हिंदी पत्रकारिता ( प्रिंट) में महिलाओं की चुनौतियां ज्यादा, साबित करना पड़ता है खुद को : गीताश्री, कथाकार एवं पूर्व सहायक संपादक, आउटलुक

हिंदी पत्रकारिता ( प्रिंट) में महिलाओं की चुनौतियां ज्यादा, साबित करना पड़ता है खुद को : गीताश्री, कथाकार एवं पूर्व सहायक संपादक, आउटलुक

 

मैं मुजफ्फरपुर, बिहार की हूँ. मेरे पिता जी पुलिस विभाग में थे और उनका ट्रांसफरेबल जॉब  होने की वजह से मेरी पढ़ाई एक नहीं, कई स्कूलों में हुई. मेरा लास्ट स्कूल मुजफ्फरपुर जिला के एक छोटे से कस्बे काँटी में था जहाँ से मैंने हाई स्कूल पास किया. फिर मुजफ्फरपुर में ही एम.डी.डी.एम.कॉलेज से वहीँ के हॉस्टल में रहकर ग्रेजुएशन किया. वो बिहार का सबसे पुराना महिला कॉलेज है जो 1946 में बना था. फिर बिहार विश्वविधालय से हिंदी में एम.ए. करने के बाद मैं दिल्ली चली आयी जामिया यूनिवर्सिटी से पी.एच.डी. करने. यह अलग बात है कि दो साल के बाद ही पी एचडी का भूत उतर गया और पत्रकारिता में डूब गई.
मैं अपने घर में सबसे छोटी होने की वजह से बहुत दुलारी थी. बचपन बहुत ठाठ से गुजरा था. अभाव शब्द का कभी मुझे एहसास नहीं हुआ था लेकिन दिल्ली आते ही मुझे एहसास हो गया. दिल्ली में अकेली लड़की सर्वाइव कैसे करे, किराये का मकान कैसे मिले, इसकी टेंशन रहती थी. नौकरियां मुझे बहुत आसानी से मिल गयीं लेकिन सैलरी बहुत कम थी तो घर का किराया, उसी में खाना-पीना और आना-जाना सब मैनेज करना पड़ता था. हमलोगों का जो बैच बिहार से आया था उनमे एक-से-एक लोग थे जो आज सभी हाइट पर पहुँच गए हैं. उस समय एक दूसरे से बड़ा भाईचारा था. स्ट्रगल के दिनों में अक्सर हमारी जेबों में पैसे कम होते थे तो हम सब संघर्षशील दोस्त मिलजुलकर एक दूसरे पर खर्च करते थे. घरवालों का उसी समय असहयोग देखने को मिला जब मैं दिल्ली में थी और एकदम घर से कट गयी थी. क्यूंकि उनकी मर्जी के विरुद्ध था मेरा पत्रकारिता में आना. वे चाहते थे कि मैं कॉलेज में प्रोफ़ेसर बन जाऊं और बिहार में ही रहूं. बहुत बाद में जब मैं स्टैब्लिश हुई और थोड़ा नाम हुआ तब घरवालों को लगा कि अरे, ये तो बड़ा काम कर रही है. फिर उन्हें मेरा काम भी जंचने लगा.
