जब शादी के बाद ससुराल पहुंची तो रिवाज की वजह से मुझे सबके सामने गाना पड़ा : माया शंकर, प्रोफ़ेसर, पटना यूनिवर्सिटी एवं चेयरपर्सन ऑफ़ ‘स्पीक मैके’,पटना

जब शादी के बाद ससुराल पहुंची तो रिवाज की वजह से मुझे सबके सामने गाना पड़ा : माया शंकर, प्रोफ़ेसर, पटना यूनिवर्सिटी एवं चेयरपर्सन ऑफ़ ‘स्पीक मैके’,पटना

 

मेरा गांव नॉर्थ बिहार के जंदाहा में है लेकिन मेरा जन्म पटना में हुआ. हम चार भाई-बहन थें जिनमे मैं सबसे छोटी हूँ. साल में एक बार दशहरा के समय गांव जाना होता था. गांव में दशहरा बहुत धूमधाम से मनाया जाता था. मेरे दादा जमींदार थें तो वहां काफी खेती-बाड़ी थी. उनके खेत में तब मेला लगता था और दुर्गा जी बैठती थीं. हमलोग इंतज़ार में रहते कि कब छुट्टी हो और हमलोग गांव भागें. मेरे पापा स्व. विंध्यवासिनी प्रसाद सिन्हा पटना हाईकोर्ट में सीनियर एडवोकेट थें. वो भी बोलते थें कि ‘जल्दी बच्चों की छुट्टी हो और हमलोग चलें जंदाहा.’ पहले सड़क थी नहीं तो हमलोग पानी के जहाज से जाते थें. महेन्द्रू घाट से चलकर पहलेजा घाट उतरते थें. वहां से सोनपुर जाते थें, फिर वहां से ट्रेन पकड़ते थें तब जंदाहा पहुँचते थें. स्टेशन से 5 किलोमीटर अंदर गांव में जाना होता था तो हमलोग टमटम से जाते थें. मेरी माँ साथ होती थीं तो ट्रेन रुकते-रुकते उनका घूँघट एकदम नीचे आ जाता था. क्यूंकि सारे गांववाले जानते थें कि जमींदार साहब की बहू आयी हैं. जबकि मेरी स्व. माँ ऐसे स्कूल बिशप बेस्कॉर्ट हाई स्कूल से थीं जिसमे अग्रेजों के बच्चे पढ़ते थें और मेरी माँ एकमात्र इंडियन थी. शायद इसलिए उन्हें काफी तंग किया जाता था. माँ ने तब एक मजेदार बात बताई थी कि जब वे ब्रश करती थीं और जीभी कर रही होतीं तो सब बोलती कि तुम बहुत गन्दी हो. तो माँ बोलती कि तुमलोग ज्यादा गन्दी हो क्यूंकि हम तो मुँह की गंदगी को बाहर निकालते हैं लेकिन तुमलोग अंदर ही रखती हो. दरअसल अंग्रेज जीभी नहीं करते हैं . तब रांची, झाड़खंड के नामकुम्भ में उस इंग्लिश मीडियम बिशप स्कूल से माँ पढ़ी थीं और शायद इसी वजह से मरते दमतक वो इंग्लिश में भी बात करती थी. नाना फॉरेस्ट ऑफिसर थें इसलिए छुट्टी के दिनों में माँ जंगल में रात-बेरात घूमती रहती थीं. ना उन्हें बाघ-चीता का डर , ना सांप का डर , इतनी बोल्ड थीं वो. और मुझे ताज्जुब हुआ सुनकर जब माँ ने हमें बताया कि ‘मेरी शादी हुई तो पहले चढ़ी पालकी में फिर पालकी को सब नाव पर डाल दिए गंगा नदी पार करने के लिए. फिर वहां से ट्रेन से गएँ तो लम्बा घूँघट डालकर बैलगाड़ी से जाना पड़ा.’

