जब हम जवां थें
By: Rakesh Singh ‘Sonu’
मैं उत्तर प्रदेश के गाजीपुर का रहनेवाला हूँ. प्रारम्भिक शिक्षा गांव में हुई.चूँकि मेरे पिताजी शिक्षक थें तो उनकी जहाँ पोस्टिंग होती वहां रहकर के मुझे पढ़ने में सुविधा होती थी इसलिए 6 ठी के बाद मैं उनके साथ ही रहने लगा. 9 वीं तक की पढाई वहीँ गाजीपुर के एक कस्बे में रहकर पूरी हुई. बाद में मेरे पिताजी का ट्रांसफर तत्कालीन उत्तर प्रदेश के नैनीताल जिले में रुद्रपुर में हो गया जो अब उधम सिंह नगर के नाम से जाना जाता है. वहां से हाई स्कूल किया और इंटरमीडिएट भी मैंने यू.पी. बोर्ड से किया. फिर बी.एस.सी. करने के लिए मैं इलाहबाद यूनिवर्सिटी आया और वहां से सी.एम.पी. डिग्री कॉलेज में एडमिशन लिया. वहां बहुत सारे अच्छे मित्र बने और वहां का जीवन बहुत ही रोचक था. उस ज़माने में घर से जो पैसे आते थें वो मनीऑर्डर के जरिये आते थें. एक बार ऐसा हुआ कि मेरा मनीऑर्डर पहुँचने में बहुत देर हो गया और किसी तरह से ये बात मेरे खास मित्रों को पता चल गयी. जब अगले दिन मैं कॉलेज पहुंचा तो क्लास में मेरे पीछे बैठे एक दोस्त ने जिसका नाम लाल नागेंद्र प्रताप सिंह था उसने कहा कि ‘तुम अपनी फाइल देखो.’ मैंने फाइल खोलकर देखी तो उसमे 10 -10 के पांच नोट पड़े मिले. फिर मैंने पीछे मुड़कर उससे पूछा कि ‘ ये क्या है..?’ वह तब सिर्फ मुस्कुराकर रह गया फिर क्लास के बाहर उसने मुझसे कहा कि ‘तुम्हारे मनीऑर्डर के पैसे नहीं आये थे और तुमने हमें बताये भी नहीं, ये तो बहुत गलत बात है. तुम्हारा काम कैसे चलेगा?’ मैंने कहा – ‘ नहीं, एकाध दिन में आ जायेगा.’ तो मित्र बोला -‘ ठीक है, जब आएगा तब तुम देना.’ और जब मनीऑर्डर आया, मैं उस मित्र को वापस पैसे देने गया तो वो कहने लगा -‘ हम कहाँ भाग रहे हैं, तुमसे बाद में कभी ले लेंगे, अभी रखो.’ फिर वो दिन है और आज का दिन कि उसने पैसे मुझसे कभी वापस नहीं लिए. ये एक दोस्ती के बीच मदद का जो जज़्बा था बगैर किसी स्वार्थ के ये मुझे इलाहबाद में देखने को मिला. तब से मैंने जाना कि अभाव में कोई हो तो आगे बढ़कर उसकी मदद करनी चाहिए.