हम बिहारियों के लिए 90 के दशक में जर्नलिज्म संदिग्ध पेशा समझा जाता था, लड़कियों के लिए तो प्रतिबंध जैसा था. कस्बाई लड़कियां पारंपरिक पेशे के सिवा कुछ और बनने के सपने देख भी नहीं सकती थीं. उस दौर में लड़कियां नौकरी के सपने देखती थीं मगर समाज परिवार के बनाए या तय किए ढांचे के तहत ही देखती थीं. पत्रकारिता के बारे में सोचना दूभर था. लड़को के लिए कम दुष्कर नहीं था. मध्यवर्गीय परिवारों में लड़की की शादी के लिए पत्रकार लड़के आखिरी विकल्प थे. मध्य वर्ग और उच्च मध्यवर्ग जहां डॉक्टर, इंजीनियर, प्रोफेसर दामाद के सपने देखता था वहीं उच्च वर्ग आईएएस दामाद खरीदने की ताकत रखते थे. पत्रकार बने लड़को के बारे में आम धारणा थी कि “चौब्बे गए थे छब्बे बनने, दूबे बन के आए,” यानी गया था दिल्ली कलक्टर बनने, जब कुछ न बन सका तो पत्रकार बन गया. हर तरफ से हारा हुआ एक प्रतिभाशाली लड़का पत्रकार बन जाता था और ऐसे लड़को को दहेज कम मिलती थी. रिश्ते ही बहुत कम आते थे. पत्रकार क्या होता है, तब तक ठीक से समझा ही नही गया था. तब आज के जैसी ऊंची औकात ( इलेक्ट्रोनिक मीडिया) भी तो नहीं थी. उस दौर में मैंने कई पुरुष साथियों की हालत देखी थी, जो बिहार से ताल्लुक रखते थे. जब लड़को का ये हाल था तब लड़कियों के बारे में सोच सकते हैं कि उनकी दशा क्या रही होगी. ऐसे माहौल में मैं पत्रकारिता कर रही थी. कुछ भी फेवर में नहीं था. महिलाएं तो तब हिंदी पत्रकारिता में बहुत कम थीं. जब दिल्ली के रफी मार्ग स्थित आईएनएस बिल्डिंग से निकलकर कभी चुनाव कवरेज के लिए बस से चुनाव क्षेत्र में जाती तो तब देखती कि कई मर्द रिपोर्टर के साथ मैं ही एक अकेली लड़की हूँ. अब सोचिये मेरी क्या हालत होती होगी. तब सभी कहते कि तुम भी अपने को लड़का ही मानो. फिर मेरे अंदर से एहसास ही गायब हो गया था कि मैं फीमेल हूँ. तब मुझे रिपोर्टिंग में इतना आनंद आने लगा कि मुझे लगता कि मैं पैदा ही इसी प्रोफेशन के लिए हुई हूँ. ये किस्मत की बात है कि जो आपका पैशन हो, वही आपका प्रोफेशन बन जाये. दिल्ली में बैचलरों के लिए आज शायद कम परेशानी है क्यूंकि पीजी का चलन है. लेकिन हम जब 1991 में दिल्ली आए तब लक्ष्मीनगर मोहल्ले में लड़कियों को जल्दी घर किराये पर नहीं मिलता था.

