प्रवृत्ति अपनाई। उनके व्यवहार में कोई हड़बड़ी नहीं थी। वे न तो अपने पिता की तरह आक्रामक थे, न नीतीश कुमार की तरह चुप। वे एक संतुलित और सधे हुए वक्ता के रूप में उभरे, जो बोलते कम हैं, मगर जब बोलते हैं तो स्पष्टता से। उसी दौरान कई प्रशासनिक बैठकों में उन्होंने अपने तर्क और डेटा-आधारित उत्तरों से वरिष्ठ अधिकारियों को भी प्रभावित किया। नीतीश कुमार ने भी तेजस्वी के राजनीतिक शिष्टाचार की तारीफ की थी। यह अलग बात है कि बाद में यही समीकरण बदल गया कि सत्ता के भीतर जो समीकरण शालीनता से शुरू हुआ था, वह धीरे-धीरे अविश्वास में बदलने लगा।

तेजस्वी यादव के लिए यह काल सत्ता की कार्यप्रणाली को समझने का प्रशिक्षण-काल था। उन्होंने सीखा कि राजनीति केवल भीड़ और भाषण नहीं है, यह योजनाओं, कागजी कामों, और प्रशासनिक समन्वय की भी दुनिया है। उन्होंने विकास, रोजगार, और इंफ्रास्ट्रक्चर पर जोर देने की कोशिश की, मगर शासन की असली डोर उनके हाथों में नहीं थी। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार थे, और सभी अंतिम निर्णय उन्हीं के हाथ में रहता था। धीरे-धीरे यह असंतोष पनपने लगा कि तेजस्वी यादव सिर्फ दिखावे के लिए उपमुख्यमंत्री हैं। सत्ता के केंद्र में उनका प्रभाव सीमित था। जब 2017 में संपत्ति और भ्रष्टाचार के आरोपों ने राजनीतिक तूफान उठाया, तब नीतीश कुमार ने राजद से गठबंधन तोड़ दिया। तेजस्वी यादव पर आरोप लगा कि उन्होंने अपने पद का दुरुपयोग किया। हालाँकि उन्होंने बार-बार कहा कि “यह सब राजनीतिक साजिश है।” यह घटना तेजस्वी यादव के लिए एक राजनीतिक दीक्षा बन गई। उन्होंने सीखा कि सत्ता में मित्र और शत्रु दोनों अस्थायी होते हैं; स्थायी केवल राजनीति का खेल है।

महागठबंधन के टूटने के बाद तेजस्वी यादव विपक्ष में चले गए। लालू प्रसाद उस समय जेल में थे और राबड़ी देवी घर की राजनीति संभाल रही थीं। सारा दायित्व अब तेजस्वी यादव के कंधों पर था। एक तरफ पिता की बीमारी और कानूनी मुकदमे, दूसरी तरफ पार्टी की कमजोर स्थिति, यह सब तेजस्वी के लिए परीक्षा थी। उन्होंने खुद को संभाला, पार्टी को एकजुट रखा और विपक्ष में एक मुखर भूमिका निभाई। बिहार विधानसभा में वे एक तेजतर्रार नेता प्रतिपक्ष बनकर उभरे। उनकी भाषा में दृढ़ता थी, पर आक्रोश नहीं। उन्होंने विपक्षी राजनीति को भी गरिमा के साथ निभाया, और यही परिपक्वता जनता को भाने लगी। उनके भाषणों में मुद्दे स्पष्ट होने लगे कि रोजगार, पलायन, शिक्षा, स्वास्थ्य और भ्रष्टाचार। युवा वर्ग ने उनमें “बदलाव की उम्मीद” देखनी शुरू की।

राजनीतिक सफलता के साथ-साथ तेजस्वी यादव को सबसे कठिन परीक्षा परिवार के भीतर देनी पड़ी। तेज प्रताप यादव, बड़े भाई, भावनात्मक और ऊर्जावान स्वभाव के हैं, पर राजनीति में उनका दृष्टिकोण तेजस्वी यादव से बिल्कुल भिन्न है। जहाँ तेजस्वी यादव संयम और व्यावहारिकता का प्रतीक हैं, वहीं तेज प्रताप यादव आवेग और भावनाओं के प्रतिनिधि हैं। दोनों भाइयों के बीच मतभेदों की खबरें मीडिया में लगातार उभरती रहीं। तेज प्रताप यादव ने कई बार सार्वजनिक रूप से कहा कि “पार्टी के भीतर मेरी नहीं सुनी जाती।” तेजस्वी यादव ने हमेशा इन विवादों को टालना चुना। वे जानते थे कि लालू प्रसाद परिवार में हर सार्वजनिक झगड़ा पार्टी के लिए नुकसानदेह है। उन्होंने अपने धैर्य से स्थिति को नियंत्रण में रखा, परंतु यह साफ हो गया कि परिवार की राजनीतिक एकता पहले जैसी नहीं रही। इस दरार ने तेजस्वी यादव को और अधिक परिपक्व बनाया। उन्होंने महसूस किया कि नेतृत्व का अर्थ केवल जनता से संवाद नहीं है, बल्कि परिवार को संभालना भी है।

