सिनेपोलिस में हुआ शॉर्ट फिल्म “अनामिका दी बिट्रेयर” का प्रीमियर शो

सिनेपोलिस में हुआ शॉर्ट फिल्म “अनामिका दी बिट्रेयर” का प्रीमियर शो
सिनेपोलिस में शॉर्ट फिल्म “अनामिका दी बिट्रेयर” का प्रीमियर शो

हीरोइन अपनी फ्रेंड के हाथ में महंगा आईफोन देखकर पूछती है “अरे यार इतना कीमती मोबाईल तेरे पास कहाँ से आया..?” फ्रेंड हँसते हुए बोलती है “यह मुझे नए एटीएम (ब्वॉयफ्रेंड) ने दिया है….अगर तुझे भी ये चाहिए तो जल्दी से कोई नया एटीएम (ब्वॉयफ्रेंड) ढूंढ ले..” यह डायलॉग हैं एक शॉर्ट फिल्म के जिसमे अभिनेत्री सुलगना चटर्जी और शांतिप्रिया के इस कन्वर्सेशन से यह साफ़ नज़र आता है कि इस उपभोक्तावाद के युग में आजकल की लड़कियां अपने बॉयफ्रेंड्स को महज एक एटीएम कार्ड से ज्यादा कुछ नहीं समझती हैं. मंगलवार, 24 अप्रैल को यह नज़ारा था पी.एन्ड एम. मॉल के सिनेपोलिस मल्टीप्लेक्स में आइकोनोक्लास्ट्स के बैनर तले शार्ट फिल्म ‘अनामिका दी बिट्रेयर’ के प्रीमियर शो का. जहाँ दर्शक दीर्घा में बैठे शहर के कई रंगकर्मी, फिल्मकार, नाटककार, साहित्यकार एवं शिक्षाविद उपस्थित थें.

 

 

 

 

शॉर्ट फिल्म को देखते हुए मुख्य अतिथि एवं अन्य दर्शक

 

 

कार्यक्रम की शुरुआत करते हुए ऑडी 4 में मुख्य अतिथि विधायक संजीव चौरसिया, फिल्म समीक्षक विनोद अनुपम, आकाशवाणी के सहायक निदेशक किशोर सिन्हा एवं शिक्षाविद पूर्णिमा शेखर सिंह ने संयुक्त रूप से दीप प्रज्वलित किया और सामाजिक सन्देश देने हेतु बनाई गयी इस शॉर्ट फिल्म की प्रशंसा की. मुख्य अतिथि विधायक संजीव चौरसिया ने दर्शकों को सम्बोधित करते हुए कहा कि “यह फिल्म उपभोक्तावाद पर बनी है. आज के दौर में उपभोक्तावाद एक गंभीर समस्या है और हमे इससे आनेवाले समय में निबटना होगा ताकि हमारे बच्चे, हमारे भविष्य सही राह अख्तियार कर सकें.”

 

 

 

 

प्रीमियर शो में अपने विचार रखते हुए फिल्म समीक्षक विनोद अनुपम (बाएं) एवं फिल्म प्रोड्यूसर व एक्टर अजय झा (दाएं)