पति अजित अंजुम और बेटी जिया के साथ ख़ुशी के पल साझा करती गीता श्री

मेरे स्थानीय मित्र तब बहुत हेल्प करते थे घर दिलाने में. अकेली लड़की को तब बहुत तरह की दिक्कतें होती थीं जिनमे रात को घर लौटना भी शामिल है. लेकिन दिल्ली हमारे टाइम में आज की तरह उतनी अनसेफ नहीं थी. मैं एक किराये के कमरे में अकेली रहती थी जिसमे एक छोटा सा किचन और बाथरूम होता था. कई मकान में बाथरूम भी शेयर करना पड़ता था. लोग अजीब संदेह की निगाह से देखते थें. कोई आ जा नहीं सकता था, मकान मालिक की पाबंदी थी. तब भी दिल्ली का किराया बहुत हाई था. जो सैलरी मिलती थी उस समय, सब किराये और आने-जाने में खर्च हो जाता था. घर से कोई हेल्प नहीं लिया. पढ़ाई भी मैंने स्कॉलरशिप से की थी. छुट्टियों में मैं नेशनल वोलेंटियर बनती थी तो उससे पैसे कमाए मैंने. शुरू से मैं आर्थिक रूप से काफी हद तक आत्मनिर्भर रही. कभी सोचा नहीं पैरेंट से पैसे मंगाऊं और वैसे भी वे नाराज थे कई सालों तक. मेरा सौभाग्य रहा कि संघर्ष के दिनों में ही पत्रकारिता में पहले से स्थापित एक दोस्त का साथ मिला जिनसे मेरी शादी हुई और मेरा सफर आसान हो गया.
उसके पहले जीवन आसान नहीं था. मकान बदलते बदलते परेशान हो चुकी थी. सुरक्षित पनाहगाह की खोज में कई घर बदले. लक्ष्मीनगर से तंग आ गयी तो राजस्थान पत्रिका में मेरे तत्कालीन बॉस स्व. सी.बी.ठाकुर जिनके अंडर में मैं ट्रेनिंग कर रही थी वे जिस सोसायिटी में रहते थें वहीँ उन्होंने मुझे एक रूम दिलवाया. फिर मैं बहुत सेफ जगह आ गयी, जहाँ फैमली जैसी फीलिंग थी. ट्रेनिंग के बाद मैं फ्रीलांस करने लगी थी क्यूंकि फ्रीलांसिंग में बहुत मजा आता था. सभी अख़बारों में आप एक साथ छपते हैं ना तो वो फीलिंग ही कुछ और होती है. उस वक्त मुझे कहा जाता था दिल्ली में अपने समय की सबसे अधिक छपनेवाली फ्रीलांसर है. तब नौकरी से ज्यादा तो फ्रीलांसिंग से कमाती थी. फिर  कुछ ही  महीने के बाद बैठे-बिठाये मुझे नौकरी मिल गयी. उस दौर का बड़ा अखबार, पायोनिर ग्रुप का हिंदी  “स्वतंत्र भारत” अखबार में दिल्ली ब्यूरो के लिए वैकेंसी निकली थी. सब एडिटर का पोस्ट था. संपादक थे घनश्याम पंकज, जो लखनऊ और दिल्ली में आना जाना करते रहते थे. दिल्ली ब्यूरो में फीचर प्रभारी, रेखा तनवीर एक दिन आईएनएस बिल्डिंग की सीढ़ियों पर टकरा गईं. रेखा जी को फेमिना (टाइम्स ऑफ इंडिया समूह की पत्रिका) के जमाने से जानती थी. मैं वहां भी खूब लिखती थी. दिनमान टाइम्स और फेमिना का दफ्तर एक साथ ही था. मैं दोनों में छपती थी. रेखा जी से परिचय था. उन्होंने मुझे देखा और सीधा पूछ लिया- ‘नौकरी करोगी, एक जगह बनी है आ जाओ.’ रेखा जी के सवाल में नौकरी का ऑफर छुपा था. मैं अचकचाई-सी वहीं से उनके साथ दफ्तर चली गई और सबकुछ इतनी जल्दी हुआ कि घर आकर सबको शाम को बताया. तब मोबाइल फोन नहीं होते थे कि फोन करके बताऊं या पूछूं. तब मैं नौकरी के मूड में थी भी नहीं. पीएचडी कर रही थी. अपने विषय से जूझ रही थी. बीच बीच में अखबारो के दफ्तर में लिखने के लिए चक्कर लगाती थी. ‘स्वतंत्र भारत’ में अचानक मिली नौकरी ने जीवन की दिशा ही बदल दी. वहां से मेरा करियर टर्न लिया. उसी नौकरी के चक्कर में मेरी पी.एच.डी. छूट गयी. क्यूंकि जर्नलिज्म का नशा ही कुछ ऐसा होता है कि उसके आगे कुछ और नहीं दिखता. ‘स्वतंत्र भारत’ जब ज्वाइन किया तो मैं फीचर डिपार्टमेंट में डेस्क पर थी. तब होता ये था कि और शायद आज भी कि हिंदी जर्नलिज्म में जब कोई लड़की आती है तो उसे सबसे पहले शॉफ्ट काम देते हैं कि कला-संस्कृति करो, सिनेमा करो, तुमको और कोई समझ नहीं है. तो मुझे भी जो मिलता मैं वही करने लगी. कला संस्कृति की मुझे समझ नहीं थी फिर भी मैंने किया.