‘बोलो ज़िन्दगी’ के लिए अपना संस्मरण बयां करती हुईं डॉ. माया शंकर

मेरी स्कूलिंग हुई संत जोसेफ कॉन्वेंट से. मैट्रिक के इक्जाम में हमारा सेंटर पड़ा था बांकीपुर गर्ल्स हाई स्कूल में. तब बड़ा अजीब लगता कि संत जोसेफ कॉन्वेंट का एक मिशनरी इंस्ट्युशन, उसका अपना एक अलग साफ़-सफाई का कल्चर, डिसिप्लिन सब बिलकुल अलग था और यहाँ सरकारी स्कूल में दूसरा ही सिस्टम देखने को मिला. वहां से पासआउट करने के बाद पटना वीमेंस कॉलेज में एडमिशन हो गया फिर वहीँ से मैंने ग्रेजुएशन किया. मेरा हिस्ट्री ऑनर्स था. उस समय पटना वीमेंस कॉलेज में ऑनर्स सिर्फ इंग्लिश और होमसाइंस में होता था. बस आती थी और बस से हमलोग ऑनर्स क्लास करने जाते थें पटना कॉलेज. वो भी लाइफ का एक एक्सपीरियंस है कि जब सबको पता चलता कि पटना वीमेंस कॉलेज की लड़कियों की बस आ रही है तो पटना कॉलेज के लड़के पहले से ही लाइन में खड़े हो जाते थें. हमारी प्रिंसिपल थीं सिस्टर लूसल जो बहुत स्ट्रिक्ट और डिसिप्लिन पसंद थीं. लेकिन हमारे बैच में कुछ लड़कियां इतनी स्मार्ट थीं की उनको कोई परवाह ही नहीं होती थी. सिस्टर ऊपर से देखते रहती थीं कि कौन कैसा कपड़ा पहनी है. शर्ट-पैंट पहनी है तो शर्ट बाहर है कि अंदर है. चूड़ीदार कुर्ता है तो दुपट्टा है कि नहीं है. साड़ी है तो ब्लाउज बहुत डीप है कि कैसा है. और वो जिसको गड़बड़ देखती उसको कॉलेज के अंदर नहीं जाने देतीं और उसी वक़्त सीधे घर भेज देती थीं. उन्ही दिनों कॉलेज में हमारी एक मित्र थीं जो आजकल पटना के पोलटिक्स में चोटी पर हैं, वो बड़ी चुलबुली और बिंदास हुआ करती थीं. वह अक्सर शर्ट-पैंट पहना करती थी. जब सिस्टर ऊपर से देखती तो उसका शर्ट बहार आ जाता था और जब वह बस से पटना कॉलेज में उतरती तो शर्ट अंदर आ जाता था. हमलोग हँसते कि किसी दिन पकड़ाओगी तो तुमको परेशानी होगी. एक और बहुत मजेदार बात हुई थी जब हमलोग सीनियर्स थें तब ‘बॉबी’ फिल्म आयी थी जो वीणा सिनेमा हॉल में लगी थी. हमारे बैच की दो लड़कियां थीं, एक खूब लम्बी और दूसरी शॉर्ट हाइट की. वे दोनों बोलीं कि ‘भई हमलोगों को तो फर्स्ट डे फर्स्ट शो जाकर देखनी है.’ आप सोचिये कि तब मार हो रहा था, लाठी चल रही थी, टिकट ब्लैक हो रहे थें ऐसे में ये दोनों बोलीं कि हमलोगों को तो जाकर देखनी है, ये चैलेन्ज है. बहुतों ने मना किया कि ‘कहाँ मरने जा रही हो, बेकार का लाठी वगैरह लग गया तो….’ लेकिन उनका डायलॉग था कि ‘ ना, अपन को तो देखना है.’ जिस दिन फिल्म लगी उस दिन हम जब कॉलेज से निकल रहे थें तो देखते हैं कि पटना वीमेंस कॉलेज के गेट से दो महिलाएं बुर्का पहने दाखिल हुईं. बाद में पता चला कि ये वही दोनों लड़कियां हैं जो फिल्म देखने की तैयारी करके आयी थीं. और फर्स्ट डे फर्स्ट शो ये दोनों उसी भीड़ में जाकर देखकर आयीं. वे टिकट पहले ही मंगवा चुकी थीं. लेकिन उस मारा-मारी, उस भीड़ में टिकट लेकर घुसना भी टफ था. वहां ज्यादा भीड़ जेंट्स की ही थी तो हुआ ये कि दो-तीन बार उनके धक्का खाने के बाद किसी ने कहा- ‘ अरे माता जी आइये-आइये’ और फिर भीड़ के ही लोग उन्हें आगे करते हुए हॉल में पहुंचा दिए. मतलब कॉलेज की किसी लड़की को हिम्मत नहीं हुई मगर इन दोनों ने अपना चैलेन्ज पूरा किया. मैं उन दिनों कॉलज की प्रीमियर भी रही. कॉलेज के संगीत प्रोग्राम में बैंजो और सितार बजाती थी. मैंने खुद जाकर रेडियो स्टेशन में ऑडिशन दिया और सेलेक्ट होने के बाद ‘युववाणी’ कार्यक्रम में कभी सितार तो कभी बैंजो बजाती थी. बैंजो मेरे मामा का था जो खराब पड़ा था. मैंने माँ से मांगकर खुद ही उसे ठीक किया, खुद ही उसका ट्यूनिंग किया और खुद ही उसे बजाना शुरू किया. और उसी में ऑडिशन दिया. मुझे जो भी 25 रुपया मिला उससे मैंने बैंक अकाउंट खोला और उसमे प्रोग्राम से मिलनेवाला पैसा जमा करती थी. कुछ पैसा जमा होने पर उसी पैसे का मैंने अपने लिए दो कोर्ट बनवाया, एक ब्लू कलर का तो एक ग्रे कलर का. तब खुद के कमाए पैसे से अपने पर खर्च करते हुए मुझे गर्व महसूस हुआ था. कॉलेज में हम ड्रामा भी करते थें लेकिन जब मेरी शादी हुई तो हम प्ले करना बंद कर दिए. एक वजह यह थी कि तब घर-परिवार को ज्यादा समय देना चाहती थी और उन दिनों अच्छे घर की लड़कियां नाटक करने नहीं जाती थीं.