वहीँ बिहार के जानेमाने फिल्म समीक्षक विनोद अनुपम ने अपने वक्तव्य में कहा कि “एक शॉर्ट फिल्म को लेकर के इस तरह का आयोजन अपने आप में बड़ी बात है. मेरा मानना है कि शॉर्ट फिल्में भविष्य का सिनेमा है. और बिहार भविष्य के सिनेमा को दर्शक दे रहा है. हाल ही में एक कार्यक्रम में आये बॉलिवुड एक्टर पंकज त्रिपाठी से जब मेरी बात हुई बिहार में सिनेमा के मुद्दे पर तो उन्होंने कहा कि बिहार में सिनेमा है कहाँ? उनकी बात भी सही है. सबसे बड़ा कारण ये है कि बिहार में दर्शक ही नहीं हैं. सिनेमाहॉल की कमी है. और सिनेमा बन ही नहीं रहा है. क्यूंकि सिनेमा में पूंजी लगती है और पूंजी को रिटर्न चाहिए होता है. इस रिटर्न को देने के लिए अब जरूरत है कि बिहार किसी न किसी रूप में अपने आप को तैयार करे तभी हमारे नए लड़के सिनेमा बनाने के क्षेत्र में आएंगे. फिल्म में जो विषय उठाया गया है उपभोक्तावाद…मुझे लगता है कि आज के युवा जिस तरीके से इस विषय को जी रहे हैं या इस विषय के साथ बड़े हो रहे हैं, ऐसे में एक युवा ही उस दर्द को, उसकी कमियों को महसूस कर सकता है कि उपभोक्तावाद हमें किस ओर ले जा रहा है. बचपन में जब हमलोग पढ़ते थें तो नैतिक शिक्षा की भी पढ़ाई होती थी जिसमे सिखाया जाता था कि झूठ नहीं बोलना चाहिए, जानवरों को तंग नहीं करना चाहिए…लेकिन अब वो नहीं है. अब हम जन्म लेते ही अपनी जरूरतों के पीछे लग जाते हैं. डेढ़ साल के बच्चे को भी तब नींद आती है जब उसके हाथ में मोबाईल होता है. जब मोबाईल के साथ बच्चे बड़े हो रहे हैं तो जाहिर है जैसे-जैसे वे बड़े होते जायेंगे उनकी जरूरतें बढ़ती जाएँगी. यदि यह फिल्म इस तरह का सवाल उठाती है तो समाज में बहुत ही अच्छा सन्देश जायेगा कि किस तरह से हम अपनी जरूरतों को सीमित करना सीखें. उपभोक्तावाद से लड़ाई सिर्फ कहकर नहीं लड़ी जा सकती बल्कि ये हमें बचपन से नींव में डालनी होगी.”
वहीँ आकाशवाणी, पटना के सहायक निदेशक किशोर सिन्हा ने कहा “इस फिल्म के जरिये एक ऐसी सोच आपके सामने लाने की कोशिश की गयी है जिसमे हम पाते हैं कि आज के बाद आनेवाली पीढ़ी किस तरह से विसांस्कृतिकरण के दौर से गुजरेगी जिसकी एक भयावह कल्पना हम कर सकते हैं. इस पूरी फिल्म के जरिये ये सन्देश बहुत अच्छे तरीके से देता हुआ दिखाया गया है और यह सोच कहीं न कहीं एक निर्देशक की भी है, एक लेखक की भी है और एक अभिनेता की भी है. मैं सोचता हूँ कि यह फिल्म एक ऐसे पड़ाव की तरफ आगे लघु फिल्म की दिशा तय करनेवाली है जो आनेवाले दिनों में हमे और ऐसी कई संदेशों से प्रेरित फ़िल्में देकर के जाएगी.”
वहीँ ए.एन. कॉलेज में ज्योग्राफी की विभागाध्यक्ष पूर्णिमा शेखर जी ने कहा कि “यह जो उपभोक्तावाद है एक तरह का राक्षस है जो हमारी सोच को ग्रसित करता है और सोच जो है वही हमारे व्यक्तित्व को अंजाम देती है. हम बिना सोचे समझे एक ऐसी अंधी दौड़ में शामिल हो जाते हैं जहाँ हम चीजों के पीछे भागते हैं और किसी तरह से हासिल करना चाहते हैं. इसमें हम अपने संबंधों को दरकिनार कर देते हैं, मानवीय मूल्यों को दरकिनार कर देते हैं. जब हम इस जकड़न से खुद को मुक्त कर पाएंगे तब ही हमारे बच्चे भी इन चीजों से बचेंगे.”
वहीँ विशिष्ट अतिथि के तौर पर मौजूद मशहूर कार्टूनिस्ट पवन ने कहा कि “जिस तरह से समाज की विसंगतियों को हम कार्टूनिस्ट लोग कार्टून के माध्यम से दिखाते हैं ठीक उसी तरह से फिल्मकार भी समाज की खामियों को अपनी फिल्मों के माध्यम से हमें सार्थक सन्देश देने की कोशिश करते हैं. जैसा कि इस शॉर्ट फिल्म में भी आज के भटक रहे न्यू जेनरेशन को अच्छा सबक देने का काम किया गया है.”
देश-विदेश में घूम-घूमकर लोगों को मोटिवेट करनेवाले सामजसेवी ओमप्रकाश जी ने अपने विचार प्रकट करते हुए कहा कि “मेरे पास पूरी फिल्म के बारे में जो कहने के लिए है वो सिर्फ इतना कि अगर मनुष्य के जीवन में अगर मूल्य हों तो वह मानवता हो जाती है और मनुष्य के जीवन में से अगर मूल्यों को हटा दें तो या वो उपभोक्ता हो जाता है या उपभोग की वस्तु बन जाता है. मेरे ख्याल से इसी मैसेज को लेकर शॉर्ट फिल्म दिखाने की कोशिश की गयी है. निश्चित तौर पर यह प्रयास काबिले तारीफ है.”