एक दूसरा वाक्या याद आता है जब मैं बिहार आया. मैं जब बी.एच.यू. में पी.एच.डी. कर रहा था तभी एक अनिश्चितकालीन हड़ताल शुरू हो गयी. तब मेरे चाचा जो रेलवे में दानापुर, बिहार में पोस्टेड थें मैं उनके पास ये सोचकर चला आया कि जब हड़ताल खत्म होगी तब मैं वापस चला जाऊंगा. लेकिन यहाँ जब आया तो चूँकि मेरी रूचि लिखने-पढ़ने और सांस्कृतिक कार्यों से जुड़े रहने की रही है तो यहाँ उसी क्षेत्र के कई मित्रों से मिलना-जुलना शुरू हो गया और तब पटना मुझे अच्छा लगने लगा. मैंने तय किया कि मुझे अगर पी.एच.डी. करनी है तो मैं पटना यूनिवर्सिटी से कर लूंगा और फिर मैंने बी.एच.यू. का मोह छोड़ दिया. लेकिन मुझे आर्थिक आधार चाहिए था. इस कोशिश में मैंने कुछ कॉलेजों में इंटरव्यू भी दिए. लेकिन उन दिनों डोनेशन लिया जाता था जो मेरे लिए संभव नहीं था और यह मुझे उचित भी नहीं लगा. फिर मैंने तय किया कि कुछ भी हो मैं लिखने-पढ़ने का ही काम करूँगा क्यूंकि मुझे यही आता था. कुछ समय पहले से ही मेरी छिट-पुट रचनाएँ- कहानियां छपने लगीं थीं. लेकिन लेखन को गंभीरता से करियर बनाने का ख्याल मुझे पटना आने के बाद ही आया. संयोगवश उसी वर्ष 1985 में पाटलिपुत्रा टाइम्स की शुरुआत होनेवाली थी और वहां मेरे एक परिचित पत्रकार मित्र विकास कुमार झा और एक वरिष्ठ कथाकार रॉबिन शॉ पुष्प प्रबंधन की अनौपचारिक कमिटी से जुड़े हुए थें. वे जानते थें कि मैं स्ट्रगलर हूँ और लिखने-पढ़ने का शौक रखता हूँ इसलिए उन्होंने मुझे कहा कि ‘बेहतर होगा तुम यहाँ ज्वाइन कर लो.’ फिर मेरा छोटा सा इंटरव्यू हुआ और ट्रेनिंग के तौर पर मैंने पाटलिपुत्रा टाइम्स अख़बार ज्वाइन कर लिया. ये बिल्कुल नयी टेक्नोलॉजी का अख़बार था और जिसके पहले संपादक थें माधवकांत मिश्रा. वहां एक बहुत जोशीली टीम थी जिसके साथ मिलकर काम करने में बहुत ही मजा आया और सीनियर्स के साथ रहकर सीखने के बहुत अवसर मिले. इसी दरम्यान संपादक को यह पता चला कि मेरी रूचि साहित्य में भी है तो उन्होंने मुझे खासतौर पर फीचर का पन्ना सँभालने के लिए दे दिया. उस ज़माने में वह फीचर पन्ना बिहार में बहुत ही ज्यादा लोकप्रिय हुआ. ठीक एक महीने बाद मुझे 50 रूपए का इंक्रीमेंट मिल गया. तो ये मेरे काम का रिवार्ड था जिससे मेरी पहचान बन रही थी. वो 1986 की बात है वहां तक़रीबन 8 -9 महीने काम करते हुए थे तभी पटना में दैनिक हिन्दुस्तान लॉन्च होने जा रहा था. तब वो अख़बार ‘प्रदीप’ के नाम से निकलता था और जल्द ही हिन्दुस्तान के रूप में कन्वर्ट होने वाला था. मैं उन दिनों ऐसे ही घूमते हुए शाम को ‘प्रदीप’ के दफ्तर में चला गया. तब ‘पाटलिपुत्रा टाइम्स’ में जो न्यूज एडिटर थें अशोक रजनीकर जिन्हें हमलोग चचा कहते थें, उन्होंने वहां हिन्दुस्तान के लिए ज्वाइन कर लिया था. जैसे ही उनकी नज़र मुझपर पड़ी तो उन्होंने मुझसे कहा -‘ तुमने यहाँ हिन्दुस्तान के लिए अप्लाई किया है या नहीं..? मैंने कहा – ‘नहीं चचा, नहीं किया है.’ वे गाली- गलौज वाली भाषा में प्यार से बोलते थें. मुझसे बोलें -‘ अरे साले, तो तुम देख क्या रहे हो, जल्दी से एप्लिकेशन लिखकर ले आओ.’ और मैं दफ्तर से बहार निकला. वहीँ एक फोटोस्टेटवाले से फुल स्केप कागज लिया और चाय की दुकान पर बैठकर अनौपचारिक रूप से एक एप्लिकेशन लिखा और फिर अशोक रजनीकर जी को दे आया. उन्होंने मेरा एप्लिकेशन फाइल में लगा दिया और कहा कि ‘कल आ जाना, इंटरव्यू है.’ अगले दिन रविवार था और उस दिन मेरी वीकली छुट्टी का दिन होता था. तो मैंने आराम से वीणा सिनेमा हॉल में 10 से 12 की फिल्म देखी और उसके बाद टहलते- घूमते हुए हिन्दुस्तान कार्यालय पहुंचा जहाँ इंटरव्यू के लिए पत्रकारों की बहुत भीड़ लगी हुई थी. थोड़ी देर बाद वहां प्रबंधन से एक प्यून आया और कहा-‘ अवधेश प्रीत को छोड़कर बाकी लोगों का इंटरव्यू कल होगा.’ सबलोग भौंचक रह गए कि आखिर ये हुआ क्या? सबने कहा कि ‘ नहीं, हम छुट्टी लेकर आये हैं, इसलिए आज ही हमारा इंटरव्यू हो जाता तो ठीक रहता.’ फिर प्रबंधन की तरफ से सूचना दी गयी कि ‘ ठीक है, अवधेश प्रीत के बाद आपलोगों का इंटरव्यू होगा’. और फिर मुझे बुलाया गया. तब इंटरव्यू लेने वालों में दैनिक हिंदुस्तान के होनेवाले पहले संपादक श्री हरिनारायण निगम, वाइस प्रेसिडेंट श्री वाई.सी.अग्रवाल और वाइस चेयरमैन नरेश मोहन मौजूद थें. उन्होंने इंटरव्यू लेना शुरू किया और बहुत ही अनौपचारिक बातचित शुरू हुई. उन्होंने जो कुछ मुझसे पूछा मैंने बताया. बाबा नागार्जुन का मैंने एक इंटरव्यू किया था जो उसी दिन पाटलिपुत्रा टाइम्स में फीचर के पहले पन्ने पर छपा था. उसे मंगाकर भी उनलोगों ने देखा और फिर मेरा इंटरव्यू संपन्न हुआ. बाहर निकलने के 5 मिनट बाद फिर मुझे बुलाया गया और पूछा गया कि ‘कब से ज्वाइन कर रहे हो?’ मुझे ख़ुशी हुई क्यूंकि दैनिक हिंदुस्तान तब एक राष्ट्रिय अख़बार था जिसकी एक पहचान थी और उसमे मुझे प्रवेश का मौका मिल रहा था. मैंने कहा -‘आप जब कहें, मैं ज्वाइन कर लेता हूँ.’ फिर चलते चलते उन्होंने एक सवाल पूछा कि ‘अच्छा ये बताइये कि आजकल बिहार में दाढ़ी ना बनाने का फैशन है क्या..?’ संयोग से उस दिन रविवार था और मैंने दाढ़ी नहीं बनवायी थी. मैंने कहा -‘ नहीं, ऐसा कुछ नहीं है, शेव तो मैं करना चाह रहा था लेकिन जिस सैलून में गया वहां सन्डे की वजह से बहुत भीड़ थी और मुझे यहाँ टाइम पर पहुंचना था. तो मुझे ये ज्यादा ज़रूरी लगा कि यहाँ समय पर पहुंचा जाये बजाये इसके कि शेव कराया जाये’. मेरा जवाब सुनकर वे बहुत प्रसन्न हुए. फिर सब एडिटर के पोस्ट पर मैं जब ज्वाइन करने पहुंचा तो देखा वहाँ सारे चयनित साथी भी प्रतीक्षा कर रहे थें. और देर शाम तक नामों की घोषणा होती रही क्यूंकि तब तक लेटर तैयार नहीं हो पाया था. लेकिन पूरी सूचि में मेरा नाम कहीं नहीं था इसलिए मेरे नाम की घोषणा नहीं हुई. मैं सीधे नरेश मोहन जी से जाकर मिला और उन्हें वस्तुस्थिति बताई. उन्होंने तुरंत विज्ञापन अधिकारी को तलब किया और पूछा कि ‘ अवधेश प्रीत के नाम की घोषणा क्यों नहीं हुई?’ उसने लिस्ट देखकर कहा -‘ सॉरी सर, गलती से छूट गया है.’ तब जाकर मैंने राहत की सांस ली. थोड़े दिनों पहले ही बिहार में नवभारत टाइम्स भी शुरू हो गया था जिससे हिंदुस्तान का कम्पटीशन बहुत तगड़ा हो गया था. बावजूद इसके हिन्दुस्तान ने बड़ी तेजी से यहाँ अपनी जड़ें जमानी शुरू कीं और धीरे-धीरे ये बिहार का नंबर एक अख़बार बन गया. हिंदुस्तान का पहला संस्करण दिल्ली के बाद पहली बार तब पटना से ही शुरू हुआ था.
