(स्टोरी – राकेश सिंह ‘सोनू’, रिपोर्टिंग – प्रीतम कुमार) पटना, 24 नवम्बर, रविवार, “शिक्षा दे शक्ति,बाल-मजदूरी से मुक्ति…”, “चलो अब शुरुआत करें, बाल-विवाह का नाश करें…”, “ऐसा कोई काम नहीं जो बेटियाँ ना कर पायी हैं, बेटियाँ तो आसमान से तारे तोड़ लायी हैं…”, “दहेज हटाओ, बहु नहीं बेटी बुलाओ…”, “पर्यावरण का रखें ध्यान, तभी देश बनेगा महान…” अपने-अपने हाथों में जागरूकता हेतु ये स्लोगन की तख्तियां लेकर जब लगभग 40 की संख्या में शहर से आये बच्चे स्कूली बस से उतरें तो यह देखकर ‘बीर’ गांव के निवासी भी दंग रह गयें. यह नजारा था कार्यक्रम “आओ गाँव चलें” का जिसका आयोजन बोलो ज़िन्दगी फाउंडेशन ने किया था. जिसके तहत स्कॉलर्स एबोड स्कूल के वैसे बच्चों को धनरुआ प्रखंड के बीर-ओरियारा गाँव भ्रमण पर ले जाया गया जो आज़तक कभी गाँव नहीं गए थें, जिन्होंने रियल लाइफ में गाँव होता कैसा है देखा ही नहीं था. जिन्होंने इससे पहले गाँव को सिर्फ किताबों में पढ़ा और फ़िल्म-टीवी में देखा था. इस कार्यक्रम का उद्देश्य था शहरी कल्चर में पले-बढ़े बच्चों को ग्रामीण संस्कृति से रूबरू कराने के साथ ही उन्हें किताबों से इतर व्यवहारिक शिक्षा भी देना.
गाँव जा रहे बच्चों के स्कूली बस को रविवार की सुबह हरी झंडी देकर रवाना किया पटना के जानेमाने चिकित्सक डॉ. दिवाकर तेजस्वी, स्कॉलर्स एबोड की प्राचार्या डॉ. बी. प्रियम एवं बोलो ज़िन्दगी के निदेशक राकेश सिंह ‘सोनू’ ने. ये सभी अतिथि स्कूली बच्चों के साथ खुद भी गाँव भ्रमण पर गयें.
हरी झंडी देने के पहले इस अवसर पर बोलो ज़िन्दगी फाउंडेशन के डायरेक्टर राकेश सिंह ‘सोनू’ ने कहा कि “कभी पटना में वैसे एक-दो बच्चों से मुलाक़ात हुई थी जो कभी गांव ही नहीं गए थें, तब वहीं से आइडिया आया कि ऐसे बहुत से बच्चे शहर में होंगे तो क्यों नहीं उन्हें ले जाकर ग्रामीण संस्कृति से रु-ब-रु कराया जाए…कि जो अनाज हम खाते हैं उसकी फ़सल गांव के किसान कैसे उपजाते हैं, उन्हें खेत-खलिहान भी दिखाया जाए, डायनिंग टेबल पर खानेवाले बच्चों को गांव में दरी पर बैठाकर पत्तल में खिलाया जाए, मिट्टी के चुक्के में पानी पिलाया जाए. मतलब उन्हें भी गाँव की संस्कृति से जोड़ा जाए.”
वहीं स्कॉलर्स एबोड की प्राचार्या डॉ. बी. प्रियम ने कहा ” सच में इस यात्रा से हमारे बच्चे कुछ-ना-कुछ अच्छा सीखकर ही अपने घर लौटेंगे यह हमें विश्वास है. और तमाम अभिभावकों से हम यही अपील करना चाहेंगे कि वो अपने बच्चों को कभी-कभी गाँव ज़रूर घुमाएं जिससे उनका अनुभव बेहतर होगा.”
वहीं डॉ. दिवाकर तेजस्वी ने कहा कि “यह स्कूली बच्चे जिस गाँव (बीर) में जा रहे हैं वो मेरा खुद का गांव है. ‘बीर’ गाँव में बच्चे किसानों और गाँव के मुखिया से मिलेंगे, खेत-खलिहान और फसलों को देखेंगे, गांव के सरकारी स्कूल, मंदिर, तालाब का भी भ्रमण करेंगे. खुद से पौधरोपण कर पर्यावरण संरक्षण का सन्देश भी देंगे. कभी गाँव नहीं गए बच्चों के लिए यह नया अनुभव होगा.”
