1941 में कोलकाता के विधासागर कॉलेज से इंटर करने के बाद राजनीति में चला आया और इतना रम गया कि फिर आगे पढाई नहीं कर पाया. लेकिन हाँ, किताबें पढ़ने का शौक अनवरत जारी रहा. मैं कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी में था, कर्पूरी ठाकुर के बाद 1979 में मैं मुख्यमंत्री बना.उसके पहले की एक घटना याद आती है जब मुझे 103 डिग्री बुखार लगा और मुझे देखने कांग्रेस के बुजुर्ग नेता भागवत सिंह और घिना सिंह आये थे. आते ही बोल पड़े – ‘ बड़े नेता बने हुए हो, इतने दिन से बीमार हो और खबर भी नहीं करवाई. क्या पार्टी छोड़ देने से सारे रिश्ते खत्म हो जाते हैं?’ और उन दोनों ने ना सिर्फ मेरी दवा दारू की व्यवस्था की बल्कि एक सप्ताह तक नाश्ता–खाना भी भिजवाते रहे. तब के नेताओं में राम मनोहर लोहिया और जे.पी. से हम ज्यादा प्रभावित थे. जय प्रकाश जी के साथ हमने रहकर काम भी किया पर कभी महसूस भी नहीं होता था कि हम बड़े नेता के साथ बैठे हैं, भाईचारा ही इतना अधिक था.
मुझे गाँव से ही कुश्ती से बड़ा लगाव था पर राजनीति में आने पर वह शौक भी छूट गया. हाँ, फिल्में देखने जाता था मगर कभी पसंद न आने पर इंटरवल के पहले या बाद में उठकर चल देता था. जब मैं इंटर में था, वहां विधासागर कॉलेज में बंगाली से ज्यादा बिहारियों की संख्या थी और कभी कभी किसी बात पर दोनों गुटों में भिड़ंत भी हो जाया करती थी पर बाद में सभी एक हो जाते थे. उस वक़्त का एक वाक्या याद है. हमारे एक प्रोफ़ेसर साहब पान के शौक़ीन थे और हमारे एक मित्र के यहाँ अक्सर चाय पीने आया करते थे. हम, हमारे मित्र और उनका नौकर भी पान खाते थे मगर वह थोड़ा तीखा होता था. एक दिन मित्र के यहाँ हम सभी बैठे थे. नौकर पान लेकर रख गया. गलती से हमारा पान प्रोफ़ेसर साहब और उनका पान हमारे मित्र ने खा लिया. उन्हें उलटी होने लगी फिर उन्हें डॉक्टर के पास ले जाना पड़ा. वे ठीक होने पर गुस्से में सबसे यही कहते की मेरे मित्र और उनके नौकर ने उन्हें जान से मारने की साज़िश की. तब यह किस्सा हमारे कॉलेज में हास्यास्पद रूप से छ गया था.