हमारे स्वतंत्र भारत अख़बार में तब उथल-पुथल बहुत थी. मैंने चार ब्यूरो चीफ के साथ काम किया जो बड़े नामी गिरामी थें. लास्ट में जब सुधांशु श्रीवास्तव आएं वो मेरा करियर का स्वर्णकाल था. उस समय जो मैंने रिपोर्टिंग की उसी का बेस है. उस समय अख़बार में बहुत कड़ा अनुशासन रहता था. हम कोई गलती कर देते तो तुरंत चपरासी के हाथों हमारे पास एक पर्ची आ जाती थी जिसमे लिखा होता था कि आपने अनुशासन भंग किया है तो क्यों ना आपके खिलाफ कार्यवाही की जाये. फिर हमें सफाई देनी पड़ती थी. तब हम सबकी इसीलिए फाइल बनती थी कि जब प्रमोशन आदि होगा उस समय अड़ंगा लगा देंगे. वहां एक तो मैं नयी नयी थी और महिला होने की वजह से मुझे पुरुषों की तुलना में ज्यादा इम्तहान देना पड़ता था. इसलिए कि मुझे वो कमतर मानते थे. मैं देखती कि जब पोलिटिकल रिपोर्टर बैठकर बातें करते तो ऑफिस में मजमा लग जाता था और ये सब मुझे अच्छा लगता था. फिर मैंने सोचा बहुत हो गया फीचर-विचर, अगर ब्यूरो में रहना है तो रिपोर्टिंग करनी पड़ेगी नहीं तो ऐसे ही डेस्क पर सड़ जायेंगे. तब तक भाग-दौड़ के लिए मैंने कायनेटिक होंडा स्कूटी भी ले लिया था. और एक दिन बॉस के सामने इच्छा जाहिर कर दी – ‘मुझे भी पोलिटिकल रिपोर्टर बनना है,कोई पोलिटिकल पार्टी करना चाहती हूँ.’  मेरे बॉस ने सोचा कि इसको सबक सिखाते हैं तो इसको ऐसी पार्टी दे दो कि पोलिटिकल रिपोर्टिंग भूल जाएगी. तो उन्होंने आदेश दिया -‘ऐसा है, आप बसपा कवर करिये आज से.’ तब बहुजन समाज पार्टी नई नई उभर रही थी और कांसीराम एवं मायावती का डंका बज रहा था. तब बसपा पत्रकारों को लगाती नहीं थी. ना खबरें देती, ना मिलने देती थी. तब मुझे कुछ ठीक से पता नहीं था तो मैंने वहीँ बैठे एक मित्र से पूछा कि ‘क्या है ये बसपा?’  वे बोले ‘तुमको बलि का बकरा बनाया गया है, कटना तुम्हारा तय है.’  मैंने कहा- ‘अच्छा, तो नंबर दे दीजिये.’ उन्होंने मुझे एक लैंड लाइन नंबर दिया. मैंने ऑफिस से फोन मिलाया और जैसे ही उधर से किसी ने उठाया मैंने कहा- ‘मैं स्वतंत्र भारत से गीताश्री बोल रही हूँ मुझे कांसीराम जी से मिलना है.’  उधर से आवाज आयी ‘क्यों मिलना है?’ मैंने कहा – ‘मुझे ये बीट मिला है, कांसीराम जी से बात करनी है, खबरें चाहिए मुझे.’ तो उधर से आवाज आयी ‘तो आ जाइये मिलने.’ मैंने कहा – ‘बाहर बारिश हो रही है, तो एक घंटे बाद आती हूँ.’  फिर आवाज आयी ‘नहीं, आप रुकिए, आपके पास गाड़ी पहुँच जाएगी, गाड़ी में बैठकर आइये.’ मैंने फोन रखते हुए सोचा कोई मजाक कर रहा था. लेकिन 10 मिनट बाद गाड़ी आ गयी और कांसीराम के सेक्रेट्री राजन ऊपर आकर बोले ‘चलिए मैम, आपको मान्यवर ने बुलाया है.’ सारा दफ्तर चकित कि गाड़ी कैसे आ गयी वो भी बसपा की. मैं उनकी गाड़ी से वहां पहुंची तो देखा ड्राइंगरूम में कांसीराम बैठे हैं और सामने तरह तरह की खाने की चीजें रखी हुई हैं. वे बोले – ‘मैं ही कांसीराम हूँ’. और सच में तब मैंने कांसीराम को पहले देखा नहीं था. मैंने पूछा – ‘आपने फोन उठा लिया था !’  वे बोले – ‘हाँ, मैंने ही उठाया था.’ मैं चौंक गयी क्यूंकि तब बसपा का कोई दूसरा व्यक्ति फोन उठा ले तो वो अपने नेता से मिलने नहीं देता था लेकिन मेरी किस्मत अच्छी थी. फिर कांसीराम ने वहां रखी खाने की चीजों की तरफ इशारा करते हुए कहा कि ‘सही समय पर आयी हैं. थोड़ा आपके लिए और थोड़ा एक बड़े नेता के लिए.’ मैंने पूछा – ‘कौन आ रहे हैं?’ वे बोले ‘अटल जी आ रहे हैं.’ मैंने कहा- ‘फिर मैं जाऊं क्या?’ वे बोले ‘नहीं, आप बैठिये.’ और फिर मेरे सामने अटल जी और उनकी यू.पी. में सरकार बनाने की बातचीत हुई. जब अटल जी ने पूछा कि ये कौन हैं?’ तो वे बोले – ‘ मेरी फैमली मेंबर है, कोई दिक्कत नहीं है.’ बाद में जब अटल जी ने मुझे पार्लियामेंट में देखा तो मुझे पहचानी नजरों से घूरा और मैं नज़र बचाकर भाग गयी. उस दिन जब कांसीराम ने मुझे गाड़ी से वापस छुड़वाया और मैं खबर लेकर आयी तो मेरा बॉस खबर लेने को तैयार नहीं हुआ. बोला – ‘मैं मान ही नहीं सकता, आपको किसी सूत्र ने बताया होगा.’ मैंने कहा- ‘नहीं, मेरे सामने हुई है सरकार बनने की बैठक.’  वो मेरी पहली ब्रेकिंग न्यूज थी जिसे ब्यूरो चीफ ने अपनी खबर के साथ लगाकर नीचे गीताश्री लिखकर भेज दिया. वो खबर छपी जो ब्रेकिंग थी और कहीं दूसरी जगह नहीं छपी थी. अगले दिन जब बसपा और भाजपा का साझा प्रेस रिलीज जारी हुआ तब बॉस को यकीं हुआ कि ये सही खबर थी. उस दिन से मैं जब तक स्वतंत्र भारत अख़बार में रही मुझे बसपा कवर करने में कभी कोई दिक्कत नहीं हुई. पहली मुश्किल मैंने पार कर ली थी. उसके बाद मुझे क्षेत्रीय पार्टियों का कवरेज मिला. वहां अच्छा काम किया तो कांग्रेस और भाजपा जैसी बड़ी पार्टी की कवरेज भी की. मैं ‘स्वतंत्र भारत’ में सब एडिटर से स्पेशल कॉरेस्पोंडेंट तक बनी और 5-6  साल वहां रही. वहां से अक्षर भारत साप्ताहिक अखबार में ब्यूरो रिपोर्टिंग की. फिर ‘नयी दुनिया’ के ‘वेब दुनिया’ हिंदी के पहले न्यूज पोर्टल की इंचार्ज बनी. मैं इंटरनेट की शुरुआती दौर की रिपोर्टर रही हूं. तब हिंदी पोर्टल नहीं होते थे. हमारी रिपोर्टिंग को उतनी गंभीरता से नहीं लिया जाता था. आज वह छा गई है. तब हमें अपनी पहचान के लिए संघर्ष करना पड़ता था. प्रिंट मीडिया और इलेक्ट्रोनिक मीडिया के बीच इंटरनेट पत्रकारिता को कौन भला गंभीरता से लेता. नेताओ को बहुत कंवींश करना पड़ता था. हमने उस दौरान कई बड़े नेताओ और शख्सियतो का लाइव चैट करवाया, इंटरव्यू किए. तब बड़ा तामझाम लेकर चलना पड़ता था और साथ में पूरी टेकनीकल टीम चलती थी कंप्यूटर के साथ. ये सिलसिला बहुत लंबा नहीं चला. बेवदुनिया सिमट गई और मैंने आउटलुक ज्वाइन कर लिया. हिंदी आउटलुक के डमी अंक से लेकर 10 साल तक अबाध वहां काम करती रही. कॉपी एडीटर से सहायक संपादक तक पहुंची और जमकर मनचाही पत्रकारिता की. मनलायक काम किया और खूब उपलब्धियां हासिल की. चुनौतीपूर्ण नाइट डयूटी भी की. लेकिन यहां पोलिटिकल रिपोर्टिंग बिल्कुल छूट गई थी. मुझे डेस्क के काम में मजा आने लगा था. कई चीजें सीखीं. ले-आउट और डिजाइनिंग की समझ, पत्रिका और बाजार के रिश्ते ,पाठको की पसंद जैसी बातें समझीं. साहित्य की जमीन पर यहीं रहते हुए वापस लौटी, जो कॉलेज के बाद छूट गया था. रिपोर्टिंग के बाद सीधे डेस्क पर काम करना भी कम दुष्कर न था. नए सिरे से सब सीखना पड़ा. गलतियां करते करते सीखीं. रेगुलर रिपोर्टिंग छूट गई थी जिससे मन कसमसाता था. लेकिन मौका मिला और ऑफबीट स्टोरी खूब लिखी, खूब यात्राएं की, खूब फैलोशिप मिले, रिसर्च किए, और रिपोर्ट लिखे. डेस्क पर पत्रकार के गुम होने का खतरा रहता है. मैंने खुद को बचाए रखा. संपादक बनने के बाद भी मेरे भीतर का रिपोर्टर मरा नहीं था. आज भी ऑफबीट रिपोर्टिंग मेरी पहली पसंद है. यहां से पर्ल ग्रुप की महिला केंद्रित पत्रिका ‘बिंदिया’ की एडिटर बनी. उसके बाद लाइव इंडिया चैनल की वेबसाइट की एडिटर होकर आयी. वहां माहौल जमा नहीं, सो जल्दी मुक्त होकर फ्रीलांसिंग करने लगी.