एक बार मेरे जेहन में ये बात उठी कि अख़बार के कर्मचारियों के हितों के लिए भी काम किया जाये. और मैंने हिंदुस्तान टाइम्स इम्प्लाई यूनियन के महासचिव के पद के लिए नामांकन भरा. कुछ ऐसा संयोग हुआ कि तब बाकी साथियों ने मेरी वजह से अपने नाम वापस ले लिया. और फिर मैं निर्विरोध हिंदुस्तान टाइम्स इम्प्लाई यूनियन का महासचिव चुना गया. दो टर्म मैंने लगातार काम किया और मुझे इस बात का संतोष है कि मैंने उस दौरान कर्मचारियों के हितों के लिए बहुत से काम कराएं बल्कि जो पूर्व में काम नहीं हुए थें वो भी पूरे कराएं. पहली बार हिंदुस्तान टाइम्स के कैम्पस में यूनियन के लिए ऑफिस एलॉट कराया. पहली बार ऐसा हुआ कि कर्मचारियों के लिए मैंने वहां रेस्टरूम की व्यवस्था कराई. उनके स्वास्थ जाँच के लिए वहां डॉक्टर की बहाली कराई. खास तौर से नॉन जर्नलिस्ट और फोर्थ ग्रेड के कर्मचारियों के लिए एक यूनिफॉर्म की व्यवस्था कराई. एक लड़ाई लड़के नॉन जर्नलिस्टों की सैलरी में भी सुधार करवाया. तब मेरे सहयोगी साथियों ने भी मेरी बहुत मदद की. उन दिनों हम आंदोलनों से भी जुड़े रहें. खास तौर से पत्रकारिता के क्षेत्र में जहाँ कुछ गलत होता उसके लिए हम खड़े होते थें. इसी क्रम में हमने बिहार श्रमजीवी पत्रकार संघ के बैनर तले ‘आर्यावर्त’ एवं ‘इंडियन नेशंस’ के कर्मचारियों के हितों के लिए लम्बी लड़ाई भी लड़ी. दरभंगा जाकर धरना-प्रदर्शन भी किया.
एक और वाक्या याद आता है जब सम्पादकीय विभाग में अचानक कुछ कुर्सियां कम पड़ गयीं. हमारे कई साथी खड़े रह गए. जब ये बातें तत्कालीन संपादक हरी नारायण निगम जी को पता चली तो उन्होंने प्रबंधन के एक व्यक्ति को अपने चेंबर में बुलाया और कहा कि ‘ मेरी कुर्सी उठाकर यहाँ से ले जाइये.’ वो व्यक्ति यह सुनकर हक्का बक्का रह गया. फिर निगम जी ने उससे कहा -‘ जब मेरे स्टाफ को बैठने के लिए कुर्सी की व्यवस्था नहीं है तो मैं कुर्सी पर बैठकर क्या करूँगा?’ तो उस समय के संपादक काफी जमीं से जुड़े हुए हुआ करते थें. खासतौर से हरिनारायण जी के अंदर मैंने कभी अहम बोध नहीं देखा. वे हमारे पत्रकार साथियों के साथ ही सड़क पर निकल जातें, उनके साथ ही चाय-नास्ता भी कर लेते थें. तब पत्रकार पत्रकार हुआ करता था और संपादक बॉस की तरह पेश नहीं आता था. एक बात और मैं कहना चाहूंगा कि आज पत्रकारिता एवं साहित्य में जो रिश्ता है वो उतना प्रगाढ़ नहीं है. लेकिन हमने जब पत्रकारिता शुरू की थी तो वैसी बात नहीं थी. तब साहित्य के प्रति भी एक गहरा लगाव था और चूँकि मैं साहित्य का विद्यार्थी था. तब मेरी पहली कहानी ‘मुल्क’ जो बहुत ज्यादा लोकप्रिय हुई ‘हंस’ मैगजीन में छपी थी. उसके बाद से अन्य पत्र-पत्रिकाओं में भी मेरी रचनाएँ-कहानियां छपने लगीं. 1987 में संयोग से ऐसा हुआ कि एक पब्लिशर हिंदुस्तान आया- जाया करते थें और उन्हें जब पता चला कि मैं कहानीकार भी हूँ और उन दिनों लगातार छप रहा हूँ तो व्यक्तिगत रूप से उन्होंने मुझसे आग्रह किया कि ‘ आप अपनी पाण्डुलिपि दे दें.’ तो ऐसे में मुझे कोई प्रकाशन नहीं ढूँढना पड़ा. फिर उसी साल मेरा पहला कहानी संग्रह ‘हस्तक्षेप’ प्रकाशित हुआ. उसके बाद मैं लगातार साहित्य में लेखन के साथ पत्रकारिता भी करता रहा और सबसे अहम बात मेरे साथ ये रही कि मैंने लगातार युवाओं के साथ जुड़कर काम किया. कई ऐसे अवसर भी आये जब मैंने कुछ युवाओं को आर्थिक एवं दूसरे तरह की भी सहायता दी ताकि उनका स्ट्रगल कमजोर ना पड़े और मुझे ख़ुशी है कि उनमे से कई-एक आज विभिन्न मीडिआ क्षेत्रों में बहुत बढ़िया काम कर रहे हैं.