मुख्य अतिथियों के साथ फिल्म के कलाकार एवं प्रोडक्शन टीम के सदस्य

 

लगभग 19 मिनट की यह शॉर्ट फिल्म खत्म होने के बाद दर्शकों के चेहरे पर कई सवाल छोड़ गयी. कई दर्शकों ने तो यहाँ तक कहा कि “यह फिल्म हर ब्वॉयफ्रेंड, गर्लफ्रेंड और पैरेंट्स को देखनी चाहिए.” मौके पर मौजूद फिल्म के प्रोड्यूसर एवं लीडिंग ऐक्टर अजय झा ने बताया कि “इस विषय पर फिल्म बनाने का आइडिया यूँ आया कि एक दिन मैं अख़बार पढ़ रहा था तो देखा कि एक ऐसे लड़के की न्यूज आयी थी जो पटना के फुलवारीशरीफ का रहनेवाला था. रात में अपनी गर्लफ्रेंड से बात करते करते उसने खुद को गोली मार ली थी. पढ़कर एकाएक मुझे झटका लगा, समाज में अक्सर इस तरह की घटनाएं होती हैं लेकिन मैंने रियलाइज किया कि आज के समय में ये अपराध की घटनाएं, आत्महत्या की घटनाएं क्यों बढ़ रही हैं… तो फिर समझ में आया कि इसके पीछे कंजीरियुजम कॉन्सेप्ट है. यानी गर्लफ्रेंड की डिमांड को फुलफिल करना, अपने ख्वाहिशों के सामान को जुटाना, ऐयाशी करना….इसके लिए लोग अपराध की दुनिया में उतर जाते हैं और इसके बावजूद अगर लड़की नहीं मिलती है तो वे खुद को मार डालते हैं. इसलिए मैंने उपभोक्तावाद के विषय को अपनी फिल्म के लिए चुना.”

 

 

 

‘बोलो ज़िन्दगी’ के एडिटर राकेश सिंह ‘सोनू’ के साथ फिल्म के अनुभव साझा करते हुए निर्देशक अमलेश आनंद (बाएं)

 

वहीँ रंगमंच से जुड़े इस फिल्म के निर्देशक अमलेश आनंद जी ने कहा “मैंने अपने मित्र अजय झा से जब इस फिल्म का कॉन्सेप्ट सुना तो चौंक पड़ा…उस कॉन्सेप्ट को लेकर मैंने स्क्रिप्ट तैयार की. जब हम शूट पर गए तो पटना के लोकल जगहों को ही चुना.. सबसे पहले हम पाटलिपुत्रा स्पोर्ट्स कॉम्प्लेक्स में शूट करना चाहते थें क्यूंकि बॉक्सिंग का सीन था. लेकिन वहां के लोगों ने हमें इसकी इजाजत नहीं दी तो फिर हम छपरा जिले के दिघवाड़ा में गए जहाँ एक बॉक्सिंग रिंग है. और वहां के कॉलेज की लड़कियां किक बॉक्सिंग में गोल्ड मेडलिस्ट हुई हैं. तो वहां जाने पर हमें बहुत सपोर्ट मिला. हमारी मुख्य अभिनेत्री सुलगना चटर्जी मुंबई से आयी थीं जिन्हें उनलोगों ने बॉक्सिंग की ट्रेनिंग दी. जब हमने पटना के लोकल माहिर चेहरों को भी इस फिल्म में लेने के लिए सम्पर्क किया तो उन्होंने शॉर्ट फिल्म के लिए मना कर दिया. फिर हमने कुछ पटना के नए चेहरों को लिया और उनका काम आप फिल्म में देख ही रहे हैं.”
फिल्म में मुंबई से सुलगना चटर्जी और पटना से अजय झा ने मुख्य भूमिका में सशक्त अभिनय किया है. जबकि पटना से परविंद्र, शांति प्रिया, अनुराग कपूर एवं दिघवाड़ा बॉक्सिंग क्लब के बॉक्सिंग चैम्पियन धीरज और 25 खिलाडियों ने भी अपनी भूमिका बखूबी निभाई है. फिल्म की शूटिंग पटना के एस.के.पुरी पार्क के पास, बोरिंग कैनाल रोड के पैंटालून मॉल, सिद्धार्थ इन होटल, आनंदपुरी, कंकड़बाग आदि जगहों पर किया गया है.

About The Author

'Bolo Zindagi' s Founder & Editor Rakesh Singh 'Sonu' is Reporter, Researcher, Poet, Lyricist & Story writer. He is author of three books namely Sixer Lalu Yadav Ke (Comedy Collection), Tumhen Soche Bina Nind Aaye Toh Kaise? (Song, Poem, Shayari Collection) & Ek Juda Sa Ladka (Novel). He worked with Dainik Hindustan, Dainik Jagran, Rashtriya Sahara (Patna), Delhi Press Bhawan Magazines, Bhojpuri City as a freelance reporter & writer. He worked as a Assistant Producer at E24 (Mumbai-Delhi).

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