
“घर से दूर नया ठिकाना
अब यही खुशियों का आशियाना,
वो दोस्तों के संग हुल्लड़पन
वो नटखट सा मेरा बचपन,
हाँ अपनी यादें समेटकर
गलियों की खुशबू बटोरकर
दुनिया को दिखाने अपना हुनर
मैं आ गयी एक पराये शहर.”
अक्सर युवा लड़कियां घर से दूर बड़े शहर में कुछ मकसद लेकर आती हैं, अपना सपना साकार करना चाहती हैं. चाहे कॉलेज की पढाई हो या प्रतियोगिता परीक्षा, उसके लिए एक अजनबी शहर में लड़कियों का आशियाना गर्ल्स हॉस्टल से बेहतर क्या हो सकता है. पर दूसरे माहौल में, नए सांचे में ढ़लने में थोड़ा समय लगता है. आईये जानते हैं ऐसी ही हॉस्टल की लड़कियों से कि उनका हॉस्टल का शुरूआती दिन कैसे गुजरा…….
पटना के ‘संगम गर्ल्स हॉस्टल’ में रह रहीं बी.एस.कॉलेज, दानापुर से एम.सी.ए. कर चुकीं लखीसराय जिले की ममता कहती हैं – मुझे आगे आई.आई.टी. फिल्ड में जाना है. मैं 2011 में पटना हॉस्टल में रहने आई थी. शुरुआत में डरपोक टाइप की थी तो सब लोग बोलते कि ये कैसे बाहर एडजस्ट करेगी, नहीं रह पायेगी बाहर. इसी बात पर गुस्सा आता था तो मन में लगा कि अब सबको दिखाना है, बाहर जाकर रहना ही होगा. 2009 से 2011 तक मैं बहुत ज्यादा सीरियस थी, बहुत तबियत खराब थी. जब ठीक हुई तो फिर 12 वीं पास करते ही ग्रेजुएशन करने पटना आ गयी. सिमेज कॉलेज में एडमिशन लेकर बी.एस.आई.टी. की पढ़ाई शुरू की.
मुझे हॉस्टल फर्स्ट दिन छोड़ने पापा और भाई आये थें. उससे पहले मैं घर से बाहर कभी नहीं निकली थी, बाहर कभी अकेली नहीं रही थी. तब बहुत इमोशनल हुई थी क्यूंकि मम्मी से दूर रहने की आदत नहीं थी. फर्स्ट डे आयी थी तो मैं खो गयी थी. जिस दिन पापा छोड़ने आएं तो वहां 2 बजे से क्लास स्टार्ट हो गया था सिमेज में. जैसे वो छोड़कर गएँ हम क्लास चले गए. 7 बजे क्लास ओवर होता था. हॉस्टल की एक दीदी भी वहीँ पढ़ रही थीं तो वो मुझे लाइब्रेरी में रहने को बोलकर गयीं. हम लाइब्रेरी के अंदर में थें और वो लाइब्रेरी के बाहर से ही देखकर चली गयीं, मुझे नहीं देख पायीं. और हम बैठे सोच रहे थें कि अभी तक वो आयी क्यों नहीं. जब पौने 8 बज गए तो हम भी वहां से निकलें और बाहर आ गएँ. अब हम हॉस्टल पहुँचने का रास्ता ढूंढ रहे थें क्यूंकि पहले वाला हॉस्टल कॉलोनी के बहुत अंदर में था तो ढूंढते-ढूंढते रात 9 बज गए थें. सबसे पूछे जा रहे थें पर किसी को हॉस्टल का पता मालूम नहीं था. एस.के.