कॉलेज की विभिन्न गतिविधियों में शामिल माया जी, ऊपर से क्रमश: सितार बजाती हुईं, मॉन्टियरिंग कैम्प में ट्रेनिंग
के बाद पुरस्कृत होती हुईं, कॉलेज की अपनी क्रिकेट टीम के साथ और ‘कफ़न’ नाटक में माधव का किरदार निभाती हुईं

पटना यूनिवर्सिटी से एम.ए.करने के बाद 1980 में मैंने पटना वीमेंस कॉलेज में बतौर लेक्चरर ज्वाइन कर लिया. उसके पहले पांच-छह महीने मैंने रत्नापति विद्यामंदिर स्कूल ज्वाइन किया था जो 4 -5 क्लास तक था. ये बहुत बड़े साहित्यकार नलिन विलोचन शर्मा जी की पत्नी कुमुद शर्मा का स्कूल था. कुमुद शर्मा तब रेडियो के लिए होनेवाले कार्यक्रम ‘शिशुमहल’ में दीदी बनती थीं. वे बहुत सुन्दर पेंटिंग करती थीं, बच्चों की साइकोलॉजी पर बहुत काम की थीं, बच्चों का डांस-ड्रामा भी कराती थीं. उनके साथ ही लगकर मैंने भी बच्चों के कई नाटक कराये थें. कॉलेज में लेक्चरर फिर रीडर और फिर प्रोफ़ेसर के रूप में सेवा देते हुए करीबन मुझे 26 साल हो गए हैं. जब लेक्चरर बनी तो शुरू की एक घटना याद आती है. पटना वीमेंस कॉलेज में नया-नया मुझे क्लास लेने जाना था. सिस्टर लुशेरिया उस समय प्रिंसिपल थीं. फर्स्ट टाइम क्लास लेने के वक़्त मुझे थोड़ी घबराहट हो रही थी. तो सिस्टर ने एक बात कही – ‘जाओ क्लास में और यह सोचो कि वहां जो भी स्टूडेंट बैठे हैं उन्हें कुछ नहीं मालूम और तुम्हें सब मालूम है.’ फिर मैंने वही किया और यूँ ही करते-करते बहुत अच्छे से सब हो गया. मैं अपने कॉलेज डे में नाटक भी करती थी. कॉलेज में ‘कला संगम’ एक नाट्य संस्था थी उसके डायरेक्टर थें सतीश आनंद जो राष्ट्रिय स्तर की ख्याति प्राप्त कर चुके हैं. उनके साथ मैंने बहुत सारे प्ले किये. ‘आषाढ़ का एक दिन’ ,’बल्लभपुर की रूपकथा’, ‘गोदान’, ‘आम्रपाली’ ये सारे नाटक कॉलेज के ओपन स्टेज पर किया था. प्ले करने के बाद मुझमे बहुत कॉन्फिडेंस पैदा हुआ. कॉलेज में होने वाले प्ले के दौरान की एक घटना याद है. 21 दिसंबर, 1980 को प्रेमचंद की कहानी ‘कफ़न’ पर आधारित एक प्ले हुआ जिसका नाट्य रूपांतरण वरिष्ठ लेखिका पद्मश्री डॉ. उषा किरण खान ने किया था. मैंने उसमे माधव की भूमिका निभाई थी. तब ठंढ का समय था. जो लड़की माधव का रोल कर रही थी वो किरदार इतना डिफिकल्ट था कि वह नहीं कर पा रही थी. फिर सभी स्टूडेंट ने मुझसे कहा कि ‘मैम पब्लिक शो होने जा रहा है, आप ही ये रोल कीजिये.’ तब मैं ही उस प्ले का डायरेक्शन कर रही थी. फिर मैंने दो दिन में अपने किरदार पर तैयारी की. जब ये नाटक होने जा रहा था, मुझे स्टेज पर जाना था, दाढ़ी लगाकर, धोती-मुरेठा बांधकर मेरा मेकअप पूरा हो गया था. वहीँ कुछ कॉलेज कैंटीन के स्टाफ स्टेज से थोड़ी दूर हटकर आग जलाकर ताप रहे थें. हमने सोचा कि जरा मजा लिया जाये तो हम माधव के गेटअप में ही वहां जाकर बैठ गए आग तापने. सब घबरा गया और पूछना शुरू कर दिया कि ‘कौन हो, कहाँ से आये हो, बाहर से कैसे आ गए, जाओ यहाँ से.’ हम जवाब नहीं दिए और चुपचाप बैठकर आग तापते रहें. फिर जब उनलोगों ने टोका तो मैंने आवाज भारी करके कहा – ‘भाई ठंढ बहुत है, जरा सा आग ताप लेने दो गरमा जायेंगे.’ एक ने कहा- ‘यही जगह मिला है गर्माने का, जाइये बाहर जाइये. पता नहीं बाहर से कैसे आ गया है.’ तब हमने कहा कि ‘ हम माया मैम हैं.’ तब सब खड़ा हो गया और कहने लगा- ‘बाप रे मैडम,ऐसा मेकअप.’ मैंने कहा- जा रहे हैं नाटक करने’ और उनको यूँ ही हैरत में डालकर मैं चली गयी.
उन्ही दिनों मैंने एन.सी.सी. के तीन कैम्प भी अटैंड किये. रिपब्लिक डे में हिस्सा लिया और मॉन्टियरिंग कैम्प भी किये. जब बी.ए. फ़ाइनल ईयर में थी तो एन.सी.सी. के तहत मॉन्टियरिंग में 24 लड़कियों के पूरे ग्रुप में बिहार से हम दो ही लड़कियों का चयन हुआ था. क्यूंकि उनकी धारणा थी कि बिहार की लड़कियां स्ट्रॉन्ग नहीं होती हैं. ज्यादातर पंजाब, हरियाणा की लड़कियों पर फोकस रहता था. तो बिहार से एक मैं थी और एक थी शांता जेटली जो अभी भी एन.सी.सी. में अफसर हैं. जब हमलोगों की उत्तर काशी में ट्रेनिंग स्टार्ट हुई तो उसमे हमें रॉक क्लाइम्बिंग करना पड़ता था. नदियों को पार करना पड़ता था. फिर हमलोग बर्फ पर ट्रेनिंग किये. हफ्ता- दस दिन तो हमें ऐडजस्ट होने में लगा. नाश्ते-खाने में इतना कुछ रहता था लेकिन हमें ठंढ से भूख ही नहीं लगती थी. लगभग 20 किलो का वजन कंधे पर उठाकर हम सुबह निकलते थें और शाम तक एक पड़ाव पर पहुँचते थें. दिनभर पैदल चलने के क्रम में पैर में छाले पड़ जाते थें. मेरे पैर का अंगूठा लगभग डेड हो गया था. घरवालों को यही बताये थें कि हमें मॉडल पहाड़ पर चढ़ाया जायेगा क्यूंकि जब बताते कि रियल पहाड़ पर चढ़ना है तो हमें जाने की अनुमति ही नहीं मिलती. हम लोग कितने दिन तक नहाये नहीं थें. जब हमलोग एक महीने बाद लौटें तब जाकर नहाना हुआ. मैं तब एकदम ब्लैक हो गयी थी, घर में कोई पहचान नहीं पाया.
