तब एहसास हुआ कि पापा मुझे कितना प्यार करते हैं : दिव्या सिंह

तब एहसास हुआ कि पापा मुझे कितना प्यार करते हैं : दिव्या सिंह

“घर से दूर नया ठिकाना 
अब यही खुशियों का आशियाना,
वो दोस्तों के संग हुल्लड़पन 
वो नटखट सा मेरा बचपन,
हाँ अपनी यादें समेटकर 
गलियों की खुशबू बटोरकर 
दुनिया को दिखाने अपना हुनर
मैं आ गयी एक पराये शहर.” 

अक्सर युवा लड़कियां घर से दूर बड़े शहर में कुछ मकसद लेकर आती हैं, अपना सपना साकार करना चाहती हैं. चाहे कॉलेज की पढाई हो या प्रतियोगिता परीक्षा, उसके लिए एक अजनबी शहर में लड़कियों का आशियाना गर्ल्स हॉस्टल से बेहतर क्या हो सकता है. पर दूसरे माहौल में, नए सांचे में ढ़लने में थोड़ा समय लगता है. आईये जानते हैं ऐसी ही हॉस्टल की लड़कियों से कि उनका हॉस्टल का शुरूआती दिन कैसे गुजरा…….

पटना के एक हॉस्टल में रहकर जे.डी.वुमेंस कॉलेज से एम.सी.ए. कर रहीं अरुणाचल प्रदेश से आयीं दिव्या सिंह कहती हैं –  वैसे तो मैं बिहार की हूँ लेकिन मेरे पापा अरुणाचल में जॉब करते हैं इसलिए मेरा बचपन वहीँ पर बिता है. मुझे बिहार का रहन-सहन, कल्चर एकदम पसंद नहीं था. और शायद इसीलिए मैं पटना में रहने के भी खिलाफ थी. लेकिन मेरी हेल्थ प्रॉब्लम ( माइग्रेन) की वजह से पापा मुझे बाहर दूसरी जगह नहीं भेज पा रहे थें. इसलिए चूँकि मेरे सारे रिलेटिव पटना में रहते थें तो उन्होंने सबकी देख-रेख में मुझे पटना के हॉस्टल में डाल दिया सिमेज कॉलेज से ग्रेजुएशन करने के लिए. फर्स्ट डे मुझे यहाँ का कल्चर अरुणाचल से बहुत डिफरेंट लगा, और यहाँ के लोग भी वहाँ जैसे नहीं लग रहे थें. फर्स्ट डे मैं कोई भी फ्रेंड नहीं बना पायी. लेकिन हॉस्टल वाली आंटी बहुत ज्यादा कॉपरेट की मेरे साथ. वो समझ रही थीं कि हाँ, ये दूसरे कल्चर से आयी है तो एडजस्ट करने में बहुत दिक्कत हो रही है. पहले दिन हॉस्टल में मेरे साथ एक भी फ्रेंड नहीं थी. मेरा दोनों रूम एकदम खाली था और मैं अकेली रह रही थी. मुझे यहाँ छोड़ने फर्स्ट दिन पापा, बड़े पापा, और बड़ी माँ आयी थीं. मम्मी अरुणाचल में ही थी क्यूंकि मेरे भाई-बहन के क्लासेज चल रहे थें. वो लोग जब मुझे छोड़कर चले गए तो फर्स्ट डे मुझे रोते-रोते फीवर हो गया था. नेक्स्ट डे पापा बोले थें कि आएंगे और मेरा बुक्स वगैरह खरीदेंगे फिर कॉलेज लेकर जायेंगे. तो पापा बैग्स, कॉपी सारा कुछ लेकर आएं और मुझे सिमेज में इंट्रोडक्शन क्लास कराने लेकर गए. क्लास में मुझे लगा कि पापा चले गएँ लेकिन सुबह से शाम तक पापा वहीँ कॉलेज बिल्डिंग के नीचे रिसेप्सन पर बैठे ही रह गएँ. वो खाना भी नहीं खाये थें. सुबह 8 बजे से शाम 4 बजे तक इंट्रोडक्शन क्लास ही होते रहा और थोड़ा सा भी आइडिया नहीं था कि पापा अभी तक रुके हैं. तब मुझे एहसास हुआ कि मेरे पापा मुझे कितना प्यार करते हैं. जब