पुरी, गांधीनगर का वह पूरा एरिया बहुत अँधेरे में था. लाइट पर्याप्त नहीं था. तब फोन भी लेकर चलने की आदत नहीं थी इसलिए फोन हॉस्टल में बैग में रखकर ही चली आयी थी. मेरे पास कुछ भी नहीं था, किसी का नंबर भी याद नहीं था कि किसी को फोन कर पाएं. संयोग से एक भइया मिल गए. वे बोले “तुम इतना रात को अकेली क्यों घूम रही हो, घर चली जाओ.” मेरे मुंह से अचानक से निकल गया कि “पटना में घर नहीं है, मैं यहाँ नई हूँ, आज ही हॉस्टल में आयी हूँ.” फिर बेचारे भइया भी मेरे साथ-साथ ढूंढ़कर परेशान हो गए. सिर्फ हॉस्टल का नाम पता था, लोकेशन नहीं. आज के टाइम में और ऐसी सिचुएशन में गैर लड़कों पर उतना यकीं नहीं किया जा सकता, लेकिन वो भइया बहुत अच्छे थें, क्यूंकि बहुत कम ऐसे मिलते हैं जो अपना टाइम देकर किसी की निस्वार्थ मदद करते हैं. वो भी हॉस्टल इधर-उधर खोजने में मेरे साथ घंटों घूमे. उधर हॉस्टल में पापा मेरे लिए फोन कर रहे थें कि मैं आयी या नहीं. हॉस्टलवाले भी परेशान हो गए थे. वो लोग भी ढूंढने निकल ही आ रहे थें कि तभी भैया मुझे लेकर हॉस्टल पहुँच गए. अगर वो नहीं रहते तो पता नहीं क्या हो जाता. रात 10-11 बज गए थें. हॉस्टल वार्डेन को पापा बराबर कॉल कर रहे थें. उस समय मेरी डर और घबराहट से बहुत हालत खराब हो रखी थी. मुझे लगा मैं तो खो गयी, पता नहीं अब क्या होगा मेरा.
पहलेवाले हॉस्टल में तो बहुत कम दिन रही फिर संगम हॉस्टल में आ गयी. तब से लगातार वहीँ पर हूँ. यहाँ फैमली जैसा माहौल मिल गया, आंटी लोग भी बहुत कॉपरेटिव हैं. घर से बाहर रहना है तो बहुत ज्यादा एडजस्ट करना पड़ता है. अच्छे पोस्ट पर जॉब करने, सेटेलमेंट के लिए बाहर जाना जरुरी होता है और मेरी तो अभी तुरंत पढ़ाई कम्प्लीट हुई है. पहले हम इतने डरपोक थें कि घर में शाम को छत पर भी अकेले नहीं जाते थें. अब ये है कि बाहर में रहने से थोड़ा सेल्फ कॉन्फिडेंस बढ़ा है. पहले चार लोगों से बात करने में बहुत झिझक होती थी. और आज भी जो माहौल है समाज में यह देखते हुए लड़कियों को गार्जियन बाहर पढ़ने नहीं भेजना चाहते हैं. अगर हमको बाहर पढ़ने का मौका मिला है तो हमें उस अवसर को गंवाना नहीं चाहिए. हम बेटियों को यह सोचना चाहिए कि एक रात के भोजन कि व्यवस्था में हमारे पिता पसीना बहाते हुए, स्ट्रगल करते हुए पूरी जिंदगी बिता देते हैं. मैं अमीर फैमली से नहीं, मीडिल क्लास फैमली से हूँ. मैं जानती हूँ कि मेरे पापा कैसे मुझे पढ़ा रहे हैं. मैं आज भी देखती हूँ उनको तो पाती हूँ कि वो 24 घंटे हम भाई-बहनों को अच्छे से पढ़ाने के चक्कर में दो वक़्त की रोटी भी चैन से नहीं खा पाते हैं. वो चाहते तो इतने अच्छे से मुझे नहीं पढ़ाते. लड़कियों को आज भी बहुत से गार्जियन पढ़ाना नहीं चाहते लेकिन मेरे पापा-मम्मी और भाइयों को और यहाँ तक की दादा-दादी को शौक था कि उनकी बेटी-पोती खूब पढ़े, आगे पढ़े, कुछ बने इसलिए मैं घर से दूर आज यहाँ हूँ. घर छोड़ते ही मैंने भी मन में गांठ बांध लिया था कि चाहे बाहर हॉस्टल में रहते हुए कितना भी मेरा मन ना लगे, लाख दिक्कत आये लेकिन अब तो घरवालों का सपना साकार करके ही लौटना है.