70 के दशक में जब हम कॉलेज में पढ़ रहे थें, 1974 -75 में मोतिहारी में बाढ़ आयी थी और काफी तहस-नहस हुआ था. उस समय मेरा फ़ाइनल ईयर था और कॉलेज की मैं प्रीमियर थी. हमने प्रिंसिपल से कहा कि हम चाहते हैं कि कुछ बाढ़ राहत संबंधी काम करें. कॉलेज के एक सेन्ट्रल पॉइंट पर ताला लगाकर एक मनी बॉक्स डाल दिया गया . सारे क्लास में जाकर कहा कि आपलोग 10 -20 पैसा, चवन्नी-अठन्नी कुछ भी डाल दो. फिर कॉलेज से निकलने से पहले बॉक्स खोलकर काउंट करते थें. हमने स्टूडेंट से कहा कि आप कुछ भी नहीं दे सकते तो घर में न्यूज पेपर आता होगा, एक पुराना न्यूज पेपर ही लाकर दे दें. फिर न्यूज पेपर कलेक्ट करके उसे कबाड़ी में बेचकर उससे पैस इकट्ठा किए. उसके बाद हमने सिस्टर को मनाकर कॉलेज में एक प्रोग्राम आयोजित करवाया जिसमे पहली बार दूसरे कॉलेज के लड़के भी टिकट खरीदकर देखने आये थें. सिस्टर इसी टेंशन में थीं कि लड़कियों का कॉलेज है, बॉयज आएंगे तो हंगामा करेंगे, क्या होगा..? लेकिन हमने उन्हें भरोसा दिलाया कि कुछ नहीं होगा. फिर सबके सपोर्ट से दो दिन हुए प्रोग्राम में हॉल पूरा भरा रहा. वहां एक सिस्टर प्रोग्राम के दौरान हॉल में जहाँ अँधेरा था रह-रहकर वहां टॉर्च जलाकर देखतीं कि कहीं कोई लड़का कुछ गड़बड़ तो नहीं कर रहा है. लड़कियों के लिए फ्री था लेकिन लड़के 1 रूपये का टिकट लेकर खूब शौक से बन-ठन के देखने आये थें. इसके अलावा हमने गुरुदत्त की फिल्म ‘प्यासा’ का चैरिटी शो कॉलेज में करवाया जिससे भी पैसे इकट्ठे हुए. उसके बाद हमलोगों ने नयी धोती-साड़ी, अनाज और दवाइयां खरीदकर एक वैन में भरकर दो टीचर और चार लड़कियों का ग्रुप लेकर मोतिहारी गए और दो दिन रहकर पीड़ितों की मदद की. 6 गांव कवर करके हमने खुद अपने हाथ से चीजें बांटी. कॉलेज के दिनों में ही पहली बार गर्ल्स का क्रिकेट हमने शुरू करवाया. प्रिंसिपल ने कहा- ‘यह लड़कों का खेल है, आप हॉकी खेलें क्रिकेट नहीं.’ लेकिन हमलोगों ने कहा- ‘नहीं, हम क्रिकेट खेलेंगे.’ इसलिए कि हमलोगों को एक बहुत अच्छा कोच मिल रहा था. फिर ओके होते ही हमलोग छाबड़ा स्पोर्ट्स की दुकान पर गए और क्रिकेट के सारे सामान खरीद लाएं. हमने खुद ही पिच बनाया. हमारे कॉलेज में एक क्रिकेट टीम बनी जिसकी मैं विकेटकीपर और वाइस कैप्टन बनी. एक क्रिकेट टीम मगध महिला कॉलेज में बनी. दो मैच हुए थें और दोनों ही हमने जीता.