अपने पहले उपन्यास ‘हसीनाबाद’ के साथ गीता श्री

उसके बाद से अबतक मैं फ्रीलांस पत्रकारिता कर रही हूँ और क्रिएटिव राइटिंग में भी आ गयी हूँ. सक्रिय पत्रकारिता में रहते हुए क्रिएटिव राइटिंग की रफ्तार सुस्त थी. बमुश्किल दो तीन किताबें छपी थीं. जबकि मैं कहानी-उपन्यास लिखना चाहती थी. अबतक मेरे तीन कहानी संग्रह आ चुके हैं. पहला उपन्यास छपकर आनेवाला है वाणी प्रकाशन से. जीने को और क्या चाहिए. पत्रकारिता में जितना संघर्ष किया, जितनी चुनौतियां मिली, उतनी ही सफलता और नाम हासिल भी किया. पत्रकारिता ने बहुत तपाया, बहुत अनुभव दिए और ठोस बनाया. मेरा स्वाभिमान और साहस उसी की देन है. संघर्ष का माद्दा वही से सीखा. पत्रकारिता के बड़े बड़े पुरस्कार और फेलोशिप हासिल हुए. संपादक बनने का ख्वाब भी पूरा हुआ. भले इस ख्वाब की अवधि छोटी रही. संघर्ष कभी खत्म नहीं होता यहां. पहले पाने का संघर्ष फिर टिके रहने का संघर्ष. स्त्रियों के लिए वैसे भी पत्रकारिता में ग्लास सिलिंग है…ऊपर तक जाने के संघर्ष बहुत घने हैं और पहुंचना आज भी दुष्कर.

About The Author

'Bolo Zindagi' s Founder & Editor Rakesh Singh 'Sonu' is Reporter, Researcher, Poet, Lyricist & Story writer. He is author of three books namely Sixer Lalu Yadav Ke (Comedy Collection), Tumhen Soche Bina Nind Aaye Toh Kaise? (Song, Poem, Shayari Collection) & Ek Juda Sa Ladka (Novel). He worked with Dainik Hindustan, Dainik Jagran, Rashtriya Sahara (Patna), Delhi Press Bhawan Magazines, Bhojpuri City as a freelance reporter & writer. He worked as a Assistant Producer at E24 (Mumbai-Delhi).

Related posts

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *