पटना के गोलघर के पास बांकीपुर उच्च विधालय के कैम्पस में है ‘हौसलाघर’. एक ऐसा घर जहाँ शहर में जहाँ-तहाँ कचड़ा चुननेवाली सैकड़ों गरीब बच्चियां रहकर पढ़ रही हैं और हौसले के साथ अपने सपनों को साकार कर रही हैं. कुछ बच्चियों के पिता नहीं हैं तो कुछ बिलकुल ही अनाथ हैं. लेकिन अब वो खुद को अनाथ कहलाना पसंद नहीं करतीं और हौसलघर को ही अपना घर मानती हैं. ये बच्चियां सरकारी स्कूलों में पढ़ती हैं लेकिन अपने टैलेंट से हर किसी को अपना मुरीद बना लेती हैं. इनको पेंटिंग, डांसिंग और सिंगिंग का भी बहुत शौक है. कोई कैरम चैम्पियन है तो कोई कराटे चैम्पियन. कराटे को ये महज खेल नहीं बल्कि इस चालबाज और मतलबी दुनिया से लड़ने का हथियार मानती हैं.
यहाँ की कई बच्चियों ने स्टेट लेवल की कराटे प्रतियोगिता में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया है. सुनीता, ज्योति और काजल को कराटे प्रतियोगिता में गोल्ड मैडल मिला है तो वहीँ निशु को सिल्वर और कंचन को ब्रॉन्ज मैडल मिला है. काजल कराटे में यंगेस्ट गोल्ड मेडलिस्ट है.
कन्या मध्य विधालय, कक्षा नौवीं की सुनीता इससे पहले पटना स्टेशन के पास रहकर कचड़ा चुनने का काम करती थी. पिता नहीं हैं, घर में सिर्फ माँ और तीन छोटे भाई-बहन हैं. सुनीता कहती है “रागिनी मैडम सर्वे के लिए आयी थीं फिर दो दिन बाद मुझे लेने आयीं ‘हौसलाघार’ ले जाने के लिए. माँ ने ना-ना करते हुए आखिर में पढ़ने के लिए इजाजत दे दी. लेकिन मुझे परिवार को छोड़कर जाने का मन नहीं कर रहा था. हौसलाघर आने पर मन नहीं लगा और एक-दो दिन खूब रोयें. फिर रहते-रहते जब सभी सुविधाएँ मिलने लगीं तो मन लगने लगा. जब आयी थी तो 6 साल की थी, पहली कक्षा में एडमिशन हुआ था. पर्व -त्यौहार की छुट्टियों में घरवालों से मिलने जाती हूँ. यहाँ एक भइया आये थें कराटे सिखाने के लिए. उनसे धीरे-धीरे हम सीख गए फिर हमारा सेलेक्शन होने के बाद हमने कम्पटीशन में भाग लिया. खेलने के लिए स्टेट लेवल का ऑफर मिला. फिर कराटेवाले भइया हमलोगों को तैयारी करवाए और हम अप्रैल, 2017 में भागलपुर गए खेलने. वहां कई दूसरे जिलों के बच्चे भी खेलने आये थें. डर लग रहा था कि हार जायेंगे. मगर हिम्मत किये और पहला राउंड पार कर गएँ. आत्मविश्वास बढ़ा फिर बाकि के राउंड भी पार कर गए. उस प्रतियोगिता में फर्स्ट आयी, मुझे गोल्ड मैडल मिला. फिर 15 अगस्त, पटना के गाँधी मैदान में होनेवाले परेड में पांच बच्चों का सलेक्शन हुआ जिनमे मैं भी शामिल हुई. हमने वहां कराटे का प्रदर्शन किया. मुख्यमंत्री के हाथों पुरस्कार भी मिला.”
वहीँ 9 वीं कक्षा में पढ़नेवाली दनियांवा (फतुहा जिला) की ज्योति कुमारी के भी पिता नहीं हैं. घर में माँ और दो छोटे भाई हैं. ये 2012 में चौथी कक्षा में एडमिशन लेकर हौसलाघार में आयी. भागलपुर में हुई कराटे प्रतियोगिता में ज्योति ने भी फर्स्ट किया था और पटना के गाँधी मैदान परेड में शामिल हुई थी. इन्हे डांसिंग-पेंटिंग का भी शौक है. इंजिनियर या डॉक्टर बनने की ख्वाहिश है.
कंचन कुमारी अभी 5 वीं में पढ़ रही है. दीघा की रहनेवाली है. इनके सर से भी पिता का साया उठ चुका है. कक्षा 3 से ही ये ‘हौसलाघार’ आ गयी थी. बिलकुल यही कहानी कराटे चैम्पियन काजल और निशु की भी है.
‘हौसलाघर’ संस्था की संस्थापक अध्यक्ष नीलू जी ने ‘बोलो जिंदगी’ को बताया कि “हमलोगों ने 2011 में सर्वे शुरू किया था, सर्वे के दरम्यान ये पता चला कि बहुत सारी बच्चियां अभी स्कूल से वंचित हैं और वो सड़क पर कचड़ा चुन रही हैं. उसी से उनका भरण- पोषण होता है. सरकार दावा करती थी कि सभी बच्चे स्कूल जा रहे हैं. लेकिन हमलोग जब भी देखते तो बच्चों को सड़क पर कचड़ा चुनते हुए पाते. हमे लगता कि जब ये बच्चियां कचड़ा चुन रही हैं तो स्कूल कब जाती हैं. जब सर्वे किये तो पता चला कि लगभग 11 हजार बच्चे हैं जो स्कूल से वंचित हैं, कभी स्कूल गए ही नहीं. फिर हमलोगों को अवसर मिला ‘हौसलाघर’ चलाने के लिए जो सर्व शिक्षा अभियान के तहत अभी एक स्कूल में चल रहा है. इसमें जो बच्चे आते हैं उनकी आर्थिक स्थिति एकदम खराब है. इनकी खुद की अपनी जगह-जमीं नहीं है तो गांव से पलायन करके यहाँ शहर में आएं हैं काम की तलाश में. इन बच्चियों को माँ-बाप कचड़ा चुनने में लगा देते हैं. हमलोगों ने ऐसे परिवारों को बहुत काउंसलिंग किया कि अगर इन बच्चों को ले जाकर पढ़ाते हैं और वे पढ़-लिखकर अच्छी जगह पर काम करने लगें, घर का माहौल बदल जाये तो क्या दिक्क्त है. पहले तो 2 साल तक ये तैयार नहीं हुए कि ये चली जाएगी तो कैसे काम चलेगा…कमाने वाला घर पर कोई नहीं है. लेकिन काफी काउंसलिंग करने के बाद वे तैयार हुए.”
शुरू-शुरू में ये बच्चियां तुरंत-तुरंत घर आना-जाना करती थीं. लेकिन जब यहाँ से वे अपने घर जाती तो गार्जियन को भी लगता था कि चलो वहां जाने से इनका बात-व्यव्हार सब बदल रहा है. ये बदलाव देखकर गार्जियन ने भी सोचा कि अगर हमारे चार बच्चों में एक बच्चा भी अच्छा निकल जाता है तो हमारे लिए बहुत बड़ी बात हो जाएगी. इन बच्चियों के पिता की डेथ पॉलीथिन वाली दारू पीने से हो चुकी है. शुरू-शुरू में ये झुग्गी की लड़कियां बोलती थीं कि हमें ये जगह पसंद नहीं है, हमे वो सड़क की चकाचौंध ही पसंद है. यहाँ वो एक दायरे में बंध गयीं. टाइम पर सोना, टाइम पर उठना, टाइम पर नाश्ता करना, स्कूल जाना और पढ़ाई के लिए बैठना पड़ता था. इनको ये अनुशासन पसंद नहीं आता था, इन्हे आजादी चाहिए थी. यहाँ से फ़ौरन निकाल दिया जाये इसके लिए ये जानबूझकर तोड़-फोड़ और चीजों को नष्ट करने वाली शरारतें करती थीं. कभी-कभी चोरी-छुपे घर भाग जाना भी हो चुका है. लेकिन फिर धीरे-धीरे जब गार्जियन को अपने बच्चों में सुधार नजर आने लगा तो उन्होंने अपने बच्चों की इन हरकतों का विरोध किया. तब जाकर बच्चियों ने उनकी बात मानी और यहाँ हौसलाघर में ठहरने लगीं.
यहाँ एक बच्ची ऐसी है जो सिर्फ दशहरे और होली के समय यहाँ भागकर आती थी क्यूंकि घर में अकेली थी और वहां पर लोग उसको तंग करते थें. डर से रात को सो नहीं पाती थी. तब वो बेचारी अपनी सुरक्षा के लिए यहाँ भागकर चली आयी.
उनको यह बताने के साथ यहाँ कराटे की ट्रेनिंग दी जाती है कि अगर बाहर कहीं कोई आपके साथ छेड़छाड़ करे तो आप उसका मुकाबला कैसे करेंगी. कोई रास्ते में परेशान करे तो क्या करेंगी. अब लड़कियां कहतीं हैं हमे छेड़ेगा तो लात-मुक्का खायेगा. इनके आस-पास के माहौल में बहुत सारे ऐसे आदमी होंगें जो इनको नोंचने के लिए बैठे होंगे. तो अब ये बच्चियां खुद की सुरक्षा के लिए पढ़ाई के साथ-साथ आत्मरक्षा के हुनर भी सीख रही हैं.