मैं क्लास करके नीचे आयी तो पापा को देखकर एकदम से चौंक पड़ी कि वो वहां से थोड़ा सा भी हिले नहीं हैं. मुझे देखकर उन्होंने तपाक से पूछा- “भूख लगी होगी ना तुमको ?” मैंने कहा- “नहीं, भूख तो नहीं लगी. आप को देखकर सारी भूख मर गयी.” फिर पापा मुझे रिक्शे पर बैठाकर हॉस्टल ड्राप किये फिर वो एकदम अजीब सा एक्सपीरियंस था क्यूंकि वो जा रहे थें. फाइनली उन्हें नेक्स्ट डे अरुणाचल के लिए निकलना था. वे बोले- “तुम्हीं को अब कॉपरेट करना है, और धीरे-धीरे एडजस्ट करना है तुमको.” पापा चले गए तो फिर रोजाना मेरा रोना-गाना शुरू ही रहता था कि “मैं एडजस्ट नहीं कर पाऊँगी, मैं चली जाउंगी.” झूठमूठ की तब मेरी तबियत भी खराब हो जाती थी. तब पापा मुझे स्मार्टफोन खरीदकर दे दिए. बोले कि “तुम मन लगाओ, यू-ट्यूब देखो, बहुत सारा वेबसाइट है वो पढ़ो.” तो उसी रोने-धोने के बहाने मुझे स्मार्टफोन भी मिल गया और हम बड़े खुश हो गए थें स्मार्टफोन पाकर. उसमे हम टाइम स्पेंड बहुत किये. फिर धीरे-धीरे क्लासेज में मन लगाने लगें. 4 साल होने को आएं लेकिन आज भी हम पूरी तरह से बिहार के लोगों के साथ एडजस्ट नहीं कर पाए हैं. अभी मैं हॉस्टल में ही रहते हुए जेडी वीमेंस कॉलेज से मास्टर डिग्री कर रही हूँ तो एक-डेढ़ साल अभी और बिताने हैं. 4 सालों में हम कभी भी अरुणाचल नहीं जा पाए हैं क्यूंकि कॉलेज में उतनी लम्बी छुट्टी नहीं रहती. और यहाँ से अरुणाचल ट्रेन से जाने में तीन दिन लगता है तो आने-जाने में ही 6 दिन जर्नी में चले जाते हैं. दशहरा में 10 दिन की छुट्टी होती तो है लेकिन सिर्फ 4 दिन रूककर कौन आएगा. मेरे पापा का कहना है कि “तुम जब भी आओ तो एक महीने के लिए आओ.” तो ना कभी उतनी छुट्टी होगी और ना कभी हम जायँगे. लेकिन हाँ , मेरे पैरेंट्स साल में एक बार जरूर मुझसे मिलने आते हैं. यहाँ आरा जिले में हमारा खुद का घर है. तो हम छुट्टियों में उनके साथ घर पर टाइम बिताते हैं. थोड़ बहुत तो अब मैं एडजस्ट कर ली हूँ लेकिन जब मम्मी-पापा आ जाते हैं तो लगता है उन लोगों के साथ ही चली जाऊँ.

सूचना:
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About The Author

'Bolo Zindagi' s Founder & Editor Rakesh Singh 'Sonu' is Reporter, Researcher, Poet, Lyricist & Story writer. He is author of three books namely Sixer Lalu Yadav Ke (Comedy Collection), Tumhen Soche Bina Nind Aaye Toh Kaise? (Song, Poem, Shayari Collection) & Ek Juda Sa Ladka (Novel). He worked with Dainik Hindustan, Dainik Jagran, Rashtriya Sahara (Patna), Delhi Press Bhawan Magazines, Bhojpuri City as a freelance reporter & writer. He worked as a Assistant Producer at E24 (Mumbai-Delhi).

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