 

शादी के रिसेप्शन के वक़्त माया जी अपने पति श्री रवि शंकर प्रसाद जी (केंद्रीय मंत्री ) और ससुराल वालों के साथ 

हम और मेरे हसबेंड श्री रवि शंकर प्रसाद जी (केंद्रीय मंत्री) एक ही बैच के थें. मेरा हिस्ट्री ऑनर्स तो उनका पोलिटिकल साइंस था. पहले मेरे हसबेंड की तरफ से ही प्रपोजल था लेकिन मैंने कहा- ‘ मैं अभी शादी नहीं करना चाहती’ और टालती रही. लेकिन फिर उनका काफी प्रेशर हुआ तो कुमुद शर्मा जिनके स्कूल में मैं पढ़ाती थी और जो हम दोनों की ही मित्र थीं, वो बोलीं कि ‘देखो शादी उसी से करो, जो तुमको सबसे ज्यादा चाहता हो.’ तो फिर हमने हाँ कर दिया और 1982 में हमारी शादी हो गयी. एक और प्लस पॉइंट ये हुआ कि हमारे ससुर और पिता जी दोनों हाईकोर्ट में लॉयर और मित्र थें, परिवार जाना हुआ था. ऐसा संयोग हुआ कि हम अखिल भारतीय महिला परिषद् में मेंबर थें जिसमे बाद में सचिव बने. ये पहला ऑर्गनाइजेशन था जो 1927  में महिलाओं द्वारा और महिलाओं के लिए बना था. वहां कभी-कभी सावन मिलन और होली मिलन जैसे कार्यक्रम होते थें. तो गाने -बजाने में मुझे शुरू से ही मन लगता था. वहां मेरी सासु माँ बहुत अच्छा गाती थीं. हम तब कार्यक्रम में ढ़ोलक बजाते थें. तब हम ये नहीं जानते थें कि यही मेरी सासु माँ बनेंगी. वहां अनौपचारिक तरीके से हमारी मुलाकात होती थी. वे अपनी गाने-बजाने की पूरी टीम लेकर आती थीं. तब मुझे कहाँ पता था कि मैं इन्ही के घर बहू बनकर जानेवाली हूँ. मेरे लिए यह भी एक नया अनुभव रहा कि मुझे पोलिटिकल फैमली की बहू बनना पड़ा. मेरे ससुर जी इंडस्ट्रीज मिनिस्टर और जनसंघ के काफी प्रमुख संस्थापक में से रहे हैं. ससुराल में अटल बिहारी वाजपेयी, आडवाणी जी, मुरली मनोहर जोशी जी का बराबर आना-जाना लगा रहता था. जब हम शादी के बाद सुबह ससुराल आये तो तय हुआ कि शाम में मेरा सितारवादन होगा. मैं तो घबरा गयी, बहाना किया कि मैं तो सितार लायी नहीं हूँ. लेकिन सासु माँ ने एग्जीबिशन रोड स्थित  मेरे मायके से सितार मंगवा लिया. फिर ड्राईंग रूम में मेरा सितारवादन का कार्यक्रम हुआ. सासु माँ ने कहा कि ‘देखो, मेरे यहाँ का चलन है कि जो बहू आती है वो गाती है. मैंने कहा- हम तो गाते नहीं हैं, हम तो बजाकर सुना देंगे.’ लेकिन उनकी जिद की वजह से मैंने थोड़ा सा होली गीत गा दिया. तब पूरा घर मेहमानो से भरा हुआ था. जब शादी की चहल-पहल सब खत्म हुई तो हमलोग हनीमून के लिए गोवा चले गए. मैं अक्सर ससुराल में देखती की घर पोलिटिकली लोगों से भरा रहता है. मैं नयी बहू थी इसलिए जितने भी लोग मौजूद होते सबको पैर छूकर प्रणाम करना पड़ता. अच्छी-खासी एक्सरसाइज हो जाती थी. आजकल की लड़कियों का देखते हैं कि वे अलग माहौल मिलते ही तुरंत पेशेंस खो देती हैं. जरा