जानदार और उम्दा sir अगली कड़ी के इंतजार में आशु
आपकी जीवन यात्रा के कुछ पन्ने पढ़कर अच्छा लगा। प्रेरणादायी सफर है आपका
अवधेश प्रीत सर से एक छोटा सा परिचय मेरा भी रहा है. वर्ष 2003-04 में में दैनिक जागरण में फ्रीलांसिंग करता था. जागरण का शायद ही कोई फीचर पेज हो जिसके लिए मैंने नहीं लिखा. फैशन, महिला, शिक्षा, साहित्य, पुस्तक समीक्षा और यहां तक कि करियर सलाह तक दिया करता था. जागरण जोश का वह पन्ना आज भी छपता है जिसमें करियर सलाह दी जाती है.उस कॉलम को मैंने डेढ़ साल तक लिखा था. हर सप्ताह ढेरों चिट्ठियों का जवाब दिया करता था. तब पटना के फीचर संपादक लोग मुझे नाम से जानने लगे थे. हालांकि संकोची स्वभाव का होने की वजह से मैं जागरण के अलावा कहीं जाता नहीं था. पढ़ाई से जो समय बचता था उसे जागरण को समर्पित कर दिया था. एक बार बस यूं ही किसी मित्र के साथ हिंदुस्तान के फ़ीचर डिपार्टमेंट चला गया. मित्र ने अवधेश प्रीत सर से परिचय कराया.वे मुझे पहचान गए. मुझे आश्चर्य हुआ कि कभी मिला नहीं,तो कैसे पहचान गए. ये जागरण का स्थापित लेखक होने का ही परिणाम था. वे बड़ी आत्मीयता से मिले. हिन्दुस्तान में लिखने का आफर दिया.फिर मैंने लिखना शुरू किया.कुछ ही दिनों तक लिखा फिर मैं पटना में नए लांच हो रहे अखबार राष्ट्रीय सहारा की टीम से जुड़ गया.लेकिन महज एक महीना बाद प्रभात खबर पटना से जुड़ने का मौका मिला. उसके बाद फ्रीलांसिंग छूट गई. फिर 2007 में ई टीवी बिहार-झारखंड न्यूज़ चैनल से जुड़ा और 9 सालों तक दरभंगा में रहा. एक साल पहले जागरण मुज़फ़्फ़रपुर और अब प्रभात खबर में दोबारा वापसी देवघर डेस्क पर. लेकिन इस दरम्यान अवधेश प्रीत सर के बारे में जब भी कुछ पढ़ता हूं बहुत खुशी होती है.वे मेरे जैसे अनगिनत पत्रकारों-लेखकों की प्रेरणा हैं. ईश्वर उन्हें हमेशा सफल और सुखी बनाएं रखें. यही कामना है.
बेहतरीन और प्रेरक
प्रेरक और मार्गदर्शक जीवन यात्रा
Dhanyvad
Dhanyvad
Dhanyvad Aapka, Bolo Zindagi par aane or Avdhesh Preet ji ko padhne ke liye..
Dhanyvad
Dhanyvad
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