राजनीति में “छवि” ही सब कुछ होती है। तेजस्वी यादव ने इसे भलीभांति समझ लिया था। उन्होंने खुद को सोशल मीडिया पर अत्यधिक सक्रिय किया, ट्विटर (अब X), फेसबुक, इंस्टाग्राम पर लगातार संवाद। उनके ट्वीट्स में तर्क था, भावनाएँ थीं और शालीनता भी। वे नारेबाजी से दूर रहकर मुद्दों पर बोलते थे, जो उन्हें युवाओं के बीच लोकप्रिय बना गया। मुख्यधारा मीडिया ने भी धीरे-धीरे उन्हें “संतुलित और प्रगतिशील” नेता के रूप में चित्रित करना शुरू किया। उन्होंने प्रेस कॉन्फ्रेंस में कभी गुस्सा नहीं किया, कभी निजी कटाक्ष नहीं दिए। उनकी छवि उस दौर में बनी, जब बिहार की राजनीति में शोर, आरोप और जातीय विभाजन चरम पर थे। उन्होंने इन सबसे अलग “विकास-केन्द्रित” भाषा अपनाई, जो उनके पिता की भाषा से भिन्न थी। कहा जा सकता है कि यह rebranding of RJD का दौर था, जहाँ पार्टी की पुरानी छवि से अलग, एक नया चेहरा गढ़ा जा रहा था।

2020 के बिहार विधानसभा चुनाव तेजस्वी यादव की असली परीक्षा थी। लालू प्रसाद जेल में थे, गठबंधन की कमान उनके हाथों में थी। उनकी उम्र उस समय 30 वर्ष से भी कम थी, लेकिन उन्होंने जिस आत्मविश्वास से 247 रैलियाँ कीं, वह अद्भुत था। हर सभा में उनका नारा था “नौकरी देंगे, न्याय देंगे।” उनकी सभाओं में युवाओं की भारी भीड़ उमड़ती थी। लोगों को उनमें लालू प्रसाद की झलक तो दिखती थी, मगर साथ ही एक नए युग की आहट भी महसूस होती थी। भले ही नतीजे में एनडीए ने मामूली अंतर से सरकार बनाई, पर तेजस्वी का प्रदर्शन शानदार रहा। राजद अकेले सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी। यह हार नहीं, एक मनोवैज्ञानिक जीत थी। बिहार की जनता ने संदेश दे दिया था कि तेजस्वी यादव अब राज्य की राजनीति के केंद्र में हैं।

2022 में जब नीतीश कुमार ने बीजेपी से गठबंधन तोड़ा और महागठबंधन में वापसी की, तो तेजस्वी एक बार फिर उपमुख्यमंत्री बन गए। यह वापसी मात्र सत्ता में लौटना नहीं था, यह राजनीतिक परिपक्वता की निशानी थी। तेजस्वी यादव ने नीतीश कुमार के साथ पुनः काम करते हुए यह साबित किया कि राजनीति में स्थायी मित्र या दुश्मन नहीं होते हैं केवल हित और उद्देश्य होते हैं। इस बार उनका रवैया पहले से ज्यादा संतुलित था। वे प्रशासनिक बैठकों में सक्रिय रहते थे, विकास योजनाओं की समीक्षा करते और नीतीश कुमार के साथ एक व्यावहारिक तालमेल बनाए रखते थे। उनका उद्देश्य साफ था कि जनता को यह संदेश देना कि वे केवल आलोचना करने वाले नेता नहीं हैं, बल्कि शासन चलाने की क्षमता रखने वाले व्यक्ति हैं।

नीतीश कुमार और तेजस्वी यादव के बीच यह दूसरी साझेदारी थी। पहले दौर की टूट और कड़वाहट के बावजूद दोनों नेताओं ने एक व्यावहारिक रास्ता चुना। तेजस्वी यादव ने यह समझा कि राजनीति में क्षमाशीलता और सहयोग ही दीर्घकालिक प्रभाव बनाते हैं। उन्होंने न तो नीतीश पर कोई व्यक्तिगत टिप्पणी की, न अपने पुराने आरोपों को दोहराया। यह बदलाव बताता है कि तेजस्वी यादव अब भावनात्मक नहीं, बल्कि रणनीतिक राजनीति के खिलाड़ी बन चुके हैं। उन्होंने अपनी भाषा में संयम और आचरण में गंभीरता लाई है। वे अब केवल युवाओं के प्रतीक नहीं हैं, बल्कि शासन के वैकल्पिक चेहरे के रूप में उभर चुके हैं।