सा भी वक़्त नहीं देतीं, एडजस्ट नहीं करतीं. जॉब करनेवाली आती हैं तो सोचती हैं कि हम क्यों झुकें, लेकिन यह गलत है. हमलोग भी जॉब करते थें. मैं तो शादी के पहले से ही नौकरी में आ गयी थी. फिर भी मैंने बाहर और घर दोनों संभाला. आजकल तो देखती हूँ कि शादी के चार महीने, साल भर भी नहीं हुए और डायवोर्स हो गया जबकि यह हमारा कल्चर नहीं है. क्यूंकि खूबसूरती सबको साथ लेकर चलने में ही है. परिवार में बहुत बड़ी शक्ति होती है. आप दूसरे घर में जाते हैं तो हर घर का अलग कल्चर होता है. आजकल तो अच्छा है कि इंटरकास्ट मैरेज हो रहे हैं, मुझे ख़ुशी है इस बात की. लेकिन पहले एक समय था कि एक ही कास्ट में, एक ही समाज में शादी हो रही है फिर भी बहुत सारी चीजों में अंतर देखने को मिलता था. तो थोड़ा सा सभी को एडजस्ट करके चलना चाहिए. मेरा बेटा हुआ तब मैं पटना वीमेंस कॉलेज में पढ़ा रही थी. मैं बच्चे को छोड़कर जाती थी. मेरी गैर मौजूदगी में बेटे की देखभाल मेरी सासु माँ कर दिया करती थीं इसलिए मैं पूरी तरह से निश्चिंत रहती थी. मैं कॉलेज से थकी हारी आती तो देखती कि घर में पॉलिटिकल लोगों की भीड़ लगी है. नौकर-चाकर होते हुए भी मैं खुद जाकर देखती कि सभी को ठीक से नाश्ता-पानी मिला कि नहीं. और घर की बड़ी बहू होने के नाते मैं इसे अपना दायित्व समझती थी. मुझे याद है कि एक रोज मैं सासु माँ को बोलकर निकली कि जरा सा माँ के यहाँ होकर आती हूँ. मैं रिक्शे से निकली और माँ के यहाँ जैसे पहुंची तो उसी टाइम ससुराल से फोन आ गया कि ‘बेटा, अटल जी आ रहे हैं तो तीन-चार लोगों का खाना देखना होगा.’ मैं उसी समय माँ को बताकर वापस लौट गयी. चूँकि अटल जी को मछली बहुत पसंद है इसलिए रास्ते में ही मछली खरीदते हुए मैं घर पहुंची. नौकर- चाकर थें घर में मगर अटल जी को मछली मैं खुद बनाकर खिलाती थी. सबसे बड़ी बात तब मुझे ये लगी कि मेरे सास-ससुर को भी यह एहसास हुआ कि उस मौके पर माया को घर में होना चाहिए तभी तो उन्होंने मुझे याद किया. तो यही होता है परिवार का प्यार और अपनापन.

About The Author

'Bolo Zindagi' s Founder & Editor Rakesh Singh 'Sonu' is Reporter, Researcher, Poet, Lyricist & Story writer. He is author of three books namely Sixer Lalu Yadav Ke (Comedy Collection), Tumhen Soche Bina Nind Aaye Toh Kaise? (Song, Poem, Shayari Collection) & Ek Juda Sa Ladka (Novel). He worked with Dainik Hindustan, Dainik Jagran, Rashtriya Sahara (Patna), Delhi Press Bhawan Magazines, Bhojpuri City as a freelance reporter & writer. He worked as a Assistant Producer at E24 (Mumbai-Delhi).

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