
मैं अपने घर में सबसे छोटी होने की वजह से बहुत दुलारी थी. बचपन बहुत ठाठ से गुजरा था. अभाव शब्द का कभी मुझे एहसास नहीं हुआ था लेकिन दिल्ली आते ही मुझे एहसास हो गया. दिल्ली में अकेली लड़की सर्वाइव कैसे करे, किराये का मकान कैसे मिले, इसकी टेंशन रहती थी. नौकरियां मुझे बहुत आसानी से मिल गयीं लेकिन सैलरी बहुत कम थी तो घर का किराया, उसी में खाना-पीना और आना-जाना सब मैनेज करना पड़ता था. हमलोगों का जो बैच बिहार से आया था उनमे एक-से-एक लोग थे जो आज सभी हाइट पर पहुँच गए हैं. उस समय एक दूसरे से बड़ा भाईचारा था. स्ट्रगल के दिनों में अक्सर हमारी जेबों में पैसे कम होते थे तो हम सब संघर्षशील दोस्त मिलजुलकर एक दूसरे पर खर्च करते थे. घरवालों का उसी समय असहयोग देखने को मिला जब मैं दिल्ली में थी और एकदम घर से कट गयी थी. क्यूंकि उनकी मर्जी के विरुद्ध था मेरा पत्रकारिता में आना. वे चाहते थे कि मैं कॉलेज में प्रोफ़ेसर बन जाऊं और बिहार में ही रहूं. बहुत बाद में जब मैं स्टैब्लिश हुई और थोड़ा नाम हुआ तब घरवालों को लगा कि अरे, ये तो बड़ा काम कर रही है. फिर उन्हें मेरा काम भी जंचने लगा.
हम बिहारियों के लिए 90 के दशक में जर्नलिज्म संदिग्ध पेशा समझा जाता था, लड़कियों के लिए तो प्रतिबंध जैसा था. कस्बाई लड़कियां पारंपरिक पेशे के सिवा कुछ और बनने के सपने देख भी नहीं सकती थीं. उस दौर में लड़कियां नौकरी के सपने देखती थीं मगर समाज परिवार के बनाए या तय किए ढांचे के तहत ही देखती थीं. पत्रकारिता के बारे में सोचना दूभर था. लड़को के लिए कम दुष्कर नहीं था. मध्यवर्गीय परिवारों में लड़की की शादी के लिए पत्रकार लड़के आखिरी विकल्प थे. मध्य वर्ग और उच्च मध्यवर्ग जहां डॉक्टर, इंजीनियर, प्रोफेसर दामाद के सपने देखता था वहीं उच्च वर्ग आईएएस दामाद खरीदने की ताकत रखते थे. पत्रकार बने लड़को के बारे में आम धारणा थी कि “चौब्बे गए थे छब्बे बनने, दूबे बन के आए,” यानी गया था दिल्ली कलक्टर बनने, जब कुछ न बन सका तो पत्रकार बन गया. हर तरफ से हारा हुआ एक प्रतिभाशाली लड़का पत्रकार बन जाता था और ऐसे लड़को को दहेज कम मिलती थी. रिश्ते ही बहुत कम आते थे. पत्रकार क्या होता है, तब तक ठीक से समझा ही नही गया था. तब आज के जैसी ऊंची औकात ( इलेक्ट्रोनिक मीडिया) भी तो नहीं थी. उस दौर में मैंने कई पुरुष साथियों की हालत देखी थी, जो बिहार से ताल्लुक रखते थे. जब लड़को का ये हाल था तब लड़कियों के बारे में सोच सकते हैं कि उनकी दशा क्या रही होगी. ऐसे माहौल में मैं पत्रकारिता कर रही थी. कुछ भी फेवर में नहीं था. महिलाएं तो तब हिंदी पत्रकारिता में बहुत कम थीं. जब दिल्ली के रफी मार्ग स्थित आईएनएस बिल्डिंग से निकलकर कभी चुनाव कवरेज के लिए बस से चुनाव क्षेत्र में जाती तो तब देखती कि कई मर्द रिपोर्टर के साथ मैं ही एक अकेली लड़की हूँ. अब सोचिये मेरी क्या हालत होती होगी. तब सभी कहते कि तुम भी अपने को लड़का ही मानो. फिर मेरे अंदर से एहसास ही गायब हो गया था कि मैं फीमेल हूँ. तब मुझे रिपोर्टिंग में इतना आनंद आने लगा कि मुझे लगता कि मैं पैदा ही इसी प्रोफेशन के लिए हुई हूँ. ये किस्मत की बात है कि जो आपका पैशन हो, वही आपका प्रोफेशन बन जाये. दिल्ली में बैचलरों के लिए आज शायद कम परेशानी है क्यूंकि पीजी का चलन है. लेकिन हम जब 1991 में दिल्ली आए तब लक्ष्मीनगर मोहल्ले में लड़कियों को जल्दी घर किराये पर नहीं मिलता था.