पहली बार गांव देखने की उत्सुकता लिए ये बच्चे ‘बीर’ गांव में सबसे पहले तालाब के रास्ते से चलते हुए गांव के प्राइमरी एवं मीडिल स्कूल में पहुँचे. हालाँकि रविवार की छुट्टी होने की वजह से स्कूल की कक्षाएं बंद थीं लेकिन फिर भी सभी बच्चों ने जिज्ञासावश स्कूल परिसर में दाखिल होकर यह देखना चाहा कि आखिर गांव का सरकारी स्कूल दिखता कैसा है…! वहां से बच्चों को साथ लिए फाउंडेशन की टीम गांव के मुखिया के घर पहुंची. उसी क्रम में कुछ बच्चों ने जानना चाहा कि मुखिया किसे कहते हैं…? तो किसी ने उनकी जिज्ञासा यह कहकर शांत की कि मुखिया गांव का हेड होता है. मुखिया विभा देवी जी घर में मौजूद नहीं थीं तो बच्चे जब उनके सास-ससुर से मिलें तो यह सवाल पूछ बैठें कि “आपलोग गांव के हेड हो तो आप पूरे गांव को कैसे सँभालते हो…?” इसपर मुखिया के ससुर जी ने वाजिब जवाब देकर बच्चों की जिज्ञासा शांत की. वे भी इस कार्यक्रम का उद्देश्य जानकर इतने खुश हुए कि संग-संग बच्चों की टोली के साथ बाहर गांव की सैर पर निकल पड़ें.
रास्ते में बच्चों ने गांव का पोस्ट ऑफिस देखा, घास चरती हुईं बकरियों को देखा, खेतों में किसानों को काम करते हुए देखा. और जब एक जगह चांपाकल देखा तो फिर चांपाकल चलाकर पानी पीने की बच्चों में होड़ सी लग गयी. गला तर करते ही तारीफ के शब्द भी निकलें कि “वाह, कितना मीठा पानी है.”
वहां से बच्चों का जत्था पहुँचा गांव में खुली संस्था ‘पहल’ के ऑफिस में जिसे डॉ. दिवाकर तेजस्वी एवं उनके कुछ दोस्तों ने शुरू किया है. बच्चों को ‘पहल’ के बारे में यह जानकारी दी गयी कि यहाँ गांव कि लड़कियों-महिलाओं को मुफ्त में कम्प्यूटर व सिलाई-कढ़ाई का प्रशिक्षण दिया जाता है, ताकि वे आत्मनिर्भर बन सकें. फिर डॉ. साहब के नेतृत्व में स्कूली बच्चों ने वहीँ पास के खेत में चलकर खुद अपने हाथों पौधरोपण करने के साथ ही पर्यावरण संरक्षण का सन्देश दिया.
अब बच्चों को भूख लगनी शुरू हो गयी थी. कार्यक्रम के अंतिम पड़ाव में बोलो जिंदगी फाउंडेशन की टीम उन्हें लेकर पास के ही ओरियारा गांव पहुंची जहाँ के प्रसिद्ध महादेव मंदिर का दर्शन कराने के बाद वहीँ के धर्मंशाला परिसर में भोजन कराने की व्यवस्था शुरू हुई. शायद पहली बार जमीं पर एक साथ पंगत में बैठकर ये बच्चे यूँ खाना खाने बैठे थें. उन्हें पत्ते के पत्तल पर पूरी, सब्जी और खीर परोसकर खिलाया गया और मिट्टी के कुल्हड़ में पानी पिलाया गया. इस तरह से भोजन करने और मिट्टी के कुल्हर में पानी पीने का बहुत ही सुखद अनुभव महसूस किया बच्चों ने. बच्चों के खाने-पीने की व्यवस्था का सारा दारोमदार बोलो जिंदगी फाउंडेशन की टीम-कॉर्डिनेटर तबस्सुम अली का था. और सुबह से शाम तक की इस यात्रा में शामिल सारे बच्चों की देखरेख भी तबस्सुम के नेतृत्व में हुआ.
वहीं फाउंडेशन के प्रोग्रामिंग हेड प्रीतम कुमार ने इस कार्यक्रम के सञ्चालन के साथ ही फोटोग्राफी का दायित्व भी उठा रखा था. शाम 5 बजे गाँव से सभी बच्चों को साथ लेकर फाउंडेशन की टीम पटना के लिए रवाना हुई. रास्ते में बच्चों की आपस में यही बातचीत चल रही थी कि घर पहुंचकर हम मम्मी-पापा को बताएँगे कि गांव में हमने क्या-क्या देखा और किस तरह से इंज्वाय किया. शाम के इस सफर को और सुहाना बनाने के लिए बोलो जिंदगी फाउंडेशन की तबस्सुम अली एवं प्रीतम कुमार ने बच्चों को दो ग्रुप में बांटकर अंत्याक्षरी की महफ़िल सजा दी. पटना पहुँचते हुए देर शाम हो चुकी थी लेकिन इन बच्चों के चेहरे पर थकान का ज़रा सा भी एहसास नहीं हो रहा था सिवाए उल्लास और आनंद के.
“आओ गाँव चलें” कार्यक्रम को सफल बनाने में डॉ. बी. प्रियम, अनुजा श्रीवास्तव, पंकज कुमार, डॉ. दिवाकर तेजस्वी, राकेश सिंह ‘सोनू’, तबस्सुम अली, प्रीतम कुमार, नीरज कुमार, दीपक कुमार एवं सुबी फौजिया का विशेष योगदान रहा.