तेजस्वी का अरिस्टोक्रेट व्यक्तित्व अब राजनीति की परिपक्वता के साथ मिश्रित हो चुका है। उनका पहनावा, बोली, व्यवहार सब में सलीका है, पर अब उसमें जनता की गंध भी जुड़ चुकी है। वे न ग्रामीण पृष्ठभूमि से कटी हुई भाषा बोलते हैं, न शहरी अभिजात्यता से भरी। उनका संवाद संतुलित है, एक तरफ आधुनिक सोच, दूसरी तरफ जनसंवेदना। यही कारण है कि उनकी सभाओं में युवा, महिला और ग्रामीण वर्ग समान रूप से आकर्षित होते हैं। वे अब “राजनीति के राजकुमार” नहीं, बल्कि “विकल्प के मुख्यमंत्री” के रूप में देखे जा रहे हैं।

तेजस्वी यादव के राजनीतिक सफर में संघर्ष कभी समाप्त नहीं हुआ। केंद्रीय एजेंसियों की जांच, पारिवारिक संपत्ति के मामले, विरोधियों के आरोप, यह सब लगातार चलता रहा। लेकिन दिलचस्प यह रहा कि उन्होंने इन मुद्दों को कभी अपनी छवि पर हावी नहीं होने दिया। वे अदालत में पेश होते समय भी गरिमा बनाए रखते, मीडिया के सवालों का संयत से उत्तर देते। यह व्यवहार बिहार की राजनीति के लिए नया था। जहाँ पहले नेता आरोपों पर आक्रोश में प्रतिक्रिया देते थे, वहीं तेजस्वी ने “सहनशीलता” को अपनी रणनीति बना लिया। उनका यह संयम जनता के बीच विश्वास में बदल गया है, लोग कहने लगे, “यह लड़का राजनीति समझता है।”

लालू प्रसाद के समर्थक वर्ग का बड़ा हिस्सा स्वाभाविक रूप से तेजस्वी यादव के साथ था। परंतु तेजस्वी यादव ने उस आधार से आगे बढ़ने का प्रयास किया। उन्होंने जाति के दायरे से बाहर रोजगार, शिक्षा और अवसर की बात की। उनका यह दृष्टिकोण उन्हें नयी पीढ़ी के करीब ले गया। हालाँकि, विरोधी खेमे ने उन्हें “वंशवाद का प्रतीक” कहना जारी रखा। तेजस्वी का जवाब साफ था कि “अगर विरासत अपराध है तो फिर हर परिवार में बेटा पिता से कुछ नहीं सीखे?” इस तर्क ने उन्हें तर्कसंगत राजनेता के रूप में स्थापित किया। उन्होंने वंशवाद की आलोचना को भावनात्मक प्रतिक्रिया में नहीं, बल्कि बौद्धिक जवाब में बदला।

तेजस्वी यादव के नेतृत्व की सबसे बड़ी परीक्षा पार्टी के भीतर एकजुटता बनाए रखना था। राजद जैसी बड़ी पार्टी में कई वरिष्ठ नेता हैं जो खुद को लालू युग के स्तंभ मानते हैं। तेजस्वी यादव ने इन नेताओं के साथ संवाद की नीति अपनाई। वे न किसी को दरकिनार करते हैं, न किसी को खुली छूट देते हैं। यह “मध्य मार्ग” उनके नेतृत्व का मूलमंत्र है। यही कारण है कि आज राजद युवा जोश और वरिष्ठ अनुभव का एक संतुलित संगम बन चुका है। यह संतुलन तेजस्वी यादव की सबसे बड़ी राजनीतिक उपलब्धि कहा जा सकता है।

इस पूरे चरण में तेजस्वी यादव ने सत्ता का स्वाद भी चखा और विपक्ष की कठिनाई भी झेली। उन्होंने पारिवारिक असहमति, गठबंधन की टूट, मीडिया की आलोचना, अदालत की जांच, सबका सामना किया। लेकिन इन सबके बीच उन्होंने जो सबसे बड़ी पूँजी अर्जित की, वह है राजनीतिक परिपक्वता। आज वे जानते हैं कि नेतृत्व केवल नारे से नहीं, संयम से बनता है, सत्ता केवल विरासत से नहीं, विश्वास से मिलती है।

About The Author

'Bolo Zindagi' s Founder & Editor Rakesh Singh 'Sonu' is Reporter, Researcher, Poet, Lyricist & Story writer. He is author of three books namely Sixer Lalu Yadav Ke (Comedy Collection), Tumhen Soche Bina Nind Aaye Toh Kaise? (Song, Poem, Shayari Collection) & Ek Juda Sa Ladka (Novel). He worked with Dainik Hindustan, Dainik Jagran, Rashtriya Sahara (Patna), Delhi Press Bhawan Magazines, Bhojpuri City as a freelance reporter & writer. He worked as a Assistant Producer at E24 (Mumbai-Delhi).

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