मेरे स्थानीय मित्र तब बहुत हेल्प करते थे घर दिलाने में. अकेली लड़की को तब बहुत तरह की दिक्कतें होती थीं जिनमे रात को घर लौटना भी शामिल है. लेकिन दिल्ली हमारे टाइम में आज की तरह उतनी अनसेफ नहीं थी. मैं एक किराये के कमरे में अकेली रहती थी जिसमे एक छोटा सा किचन और बाथरूम होता था. कई मकान में बाथरूम भी शेयर करना पड़ता था. लोग अजीब संदेह की निगाह से देखते थें. कोई आ जा नहीं सकता था, मकान मालिक की पाबंदी थी. तब भी दिल्ली का किराया बहुत हाई था. जो सैलरी मिलती थी उस समय, सब किराये और आने-जाने में खर्च हो जाता था. घर से कोई हेल्प नहीं लिया. पढ़ाई भी मैंने स्कॉलरशिप से की थी. छुट्टियों में मैं नेशनल वोलेंटियर बनती थी तो उससे पैसे कमाए मैंने. शुरू से मैं आर्थिक रूप से काफी हद तक आत्मनिर्भर रही. कभी सोचा नहीं पैरेंट से पैसे मंगाऊं और वैसे भी वे नाराज थे कई सालों तक. मेरा सौभाग्य रहा कि संघर्ष के दिनों में ही पत्रकारिता में पहले से स्थापित एक दोस्त का साथ मिला जिनसे मेरी शादी हुई और मेरा सफर आसान हो गया.
उसके पहले जीवन आसान नहीं था. मकान बदलते बदलते परेशान हो चुकी थी. सुरक्षित पनाहगाह की खोज में कई घर बदले. लक्ष्मीनगर से तंग आ गयी तो राजस्थान पत्रिका में मेरे तत्कालीन बॉस स्व. सी.बी.ठाकुर जिनके अंडर में मैं ट्रेनिंग कर रही थी वे जिस सोसायिटी में रहते थें वहीँ उन्होंने मुझे एक रूम दिलवाया. फिर मैं बहुत सेफ जगह आ गयी, जहाँ फैमली जैसी फीलिंग थी. ट्रेनिंग के बाद मैं फ्रीलांस करने लगी थी क्यूंकि फ्रीलांसिंग में बहुत मजा आता था. सभी अख़बारों में आप एक साथ छपते हैं ना तो वो फीलिंग ही कुछ और होती है. उस वक्त मुझे कहा जाता था दिल्ली में अपने समय की सबसे अधिक छपनेवाली फ्रीलांसर है. तब नौकरी से ज्यादा तो फ्रीलांसिंग से कमाती थी. फिर कुछ ही महीने के बाद बैठे-बिठाये मुझे नौकरी मिल गयी. उस दौर का बड़ा अखबार, पायोनिर ग्रुप का हिंदी “स्वतंत्र भारत” अखबार में दिल्ली ब्यूरो के लिए वैकेंसी निकली थी. सब एडिटर का पोस्ट था. संपादक थे घनश्याम पंकज, जो लखनऊ और दिल्ली में आना जाना करते रहते थे. दिल्ली ब्यूरो में फीचर प्रभारी, रेखा तनवीर एक दिन आईएनएस बिल्डिंग की सीढ़ियों पर टकरा गईं. रेखा जी को फेमिना (टाइम्स ऑफ इंडिया समूह की पत्रिका) के जमाने से जानती थी. मैं वहां भी खूब लिखती थी. दिनमान टाइम्स और फेमिना का दफ्तर एक साथ ही था. मैं दोनों में छपती थी. रेखा जी से परिचय था. उन्होंने मुझे देखा और सीधा पूछ लिया- ‘नौकरी करोगी, एक जगह बनी है आ जाओ.’ रेखा जी के सवाल में नौकरी का ऑफर छुपा था. मैं अचकचाई-सी वहीं से उनके साथ दफ्तर चली गई और सबकुछ इतनी जल्दी हुआ कि घर आकर सबको शाम को बताया. तब मोबाइल फोन नहीं होते थे कि फोन करके बताऊं या पूछूं. तब मैं नौकरी के मूड में थी भी नहीं. पीएचडी कर रही थी. अपने विषय से जूझ रही थी. बीच बीच में अखबारो के दफ्तर में लिखने के लिए चक्कर लगाती थी. ‘स्वतंत्र भारत’ में अचानक मिली नौकरी ने जीवन की दिशा ही बदल दी. वहां से मेरा करियर टर्न लिया. उसी नौकरी के चक्कर में मेरी पी.एच.डी. छूट गयी. क्यूंकि जर्नलिज्म का नशा ही कुछ ऐसा होता है कि उसके आगे कुछ और नहीं दिखता. ‘स्वतंत्र भारत’ जब ज्वाइन किया तो मैं फीचर डिपार्टमेंट में डेस्क पर थी. तब होता ये था कि और शायद आज भी कि हिंदी जर्नलिज्म में जब कोई लड़की आती है तो उसे सबसे पहले शॉफ्ट काम देते हैं कि कला-संस्कृति करो, सिनेमा करो, तुमको और कोई समझ नहीं है. तो मुझे भी जो मिलता मैं वही करने लगी. कला संस्कृति की मुझे समझ नहीं थी फिर भी मैंने किया.


उसके बाद से अबतक मैं फ्रीलांस पत्रकारिता कर रही हूँ और क्रिएटिव राइटिंग में भी आ गयी हूँ. सक्रिय पत्रकारिता में रहते हुए क्रिएटिव राइटिंग की रफ्तार सुस्त थी. बमुश्किल दो तीन किताबें छपी थीं. जबकि मैं कहानी-उपन्यास लिखना चाहती थी. अबतक मेरे तीन कहानी संग्रह आ चुके हैं. पहला उपन्यास छपकर आनेवाला है वाणी प्रकाशन से. जीने को और क्या चाहिए. पत्रकारिता में जितना संघर्ष किया, जितनी चुनौतियां मिली, उतनी ही सफलता और नाम हासिल भी किया. पत्रकारिता ने बहुत तपाया, बहुत अनुभव दिए और ठोस बनाया. मेरा स्वाभिमान और साहस उसी की देन है. संघर्ष का माद्दा वही से सीखा. पत्रकारिता के बड़े बड़े पुरस्कार और फेलोशिप हासिल हुए. संपादक बनने का ख्वाब भी पूरा हुआ. भले इस ख्वाब की अवधि छोटी रही. संघर्ष कभी खत्म नहीं होता यहां. पहले पाने का संघर्ष फिर टिके रहने का संघर्ष. स्त्रियों के लिए वैसे भी पत्रकारिता में ग्लास सिलिंग है…ऊपर तक जाने के संघर्ष बहुत घने हैं और पहुंचना आज भी दुष्कर.